पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३२०

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दशमस्कन्ध-१० (२२७) प्रभु सन्मुख सब पहुँचे आनी ॥ गार्ज गजि पहरातहि आए । देव देव कहि माथ नवाए।। सूरदास डरपत सब जलधर । हमपर क्रोध किधों काहू पर ॥४४॥ चितवतही सब गए झुराई । सकुचि कह्यो कापर रिसपाई । क्षमाकरहु आयसु हमपा। जापर कहौ ताहिपर धावें ॥ सैनसहित. प्रभु. हमहि.बोलाए । आज्ञा सुनत तुरत उठिधाए।ऐसो कवन जाहि प्रभु कोपीजीवनाम सब तुम्ह रेइ रोपे ॥ सूर कही यह मेघन वानी । यह सुनि सुनि रिस कछुक भुजानी ॥ ४५ ॥ मेघनिसों बोले सुरराई । अहिरन मोसों करी ढिठाई ॥ मेरी दीन्ही करत बडाई । जानिबूझि मोहिं दियो भुलाई ॥ सदा करत मेरी सेवकाई । अब सेवत पर्वत कह जाई॥ इहीकाज तुमको हँकराये। भलीकरी सैना लियेआए । गाइ गोप ब्रज सवै वहावहु । पहिले पर्वत दोदि ढहावहु ॥ जब यह सुनी इंद्रकी वानी । मेघन मन तव धीरज आनी ॥ सूरदास यह सुनि वनतमके । कापर क्रोध करत प्रभु जमके ॥ ४६॥ रिसलायक तापर रिसकीजै । यहिरिसते प्रभु देही छीजै ॥ तुम प्रभु हमसे सेवक जाके । ऐसो कवन रहै तुम ताके ॥ छिनहींमें ब्रज धोइ वहा । डूंगरको कहि नाउँ नपावै ॥ आपु क्षमा करिये देवराई । हम करिहैं उनकी पहुनाई ॥ यह सुनिकै हरपित चित कीन्हों। आदर सहित पान कर दीन्हो ॥ प्रथमहि देहु पहार वहाई। मेरी बलि वोही सब खाई ।। सूर इंद्र मेपनि समझावत । हरपि चले घन आदर पावत ॥१७॥ आयसुपाइ तुरतही धाये । अपनी सैना सवानि बोलाये ॥ कह्यो सबनि ब्रज ऊपर धावहु । घटाघोर करि गगन छपावहु ॥मेष वर्त जलवर्तक आगे । और मेघ सब पाछे लागे॥ गरजि उठे व्रज ऊपर जाइ । शब्दकियो आघात सुनाइ ॥ ब्रजके लोग डरे अतिभारी । आज घटा देखतिहै कारी।। देखत देखत अति अधिकायो नेकहि में रविगगन छपायो । ऐसे मेघ कबहुँ नहिं देखे । अतिकारे काजर अवरेखे ॥ सुनहसूर एमेघ डरावन । ब्रजवासी सब कहत भयावन ॥४८॥ गरजि गरज व्रज घेरत आवै । तरपि तरपि चपला चमकावे ॥ नर नारी सब देखत्तठाये वादर प्रलयके काटीदरदरात पहरात प्रवल अतिगोपी ग्वाल भए और गति।कहा होन अवही यह चाहत । जहाँ तहाँ लोग इहै अवगाहत ॥ खनभीतर सन वाहिर आवतागगन देखि धीरज विसरावत।सूरश्याम यह करी पुजाई तातेसुरपति चन्यो रिसाई ॥४९॥ फिरत लोग जहँतहवितताने । कोहै अपने कौन बिराने ॥ ग्वाल गए जे धेनु चरावनातिनहि परयो वनमांझ परावनाागाइ वच्छ कोऊनसँभारीजियकी सवको परी बँभागाभागे आवत ब्रजही तनको । विपति परी अति वन ग्वालनको ॥अंध धुंध मग कहूं न सूझेब्रजभीतर अजहीको बूझै ॥ जैसे तैसे व्रज पहिचानत । अटक रही अटकर करि आनत खोजत फिरें आपने घरको । कहा भयो भैया घोप शहरको । रोवत डोलें घरहि नपा । द्वार द्वार घरको विसरावें। सूरश्याम सुरपति विसरायोगिरिके पूजे यह फल पायो॥५०॥यमुनाजलहि गई जो नारी।डारिचली शिर गागौर भारी ॥ देखो मैं वालक कत छांड्यो । एक कहत भंगन दधि मांडयो।एक कहत मारग नहिं पावति । एक सामुहे बोलि बतावति ॥ ब्रजवासी.सब अति अकुलाने । कालिहि पूज्यो फल्यो विहानाकहां रहे अब कुँवरकन्हाइ।गिरि गोवर्धन लेहि बोलाई। जेवन सहसभुजाधरिभाव।।अब द्वभुज हमको देखरावै।यह देवता खातही लोकोपाछे पुनि तुम कौन कहौके।सूरश्याम सपनों प्रग टायो। घरके देव सपनि विसरायो ॥५१॥ गर्जत घन अतिही पहरावत । कान्ह सुनत आनंद बढ़ावत ।। कौतुक देखत ब्रजलोगनके । निकट रहत संगहि सँग जनके ॥ यक सैंतत घरके सब । वासनः। लीने फिरत घरहिके पासन ॥ येक कहत जियकी नहिं आसा। देखत सबै दुएके नाशा॥ % E -