पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३२५

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- - (२३३) सूरसागर। अपने कर प्रभु चरण पखारे । जे कमला उरते नहिं टारे॥ जे पद परसि सुरसरी आई। तिहूं लोक । है विदित बड़ाई ॥ तेपद वरुन हाथ लै धोए । जन्म जन्मके पातक खोए ॥ कृपासिंधु अब शरन तुम्हारी । इहि कारण अपराध विचारी ॥ आपु चले हरि नंदहि देखन । बैठे नंद राजवर भेपन ॥ नृपरानी सब आगे ठाडीं । मुख मुख ते सव स्तुति काहीं ॥ पाँइन परी कृष्णके रानी । धन्य जन्म सबहिन कहि मानी।।धन्य नंद पनि धन्य यशोदा । धनि धनि तुमैं खिलावति गोदााधनिब्रज धनि गोकुलकी नारी । पूरन ब्रह्म तहां वपु धारी ॥ शेष सहस मुख वरनि नजाई । सहज रूप को करै वड़ाई ॥ देखि नंद तब करत विचारा। यह कोउ आहि बड़ो अवतारा।। नंद मनहि अति हर्प बढ़ायो । कृपासिंधु मेरे गृह आयो॥ वरुनहि दीनी लोक बडाई । तुमही एहि पातालके राई ॥ कहा देत मोहिलोक बड़ाई । वृंदावन रज करौं सदाई। वरुन थाप नंदहि ले आए। महर गोप सब देखन धाए। नंदहि बूझत हैं सब वाता । हम अति दुखित भए सव गाताएकादशी काल्हिमैं की नों। निशि जागरन नेम यह लीनों । तीन पहर निशि जागि गवाई। तब लीनी मैं महरि बुलाई। एकदंड द्वादशी सुनाई । ताकारणमैं करी चँडाई ॥ एकदंड द्वादशि कैयो पल । रैनि अछतमैं गयो यमुनजला गयो यमुनकटिलौं भीतर भार । वरुनदूतले गयो मोहिं धरि॥तहँ ते जाइ कृष्ण मोहिं ल्यायो। हम कोउ वडे पुण्य कार पायो। इनकी महिमा कोउ न जाने । वरुन कोटि मुख कहैं वखाने । रानिन सहित परयो चरणनतर। वंदनवार बँधे महलनि घर ॥ मेरो करो सत्यकै मानों । इनको नर देही जिनि जानौ ॥ यशुमति सुनि चकृत इह वानी। कहत कहा यह अकथ कहानी ॥ व्रज नर नारि सुनत जे गाथा। इनते हम सब भए सनाथामिनी मोह कार सवै भुलाए। नंदहि वरुनलोकते ल्याए । नंद एकादशी वरणि सुनाई। कहत सुनत सबके मनभाई॥जो या पदको सुनै सुनावीएकादशिवतको फल पावै॥यह प्रताप नंदहि दिखराई । सूरदास प्रभु गोकु लराई॥१॥कान्ह।। नंदहि कहति यशोदा रानी । मोहिं वरजत निशिगए यमुनतट पैठे जाइअकेले पानी॥अवतौ कुशल परी पुण्यनित द्विजन करौ बहुदानापोलिलेहु वाजने वनावहु देहु मिठाई पान।। गावति मंगल नारि वधाई बाजत नंददुआर । सुनहु सूर यह कहति यशोदा नंद बचे इहिवार॥२॥ विलावल।कहत नंद यशुमति सुनि बात । अव अपने जिय सोचु करति कत जाके त्रिभुवनपति सों तात ॥ गर्ग सुनाइ कही जो वाणी सोई प्रगट होतिहै जात । इनते नहीं और कोउ समरथ एईहैं सवहीके तात ॥ मायारूप मोहिनी लगाइ डरि भूले सवै में गाथ । सूरश्याम खेलत ते आए माखनदै माँ हाथ ॥३॥ गौरी ॥ तवहिं यशोदा माखन ल्याइ । मैं मथिकै अवहीं धरि राख्यो तुम्हरे काज मेरे कुँवरकन्हाइ॥ मांगिलेहु एही विधि-मोसे मो आगे तुम साहू । बाहेर जिन कवहूं खैये सुत डीठि लगैगी काहू॥तनक तनक कछु खाहु लालमेरे ज्योंवढि आवै देहासूरश्याम अवहोहु सयाने वैरिनके मुखखेह ॥ ४॥ अथ दानलीला ॥ विलावल || भक्तनके सुखदायकश्याम । स्त्री पुरुष नहीं कछु नाम ॥ संकटमें जिनि जहां पुकारे। तहां प्रगटि तिनको उद्धारे ॥ सुख भीतर जिनि सुमिरन कीन्हो । तिनको दरश तहां हार दीन्हों। दुख सुख में जो हरिको ध्यावै । तिनको नेक नहरि विसरावै ॥ चितदै भजै कौनह भाउ । ताको तसो त्रिभुवन राउ ॥कामातुर गोपी हरि ध्यायो । मन वच कमहि सों मन लायो। पटऋतु तपकीनों तनुगारी । होहिं हमारे पति | गिरिधारी ॥ अंतर्यामी जानत सवकीप्रति पुरातन शाली तबकी ॥ वसनहरे गोपिन सुखदीनो। ॥ नाना विधिकौतुकरस कीनो ॥ युवतिनके इह ध्यान सदाई । नेक न अंतर होइ कन्हाई । घाट - % % - -