पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(२३०) सूरसागर। अति शंका जिय जानी । भली करी ब्रजराख्यो पानी ॥ यह सुनि इंद्र अतिहि सकुचान्यो । बज अवतार नहीं मैं जान्यो राखि राखि त्रिभुवनके नाथा । नहिं मोते कोउ अवर अनाथा ॥ फिरि फिरि चरण धरतलै माथा । क्षमाकरहु राखहु मोहिं साथा ॥ रवि आगे खद्योत प्रकाशा। मणि आगे ज्यों दीपक नाशा ॥ कोटि इंद्र रचि कोटि विनाशा। मोहिं गरीबको केतिक आशा ॥ दीन वचन सुनि भवके वासा । क्षमाभयो जल परे हुतासा ॥ अमरापति चरणन तर लोटत । रही नहीं मनमें कहुँ खोटत ॥ उभय भुजा कर लियो. उठाइ । सुरपतिं शीश अभयकरनाइ ॥ हँसिदीन्ही प्रभु लोक बड़ाई। श्रीमुख कह्यो करौ सुखजाई ॥ धन्य धन्य जनके सुखदाई । जय जय ध्वनि देवन मुखगाई ॥ शिव विरंचि चतुरानन नारद । गौरीसुत दोऊ सँग शारद ॥ रवि शशि वरुण अनल यमराजा ।आजु भए सब पूरन काजा॥अशरन शरन सदा तुव वानो।यह लीला प्रभु तुमही जानो।। मातासों सुत करै ढिठाई । माता फिरि ताको सुखदाई ॥ ज्यों धरनी हल खोदि विनाशै सन्मुख सतगुण फलहि प्रकाशकिरकुठार लै तरुहि गिरावावह काटै वह छायाछावै।जैिसे दुशन जीभ दलिजाइ । तब कासों सो करै रिसाइ ॥ धनि ब्रज धनि गोकुल वृंदावन । धनि यमुना धनि लता कुंज पनाधिन्य नंद धनि जननि यशोदा।बालकेलि हरिकेरस मोदा ॥ स्तुति सुनि मनहर्प बढ़ायोसाधु साधु कहि सुरनि सुनायो।तुमहि जाइजब मोहि जगायो।तुम्हरेहि कान देह धरिआयो। तुमैराख असुरन संहारौं। तनु धरि धरणाभार उतारों। आवत जात बहुत श्रम पायो । जाहु भवन करि कृपा पठायो ॥ कर शिर धरि धरि चले देवगन । पहुँचे. अमरलोक आनंद मन ॥ यह लीला सुर घरनि सुनाई । गाइ उठी सुरनारि बधाई ॥ अमरलोक आनंद भए सब । हर्प सहित आए सुरपति जव।सूरदास सुरपति अति हरष्यो। जैजैध्वनि सुमननि ब्रज वरष्यो॥६॥हरि करते गिरिराज उतारयो । सात दिवस जल प्रलय सँभारयो। ग्वाल कहत कैसे गिरिधारचो कैसे सुरपति गर्व निवारयो । वज्रायुध जल वपि सिराने । परयो चरण तव प्रकार जाने। हम सँग सदा रहतहैं ऐसे। यह करतूति करत तुम कैसे ॥ हम हिलि मिलि तुम गाइ चरावत । नंद यशोदा सुवन कहावत ॥ देखिरहीं सब घोप कुमारी । कोटि काम छविपर बलिहारी ॥ कर जोरत रवि गोद पसारै । गिरिवरपति प्रभु होहिं हमारे । ऐसो गिरि गोवर्द्धनभारी । कर लीन्हों कव धरयो उतारी॥ तनक तनक भुज तनक कन्हाई । यह कहि उठी यशोदा माई ॥ कैसे पर्वत लियो उच काई । भुज चापति चूमति वलिजाई | वारंवार निरखि पछिताई। हँसत देखि ठाढ़े वल भाई।।इनकी महिमा काहु न पाई । गिरिवर धरयो इहै बहुताई। एक एक रोम कोटि ब्रह्मडा। रवि शशि धरणीधर नव खंडा॥ यहि व्रज जन्म लियो कैवारा । जहाँ तहाँ जल थल अवतारा ॥ प्रगट होत भक्तहिके काजा । ब्रह्म कीट सम सबके राजा ॥ जहँ जहँ गाढ परै तहँ आवै। गरुड छांडि तव सन्मुख धावै ।व्रजही में नित करत विहार । सहज स्वभाव भक्त. हितकार ॥ यह लीला इनको अति भाव । देह धरत पुनि पुनि प्रगटावै ॥ नेक तजत नहि ब्रज नर नारी। इनके सुख गिरि धरत.मुरारी ॥गर्ववत सुरपति चढि आयो। वाम करज गिरि टेकि दिखायो. ऐसेहैं प्रभु गर्वप्रहारी। मुख चूमति यशुमति महतारी। यह लीला जो नितप्रति गावैं । आपुन सिखै औरनि.सिखरावें । सुनै सीख पढि मनमें राखै । प्रेम सहित मुखते पनि भाख । भक्ति मुक्तिकी केतिक आसा । सदा रहत हरि तिनके पासा ॥ चतुरानन जाको रस माने । शेपसहस मुख जाहि बखान ॥ आदि अंत कोऊ नाहि, पावै । जाको निगम नेति नित गावै ॥ सूरदास - -