पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३२४

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दशमस्कन्ध-१० (२३१.) प्रभु सबके स्वामी । शरन राखि मोहिं अंतर्यामी ॥७०॥९९९॥ सोरठ ॥ तेरे भुजन बहुत बल होइ कन्हैया। बार बार भुज देखि तनकसे कहति यशोदा मैयाश्याम कहत नहिं भुजा पिरानी ग्वालन कियो सहैयालकुटन टेकि सवन मिलिराख्यो अरु पावा नँदरैयामोसों क्यों रहतो गोवर्धन अति ह बडो वहभारी। सूरश्याम यह कहि परवोध्यो देखि चकृत महतारी।।१०००॥दवगंधार ।। सवै मिील पूजौहार की पहियॉजिो नहिं लेत उठाइ गोवर्धन को वांचत बज महियाँ। कोमल कर गिरि धरयो पोप पर शरद कमलकी छहियाँ।सूरदास प्रभु तुमरे दरशको आनंद होत ब्रज महियों ॥३॥ अध्याय ॥२८॥ अथ नंदको वरुण लेगये ॥ विलावल। उत्तम शुक्ल एकादशि आई। भक्ति मुक्तिदायक सुखदाई निराहार जलपान विवर्जित । पाप नरहत धर्मफल अर्चित ॥ नारायण हित ध्यान लगायो । और नहीं कहुँ मन विरमायो । वासर ध्यान करत सब वीत्यो। निशि जागरण करन मन चीत्यो ॥ पाटंबर दिवि मंदिर छायो । शालिग्राम तहां बैठायो । धूप दीप नैवेद्य चढ़ायो । पुहुप मंडली तापर छायो । प्रेम सहित करि भोग लगायो। आरतिकरि तब माथो नायो । सादर सहित करी नंद पूजा। तुम तजि देव और नहिं दूजा। तृतिय पहर जब रैनि गमाई । नंदमहरिसों कही युझाई।। दंड एक द्वादशी सकारें । पारनकी विधि करौ सवारै । यह कहि नंदगए यमुनातटाले धोती विधि कीनो कर्म पट ॥झारी भरि यमुना जल लीनो । बाहिर जाइ देह कृत कीनो ॥ लै माटी कर चरन पखारी । अति उत्तम सो करी मुखारी । अँचवन लै पैठे नंद पानी । जल वाजत दूतन तव जानी ॥ वरुन पास लाये ततकालहि । नंदहि वाँधि लै गये पतालहाजान्यो वरुण कृष्णके तातहि मनहीं मन हर्पित इहि वातहि ॥ भीतर लै राखे नंद नीके। अंतरपुर महलन रानीके ॥रानी सवन नंदको देख्यो । धन्य जन्म अपनो करि लेख्यो।जिनके सुत त्रैलोक गुसांई। सुर नर मुनि सबके हैं। साई ॥ वरुण कही मन हर्प वढ़ाए । बड़ीवात भई नंदहि ल्याए ॥ अंतर्यामी जानत पाता । अब आवत है हैं जगत्राता ।। जाको ब्रह्मा अंत न पायो । ताको मुनि जन ध्यान लगायो॥ जाको नेति निगम गावतहैं । ताको मुनिवर जनध्यावतहैं।।जाको ध्यान धरै शिव योगी। ताको सेवत सुरपति भोगी । सो प्रभु जल थल सब व्यापक। जोहै कंस दर्पको दापक ॥ गुण अतीत अविगत अवि नाशी। सो व्रजमें खेलत सुखरासी ॥ धनि मेरे भृत नंदहि ल्याए । करुणामय अव आवत धाए॥ महरि कही तब सब ग्वालिनको । बड़ी वार भई नंदमहरको ॥ गए ग्वाल तव नंद बोलावन । देख्यो जाइ यमुन जल पावन।।जहँ तहँ ग्वाल ढूंढि घरआए।धोती अरुझारी वैल्याए॥मन मन शोच करें अकुलाए।कहि यशुदासों नंदन पाए ॥ धोतीझारी तटमें पाई।सुनतमहरि मुख गयो सुखाई ॥ निशा अकेले आजु सिधाए।काहू धौ जलचर धरि खाए।यह कहि यशुमति रोइ पुकारयो। मोंवरजत कत रैनि सिधारयोत्रिजजन लोग सवे उठिधाए।यमुनाके तटनंद न पाए।ावन वन ढूंढत गाउँ मझारे। नंद नंद कहि लोग पुकारें । खेलत ते हरि हलधर आए । रोवत मात देखि दुखपाए ॥कत रोवत है यशुदा मैया।पूछत जननी सों दोउ भैया ॥ कहत श्याम जनि रोवहु माता । अवहीं आवतहैं नंद ताता ॥ मोसों कहिगए अवहीं आवन । रोवै मति मैं जात बोलावन ॥ सबके अंतर्यामी हैं हरि। लैगयो वांधि वरुन नंदहि धरि ॥ यह कारज मैं वाको दीनों। वाके दूतन नंदन चीनों । वरुन लो क तवहीं प्रभु आए । सुनत वरुन आतुर के धाए|आनंद कियो देखि हरिको मुख । कोटि जन्मके गए सबै दुस्ख ॥ धन्य भाग्य मेरे बडे आजु । चरण कमल दरशन सुखकाजु ॥ पाटवर पाँबड़े डसा ए। महलन बंदनवार धाए ॥ रत्न खचित सिंहासन धारयो। तिहिपर कृष्णहि ले बैठारयो । - D