पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३२२

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दशमस्कन्ध-१० (२२९) भ्रमते टूटि गये सबके उर । जलविनु भए सवै धन धूंधर। की मारौ कै शरण उवारौ। हममें कहा रह्यो अवगारौ । जहँ तहँ वादर रोवत बोले । श्रम अपने प्रभु आगे खोले ॥ सात दिवस नहिं मिटी लगार । वरष्यो सलिल अखंडित धार ।। महाप्रलय जल नेक नउवरयो । ब्रजवासी नीके अब नि दरयो।बिसोइगिरि वैसाइ ब्रजवासी नेिक बूंद नहिं धरणि प्रगासी।सूर सुनत सुरपती उदासीदेिखहुये। आए जलरासी॥६॥चकृत भयो ब्रज चाह सुनाई। पुनि पुनि बूझत मेघ बुलाई ॥ कहां गयो जल । प्रलयकालको । कहा कहाँ सब तन वेहालको ॥ कहा करें अपनों वल कीन्हौं । व्याकुल रोइ रोइ तब दीन्हौं ॥ दंड एक वरपै मनलाइ । पूरण होत गगनलौं आइ ॥ पर्वत मेंहै कोउ अवतार । सुरप ति मन यह करत विचार ॥ सूर इंद्र सुरगण हँकराये। आज्ञा सुनत तुरत उठि आये ॥ १२ ॥ सुरपति आगे भए सब ठाढे । चिता सवहिनके मन वाढे ॥ कौन काज सुरराज बोलाए। सकुच सहित पूंछतसे आए ॥ कहा कहाँ कछु कहत न आवै । मघवनकी गति सुरन वतावै ॥ ब्रजवासिन मोको विसरायो । भोजन लै सब गिरिहि चढायो॥ मोको मटि पर्वतहि थाप्यो । तब मैं थरथराय रिस कांप्यो। सूरदास यह सुरन सुनाई । याकारज तुमलिए बोलाई ॥६३॥ सुरन कही सुरपतिके आगे । सन्मुख कहत सकुच हम लागे ॥ सकुचत कत सो वात सुनावहु । नीके करि मोको समुझावह।। नीके भांति सुनौ सुरराई । ब्रजमें ब्रह्म प्रगट भए आई॥ तुम जानत जव धरणि पुकारी । पापहि पापभई अति भारी।। पौडे सेज शेप संग श्री प्यारी । ते ब्रज भीतर, वपुधारी॥ ब्रह्मकथा कहि आदि पसारी। तिनसों हम कीनी अधिकारी ॥ सूरदास प्रभु गिरि कर धारी । यह सुनि इंद्रःडरयो मनभारी ॥ ६४॥ यह मोको तवही न सुनाई । मैं बहुतै कोन्ही अधमाई ॥ पूरन ब्रह्म रहे व्रज आई। काहूतौ मोहि सुधि न दिवाई ॥ सुरनि कही नहि करी भलाई। आज कह्यो जव महत गवाई ॥ यह सुनि अमर गए सरमाई सुनहु राज हमजानि नपाई। अब सुनिए आपुन मनला ई। ब्रजहि चलो नहिं और उपाई ॥ वैहैं कृपासिंधु करुणाकर । क्षमा करहिंगे श्रीसुंदरवर ॥ और कछू मनमें जिनि आनहु । हम जो कहैं सत्य कार मानहु ॥ सूर सुरन यह बात सुनाई । सुरपति शरण चले अकुलाई ॥ ६५ ॥ जब जान्यो ब्रज देव मुरारी । उतरि गई तब गर्व खुमारी व्याकुल भयो डरयो जियभारीअनजानत कीन्ही अधिकारीवैठि रहे ते नहिं पनि आवै।ऐसो को जो मोहि बचावै॥वार वार यह कहि पछितावै।जाउ शरण वल मनहि धरावे । जाइ परौ चरणन शिरधारो। की मारों की मोहि उधारों।अमरन करो करौ असवारी।ऐरावतको लेहु हँकारी ॥सूरशरण सुरपति चले धाइलिये अमरगणसंग लगाइ ॥६६॥ करत विचार चल्यो सन्मुख बजालटपटात पग धरणि धरत गज । कोटि इंद्र जाके रोमनि रज ब्रिज-अवतार लियो माया तजाउतरि गगन पुहुमी पर आए। श्वेतवरन ऐरापति लाए॥वज वासी सब देखन पाए । चकृत भए मन सबनि भ्रमाए। कहत सुनी लोगन मुख पाता। ये हैं सुरपति सुरज्ञाता ॥ देखि सैन ब्रजलोग सकात। यह आयो कीन्हे कछु घात।सूरश्यामको जाइ सुनायोसुरपति सैनसाजि ब्रजआए ॥६॥ निकट जानि त्यागे बाहनको । सकुचंत चले कृष्ण सन्मुखको । कछु आनंद कछुक मनमें दुखाहर्ष विषाद तक्यो हरि सन्मुख ॥ परयों धाइ चरणन शिरना।कृपासिंधु राखहु शरणाइ॥किए अपराध बहुत विन जाने । प्रभु उठाइ लिए कछु मुसकाने॥श्रीमुख कह्योउठहु सुरराजा बदन उठाइ सकत नहिं लाजा।येदिन वृथा गए बिनकाजा । तुमको नहिं जान्यो ब्रजराजा सूरश्याम लीन्हे उरलाइाअशरन शरन निगम यह गाइ ॥ ६८॥ हँसि हँसि कहत कृष्ण सुखवानी । हम नाहिन रिस तुमपर आनी ॥ तुम कत