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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३१६

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दशमस्कन्ध १०


तुम भोग लगावहु॥ तुम आगे वह भोजन खैहै। मुँह माँग्यो फल तुमको दैहै॥ ऐसो देव प्रगट गोवर्धन। जाके पूजे बाढ़ै गोधन॥ समुझि परी कैसी यह वानी। ग्वाल कही यह अकथ कहानी॥ सूरश्याम यह सपनो पायो। भोजन कौन देवही खायो॥१६॥ मानहु कह्यो सत्य यह वानी। जो चाहौ ब्रजकी रजधानी।।जो तुम मुँह मांगयो फल पावहु। तौ तुम अपने करन जेवावहु॥ भोजन सब खैहैं मुँहमाँगे। पूजत सुरपति तिनके आगे॥ मेरी कही सत्य करि मानहु। गोवर्धनकी पूजा ठानहु॥ सूरश्याम कहि कहि समुझायो। नंद गोप सबके मन आयो॥१६॥ सुरपति पूजा मटि धराई। गोवर्धनकी करत पुजाई। पांचदिनालौं करी मिठाई। नंदमहर घर की ठकुराई॥ जाके घरनी महरि यशोदा। अष्ट सिद्धि नवनिधि चहुँ कोदा॥ घृत पक बहुत भांति पकवाना। व्यंजन बहु को करै वखाना॥ भोग अन्न बहु भार सजायो। अपने कुल सब अहिर बोलायो॥ सहस शकट भरि भरत मिठाई। गोवर्धनकी प्रथम पुजाई। सूरश्याम यह पूजा ठानी। गिरिगोवर्धनकी रजधानी॥१७॥ ब्रज घर घर सब भोजन साजत। सबके द्वार बधाई बाजत॥शकट जोरिलै चले देववलि। गोकुल ब्रजवासी सब हिलि मिलि॥ दधि लवनी मधु साजि मिठाई॥ कहँलगि कहौं सबै बहुताई॥ घर घरते पकवान चलाए। निकसि गांवके ग्वैंडे आये॥ ब्रजवासी तहां जुरे अपारा। सिंधुसमान पारना वारा॥ पैडे चलन नहीं कोउ पावत। शकटभरे सब भोजन आवत॥ सहस शकट चले नंद महरके। और शकट कितने घरघरक॥ सूरदास प्रभु महिमा सागर। गोकुल प्रगटेहैं हरिनागर॥१८॥ इक आवत घरते चले धाई। एकजात फिरि घर समुहाई॥ इकटेरेत इक दौरे आवत। एक गिरावत एक उठावत॥ एक कहत आवहुरे भाई। बैल देतहै शकटगिराई॥ कौन काहिको कहै सँभारे। जहाँ तहाँ सब लोग पुकारै॥ कोउ गावत कोउ निर्तत आवै। श्यामसखासंग खेलत धावै॥ सूरदास प्रभु सबके नायक। जो मनकरै सो करिवे लायक॥१९॥ सजिश्रृंगार चलीं ब्रजनारी। युवतिन भीरभई अतिभारी॥ जगमगात अंगनिप्रति गहनो। सबके भाव दरशहरि लहनो॥ यहि मिस देखनको सब आई। देखत एकटक रूप कन्हाई॥ वै नहिं जानत देव पुजाई। केवल श्याम हिसों लवलाई। कोमलजाति कहाको बोलत। नंदसुवन ते चितनहिं डोलत॥ सूरभजै हरि जो जेहि भाउ। मिलत ताहि प्रभु तेहि सुभाउ॥२०॥ गोपनंद उपनंद गए तहँ। गिरिगोवर्धन बडे देव जहँ॥ शिखर देखि तब रीझे मन मन। ग्वाल कहत आजुहि अचरज वन॥ अति ऊंचो गिरिराज विराजत। कोटि मदन निरखत छबि लाजत॥ पहुँचे शकटनि भरि भरि भोजन। कोउ आए कोउ नहिं कहुँ खोजन॥ तिनके काज अहीर पठाए। विलमकरहु जिनि तुरत धवाए॥ आवत मारग पाये तिनको। आतुरकरि बोले नँद जिनको॥ तुरत लिवाइ तिनहि तहां आए। महर मनहि अति हरष बढाए। सूरदास प्रभु तहँ अधिकारी। बूझतहैं पूजा परकारी॥२१॥ आइ जुरे सब ब्रजके वासी। डेरापरयो कोशचौरासी॥ एक फिरत कहुँ ठौर नपावै। एतेपर आनंद बढ़ावै॥ कोउ काहूसों वैर नताकै। वैठत मन जहां भावत जाकै॥ खेलत हँसत करें कौतूहल। जुरे लोग तहँ तहां अकूहल॥ नंदकह्यो सब भोग मँगावहु। अपने कर सब लैलै आवहु॥ भोग बहुत वृपभानुहिँ घरको। को करि वरनै अतिहि वहरको॥ सूरश्याम जो आयसु दीन्हों। विप्रवुलाइ नंद तब लीन्हों॥२२॥ तुरत तहां सब विप्र बोलाए। यज्ञारंभ तहां करवाए॥ सामवेदद्विज गान करत तहां। देखत सुर विथके अमरन जहां॥ सुरपति पूजा तबहि मिठाई। गिरिगोवर्धन तिलक चढ़ाई॥ कान्ह कह्यो गिरि दूध अन्हावहु। बडे देवता इनहि मनावहु॥ गोवर्धन