पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३१६

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दशमस्कन्धं १० (२२३) तुम भोग लगावह॥तुम आगे वह भोजन खैहै। मुँह माग्यो फल तुमको दैगिसो देव प्रगटगोवर्ध न। जाके पूजे वाढ़े गोधन ॥ समुझि परी कैसी यह वानी। ग्वाल कही यह अकथ कहानी ॥ सूर श्याम यह सपनो पायो। भोजन कौन देवही खायो ॥१६॥ मानहु कह्यो सत्य यह वानी।जो चाहौ व्रजकी रजधानी।।जो तुम मुंह मांगयो फल पावहु । तो तुम अपने करन जेवावहु।भोजन सब खैहैं मुंहमांगीपूजत सुरपति तिनके आगे॥ मेरी कही सत्य कार मानहु। गोवर्धनकी पूजा ठानहु।सूरश्याम कहि कहि समुझायो । नंद गोप सबके मन आयो ।। १६॥ सुरपति पूजा मटि धराई । गोवर्धनकी करत पुजाई। पांचदिनालौं करी मिठाई। नंदमहरघरकी ठकुराईजाक घरनी महरि यशोदाअष्ट सिद्धि नवनिधि चहुँ कोदा॥ घृत पक बहुत भांति पकवाना। व्यंजन बहु को करै वखाना ॥ भोग अन्न बहु भार सजायो। अपने कुल.सब अहिर बोलायो ॥ सहस शकट भरि भरत मिठाई । गोव- र्धनकी प्रथम पुनाई । सूरश्याम यह पूजा ठानी । गिरिगोवर्धनकी रजधानी ॥ १७॥ ब्रज घर घर सब भोजन साजत । सबके द्वार वधाई वाजत ॥शकट जोरिलै चले देववलिागोकुल ब्रजवासी सब हिलि मिलि ॥ दधि लवनी मधु साजि मिठाई ।कहलगि कहाँ सबै बहुताई।घर घरते पकवान चलाए । निकसि गांवके ग्बैंडे आये ॥ ब्रजवासी तहां जुरे अपारा। सिंधुसमान पारंना वारा ॥ पैडे चलन नहीं कोउ पावत । शकटभरे सव भोजन आवत ॥ सहस शकट चले नंद महरके । और शकट कितने घरघरक। सूरदास प्रभु महिमा सागर । गोकुल प्रगटे, हरिनागर ॥१८॥ इक आ- वत घरते चले धाई । एकजात फिरि घर समुहाई ॥ इकटेरेत इक दौरे आवत । एक गिरावत एक उठावत ॥ एक कहत आवहुरे भाई । बैल देतहै शकटगिराई ॥ कौन काहिको कहै सँभारे । जहाँ तहाँ सब लोग पुकारै ॥ कोउ गावत कोउ निर्तत आवै । श्यामसखासंग खेलत धावै ॥ सूरदास प्रभु सबके नायक । जो मनकरै सो करिवे लायक ॥ १९॥ सजिशृंगार चली बजनारी । युवतिन भीरभई अतिभारी ॥ जगमगात अंगनिप्रति गहनो । सबके भाव दरशहरि लहनो। यहि मिस देखनको सव आई। देखत एकटक रूप कन्हाई ॥वै नहिं जानत देव पुजाई । केवल श्याम हिसों लवलाई । कोमलजाति कहाको बोलत।नंदसुवन ते चितनहिं डोलत ॥ सूरभजै हरि जो जेहि भाउ । मिलत ताहि प्रभु तेहि सुभाउ ॥२०॥ गोपनंद उपनंद गए तहँ । गिरिगोवर्धन बडे देव जहँ ॥ शिखर देखि तब रीझे मन मन । ग्वाल कहत आजहि अचरज वनअति ऊंचो गिरिराज विराजत । कोटि मदन निरखत छवि लाजत ॥ पहुँचे शकटनि भरि भरि भोजन । कोउ:आए कोउ नहिं कहुँ खोजन ॥ तिनके काज अहीर पठाए । विलमकरहु जिनि तुरत धवाए ॥ आवत मारग पाये तिनको । आतुरकरि बोले नँद जिनको ॥ तुरत लिवाइ तिनहि तहां आए । महर मनहि अति हरप बढाए । सूरदास प्रभु तहँ अधिकारी।बूझतहैं पूजा परकारी ॥ २१॥ आइ जुरे सव ब्रजके वासी । डेरापरयोकोशचौरासी।एक फिरत कहुँ और नपा। एतेपर आनंद बढ़ावै॥ कोउ काहूसों वैर नताकै । वैठत मन जहां भावत जाकै ॥ खेलत हँसत करें कौतूहल । जुरे लोग तहँ तहां अकूहल ।। नंदकह्यो सब भोग मँगावहु । अपने कर सब लैलै आवहु ॥ भोग बहुत वृपभानुहिँ घरको । को करि वरनै अतिहि वहरको ॥ सूरश्याम जो.आयसु दीन्हों । विप्रवुलाइ नंद तब लीन्हों ॥२२॥ तुरत तहां सब विप्र बोलाए । यज्ञारंभ तहां. करवाए । सामवेददिज गान करत तहां । देखत सुर विथके अमरन जहां ॥ सुरपति पूजा तवहि मिठाई । गिरिगोवर्धन तिलक चढ़ाई ॥ कान्ह कह्यो.गिरि दूध अन्दावन । वडे देवता. इनहि मनावहु ॥ गोवर्धन -