भ्रमते टूटि गये सबके उर। जलविनु भए सबै धन धूंधर। की मारौ कै शरण उबारौ। हममें कहा रह्यो अवगारौ। जहँ तहँ वादर रोवत बोले। श्रम अपने प्रभु आगे खोले॥ सात दिवस नहिं मिटी लगार। वरष्यो सलिल अखंडित धार॥ महाप्रलय जल नेक नउवरयो। ब्रजवासी नीके अब निदरयो॥ बिसोइगिरि वैसाइ ब्रजवासी। नेक बूंद नहिं धरणि प्रगासी॥ सूर सुनत सुरपती उदासी। देखहुये
आए जलरासी॥६१॥चकृत भयो ब्रज चाह सुनाई। पुनि पुनि बूझत मेघ बुलाई॥ कहां गयो जल प्रलयकालको। कहा कहौं सब तन वेहालको॥ कहा करैं अपनों बल कीन्हौं। व्याकुल रोइ रोइ तब दीन्हौं॥ दंड एक वरषै मनलाइ। पूरण होत गगनलौं आइ॥ पर्वत मेंहै कोउ अवतार। सुरपति मन यह करत विचार॥ सूर इंद्र सुरगण हँकराये। आज्ञा सुनत तुरत उठि आये॥६२॥ सुरपति आगे भए सब ठाढे। चिंता सबहिनके मन वाढे॥ कौन काज सुरराज बोलाए। सकुच सहित पूंछतसे आए॥ कहा कहौं कछु कहत न आवै। मघवनकी गति सुरन बतावै॥ ब्रजवासिन मोको विसरायो। भोजन लै सब गिरिहि चढायो॥ मोको मटि पर्वतहि थाप्यो। तब मैं थरथराय रिस कांप्यो॥ सूरदास यह सुरन सुनाई। याकारज तुमलिए बोलाई॥६३॥ सुरन कही सुरपतिके आगे। सन्मुख कहत सकुच हम लागे॥ सकुचत कत सो बात सुनावहु। नीके करि मोको समुझावहु॥ नीके भांति सुनौ सुरराई। ब्रजमें ब्रह्म प्रगट भए आई॥ तुम जानत जब धरणि पुकारी। पापहि पाप भई अति भारी॥ पौढे सेज शेष संग श्री प्यारी। ते ब्रज भीतरहैं वपुधारी॥ ब्रह्मकथा कहि आदि पसारी। तिनसों हम कीनी अधिकारी॥ सूरदास प्रभु गिरि कर धारी। यह सुनि इंद्र डरयो मनभारी॥६४॥ यह मोको तबही न सुनाई। मैं बहुतै कोन्ही अधमाई॥ पूरन ब्रह्म रहे ब्रज आई। काहूतौ मोहिं सुधि न दिवाई॥ सुरनि कही नहिं करी भलाई। आज़ कह्यो जब महत गवाई॥ यह सुनि अमर गए सरमाई। सुनहु राज हमजानि नपाई॥ अब सुनिए आपुन मनलाई। ब्रजहि चलो नहिं और उपाई॥ वैहैं कृपासिंधु करुणाकर। क्षमा करहिंगे श्रीसुंदरवर॥ और कछू मनमें जिनि आनहु। हम जो कहैं सत्य करि मानहु॥ सूर सुरन यह बात सुनाई। सुरपति शरण चले अकुलाई॥६५॥ जब जान्यो ब्रज देव मुरारी। उतरि गई तब गर्व खुमारी॥ व्याकुल भयो डरयो जियभारी। अनजानत कीन्ही अधिकारी॥ बैठि रहे ते नहिं बनि आवै। ऐसो को जो मोहिं बचावै॥ बार बार यह कहि पछितावै। जाउ शरण बल मनहि धरावै। जाइ परौ चरणन शिरधारो। की मारौं की मोहि उधारों॥ अमरन कह्यो करौ असवारी। ऐरावतको लेहु हँकारी॥ सूरशरण सुरपति चले धाइ। लिये अमरगणसंग लगाइ॥६६॥ करत विचार चल्यो सन्मुख ब्रज। लटपटात पग धरणि धरत गज॥ कोटि इंद्र जाके रोमनि रज। ब्रिज अवतार लियो माया तज॥ उतरि गगन पुहुमी पर आए। श्वेतवरन ऐरापति लाए॥ ब्रज वासी सब देखन पाए। चकृत भए मन सबनि भ्रमाए॥ कहत सुनी लोगन मुख बाता। येई हैं सुरपति सुरज्ञाता॥ देखि सैन ब्रजलोग सकात। यह आयो कीन्हे कछु घात॥ सूरश्यामको जाइ सुनाये। सुरपति सैनसाजि ब्रजआए॥६७॥ निकट जानि त्यागे बाहनको। सकुचत चले कृष्ण सन्मुखको। कछु आनंद कछुक मनमें दुख। हर्ष विषाद तक्यो हरि सन्मुख॥ परयों धाइ चरणन शिरनाइ। कृपासिंधु राखहु शरणाइ॥ किए अपराध बहुत बिन जाने। प्रभु उठाइ लिए कछु मुसकाने॥ श्रीमुख कह्यो उठहु सुरराजा। बदन उठाइ सकत नहिं लाजा॥ येदिन वृथा गए बिनकाजा। तुमको नहिं जान्यो ब्रजराजा॥ सूरश्याम लीन्हे उरलाइ। अशरन शरन निगम यह गाइ॥६८॥ हँसि हँसि कहत कृष्ण सुखबानी। हम नाहिन रिस तुमपर आनी॥ तुम कत
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दशमस्कन्ध-१०
