पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३१७

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(२२४) 'सूरसागर। दूधहि अन्हवाए। देवराज कहँ माथ नवाए ॥ नये देवता कान्ह पुजावत । नर नारी सब देखन आवत ॥ सूरश्याम गोवर्धन थाप्यो । इंद्रदेखि रिसकरि तनु काप्यो ॥ २३ ॥ देखिइंद्र मन गर्व वढायो । ब्रजलोगन सब मोहिं विसरायो।अहिरजाति ओछी मति कीन्ही । अपनी ज्ञाति प्रगट करिदीन्ही॥ पूजत गिरिहि कहा मनआई । गिरि समेत व्रज देउँ वहाई ॥ देखोधौं कितनों सुखपैहैं मेरे मारत काहि मनैहैं ।। पर्वत तब इनको क्यों राखत । वारंवार कहै इह भाषत ।। पूजत गिरि अति प्रेम बढाए । सपनेको सुख लेत मनाए। सूरदास सुरपतिकी वानी ब्रजवोरौं प्रलयके पानी॥ ॥२४॥ श्याम कह्यो तब भोजन लावहु । गिरि आगे सब आनि धरावहु ।। सुनत नंद तहँ बाल वोलाएं। भोग सामग्री सबै मँगाए ॥ पटरसके बहुभांति मिठाई । अन्नभोग अतिही बहुताई ॥ व्यंजन बधुतभाँति पहुँचाए । दधि लवनी मधु माट धराए। दही बरा वहुतै परसाए । चंद्रहि सम पटतर तेहि पाए ॥ अन्नकूट जैसो गोवर्धन । अरु पकवान धरे चहुँकोदन ।। परसत भोजन प्रात हिते सब । रवि माथेते ढरकि गयो अब ।। गोपन कह्यो श्याम ह्यां आवहु । भोगधरयो सबगिरिहि जमावहु ।। सूरश्याम आपुनहींभोगी। आपुहि माया आपुहि योगी ॥२६॥ कान्ह कह्यो नंद भोग लगावहु । गोपमहर उपनंद बोलावहु ।। नैनदि करजोरि मनावहु । प्रेमसहित देवहि न चढ़ावहु॥ मनमें नेक सुटक जानि राखहु । दीनवचन मुखते तुम भाषहु ॥ ऐसीविधिगिरि परसन ढहै । सहस भुजा धीर भोजन है।सूरदास प्रभु आपु पुजावतायह महिमा कैसे कोउ पावत ॥२६॥श्यामकही सोई सब मानी। पूजाकी विधि हम अब जानी ॥ ननमूद करजारि बोलायो । भावंभक्ति सों भोग लगायो ।बड़ेदेव.गिरिराज सबनके । भोजन करहु कृपाकार हिनके सहसभुजाधार दरशनदीन्हो जैजै ध्वनि नभ देवन कीन्हो ॥ भोजन करत सबनके आगे। सुर नर मुनि सब देखन लागे। देखि थकित बजकी सब बाला । देखत नंद गोप सब ग्वाला ।। सूरश्याम जनके सुखदाई। सहसभुना धरि भोजन खाई॥२७॥जेवत देव नंद सुख पायो।कान्ह देवता प्रगट देखायोत्रिजवासी गिरि जेवत देख्यो।जीवन जन्म सफल करि लेख्यो।ललिताकहति राधिका आगे। जेवत कान्ह नंदकर लागे।मैं जानी हरिकी चतुराई । सुरपति मेटि आपु बलिखाई ॥उत जेंवत इत वातन लागे । कहत श्याम गिरि जेवन लागे । मैं जो बात कही सो आई। सहसभुजा धरि भोजन खाई । और देव इनकी सरि नाहीं ।इत बोधत उत भोजन खाहीं।। सूरदास प्रभुकी यह लीला । सदा करत वनमें यह क्रीला ॥२८॥ यह छवि देखि राधिका भूली। बात कहत सखियनसों फूली ॥ आपुहि देव आपुही पुजेरी। आपुहि भोजन जेवत ढेरी ॥ अतिआतुर जेंवतहैं भारी । एक वृषभानु विलोवन हारी ।। नाम ताहि वदरोला नारी। ताकी बलि लई भुजा. पसारी-॥ उत गिरि संग खात बलिसारी। वदरौलाकी बलि रुचिकारी। सूरदास प्रभु.जेवनहारी । गिरि वपुरेसों कौन.अधिकारी॥२९॥इतहि श्याम गोपन सँग ठाढ़े। भोजन करत अधिक रुचिवाढ़े ॥ गिरितन सोभा श्याम विराज। श्यामहि छवि गिरिवरकी छाजै ॥ गिरिवर उर पीतांवरडारे । मोतिनकी उरमाला भारे ॥ अँग भूषण श्रवणन मणिकुंडल। मोरमुकुट शिर अलकहै झुंडल॥छवि निरखत सब घोषकुमारी। गोवर्धन छवि श्याम अनुहारी।। सूरश्याम लीला रसनायक । जन्म जन्म भक्तन सुखदायक॥३०॥ भोजन करत देवभए परसन । माँगहु नंद तुम्हारे जो मन ॥ भलीकरी तुम मेरी पूजा । सेवक तुमते और न दूजा॥ जोइमांगौ सोइ फल मैं देहौं । जहां भावताही परहो, मैसेवावश भयो तुम्हारे! जोइ फल चाहो लेहु सवारे ॥ यह सुनि चकृतभए नर नारी। भोजन कियो प्रथमही भारी ॥