पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३१३

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(२२०) सूरसागर। गिरिधर वर मांगत रविसों घोषकुमारि ॥ १७ ॥ कान्हरो ॥ घरघरते ब्रज युक्ती आवति । दधि : अक्षत रोचन धरि थारनि हरषि श्याम शिर तिलक वनावति ॥ वारंवार निरखि छवि अंग अंग। श्याम रूप उरमाहँ दुरावति । नंद सुवन गिरि धरयो वामकर यह कहिकै मनहरप वढावति ॥ जहि । पूजति सब जन्म गवायो सो कैसेहुं पग छुवन नपावति । सूरश्याम गिरिधरन मांगि वरु करजापति कहि विधिहि मनावति ॥ १८॥ सोरठ ॥ नीके धरणि धरयो गोपाल । प्रलयवनजल वरपि सुरंपति परयो चरण विहाल ॥ करत स्तुति नारि नर ब्रज नंद अरु सब ग्वाल । जहां तहां सहाय हमको होतहैं नंदलाल ॥ जाहि पूजत डरत मनमें ताहि देख्यो दीन । त्रिदशपति सव सुरको नायक सो। भयो आधीना देखि छवि अति नंदसुतकी नारि तन मन वारिरीसूरप्रभु करते गुवर्धन धरयो धरणि उत्तारि ॥ १९ ॥ नट ॥ करते धरयो धरणी धरनि । देखि व्रजजन थकित ढ रहे रूप रतिपति हर निलेत वेर न धरत जान्यो कहतनज नर घरनि । तन ललित भुज अतिहि कोमल कियो बल बहु करनि ॥ मोर मुकुट विशाल लोचन श्रवण कुंडल वरानि । सूर सुरपति हारि मानी तब परयो दुहुँ चरनि ॥२०॥ विलावल ॥ घरनि घरनि ब्रज होत बधाई । सातवरषके कुँवर कन्हैया गिरिवर । धरि जीत्यो सुरराई । गर्व सहित आयो ब्रज बोरन यह कहि मेरी भक्ति घटाई । सातदिवस जल वरषि सिराने तब आयो पाइँनतरधाई। कहाँ कहाँ शंकट नहिं मेटत नर नारी सब करत बड़ाई। सूरझ्याम अबकै ब्रजराख्यो खाल करत सब नंद दोहाई ॥२१॥ नट ॥ क्यों राख्यो गोवर्धन श्याम अतिऊंचो विस्तार अतिहि बहु लीनो उचकि करज भुजवाम ॥ यह आघात महाप्रलय जल डर आवत मुख लेतहि नाम । नीके राखि लियो ब्रज सिगरो ताको तुमहि पठायो धाम ॥ ब्रज अवता र लियो जवते तुम यहै करत निशि वासर यामासूरश्याम वन घन हम कारण बहुत करत श्रमनहिं : विश्राम ॥ २२ ॥ राखि लियो ब्रज नंदकिसोर । आयो इंद्र गर्व करि चर्टिकै सात दिवस वरपत ] भयो भोर ॥ वाम भुजा गोवर्धन राख्यो अति कोमल नखहीकी कोर । गोपी ग्वाल गाइ ब्रजगख्यो । नेकु न आई बूंद झकोर ।। अमरापति चरणन लै परयो जब पीते युग गुनको जोरासूरश्याम करु णां के ताको पठे दियो घर मानि निहोर ॥ २३ ॥ मलार ॥ मेरो मोहन जल प्रवाहक्यों : टारयो । बूझत मुदित यशोदा जननी इंद्र कोप करिहारयो ॥ मेघवर्त जल वरपि निशा दिन नेकु न नैन उघारयो । वार वार यह कहति कान्हसों कैसे गिरि नख धारयो । सुरपति आनि गिन्यो गहि पांइन ताको शरन उवायो । सूरश्याम जनके सुखदाता करते धरणि उतारयो ॥२४॥ सोरठ ॥ मेरे सांवरे मैं बलिजाउँ भुजनकी । क्यों गिरि साल धरयो कोमल कर वूझतिहौं गति तनकी । इंद्र कोप आयो ब्रज़ ऊपर बहुत पैज करि हारे। गढे गोप कहत भैयाहो तैं हम भले उवारे॥थार तमोर दूध दधि रोचन हरषि यशोदा ल्याईीकरै शिर | तिलक चरण रजवंदित मनहु रंक निधिपाई । चरणनपरत कमल जसुंदरि हरषि हरषि:सुसु काईफिरि फिरि दरशकरति एही मिस प्रेम न प्रीति अघाई।गोपी गाइ ग्वाल गोसुत सब वार चार अकुलाही । निरांखे. निरखि सुंदर मुख सोभा प्रेम तृषा न बुझाही । सूरदास सुरपति शंकितकें । सुरनलिये सँगआयो । तुम जुः अनंत अखिल अविनाशी काहू मरम नपायो ॥२५ ॥ सोरठ : गिरिवर कैसे लियो उठाई । कोमल कर चापति यशुदा यह कहिलेत बलाई ॥ महाप्रलय जल 'तापर राख्यो एक गोवर्धन भारी । नेक नहीं हाल्यो नखपरते मेरो सुत अहंकारी ॥ कंचनवार || दूब दधि रोचन सजि तमोर लैआई। हरपतितिलक करति मुख निरखति भुजभार कंठ लगाइ... .. ... .... . .. . . -:.