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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३२५

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सूरसागर।


अपने कर प्रभु चरण पखारे। जे कमला उरते नहिं टारे॥ जे पद परसि सुरसरी आई। तिहूं लोक है विदित बड़ाई॥ तेपद वरुन हाथ लै धोए। जन्म जन्मके पातक खोए॥ कृपासिंधु अब शरन तुम्हारी। इहि कारण अपराध विचारी॥ आपु चले हरि नंदहि देखन। बैठे नंद राजवर भेपन॥ नृपरानी सब आगे ठाढीं। मुख मुख ते सब स्तुति काढीं॥ पाँइन परी कृष्णके रानी। धन्य जन्म सबहिन कहि मानी॥ धन्य नंद पनि धन्य यशोदा। धनि धनि तुमैं खिलावति गोदा॥ धनिब्रज धनि गोकुलकी नारी। पूरन ब्रह्म तहां वपु धारी॥ शेष सहस मुख वरनि नजाई। सहज रूप को करै बड़ाई॥ देखि नंद तब करत विचारा। यह कोउ आहि बड़ो अवतारा॥ नंद मनहि अति हर्ष बढ़ायो। कृपासिंधु मेरे गृह आयो॥ वरुनहि दीनी लोक बडाई। तुमहौ एहि पातालके राई॥ कहा देत मोहिंलोक बड़ाई। वृंदावन रज करौं सदाई॥ वरुन थाप नंदहि लै आए। महर गोप सब देखन धाए। नंदहि बूझत हैं सब वाता। हम अति दुखित भए सब गाता॥ एकादशी काल्हिमैं कीनों। निशि जागरन नेम यह लीनों॥ तीन पहर निशि जागि गँवाई। तब लीनी मैं महरि बुलाई॥ एकदंड द्वादशी सुनाई। ताकारणमैं करी चँडाई॥ एकदंड द्वादशि कैयो पल। रैनि अछतमैं गयो यमुनजल॥ गयो यमुनकटिलौं भीतर भरि। वरुनदूतलै गयो मोहिं धरि॥ तहँ ते जाइ कृष्ण मोहिं ल्यायो। हम कोउ बडे पुण्य कार पायो॥ इनकी महिमा कोउ न जानै। वरुन कोटि मुख कहैं वखानै॥ रानिन सहित परयो चरणनतर। वंदनवार बँधे महलनि घर॥ मेरो कह्यो सत्यकै मानों। इनको नर देही जिनि जानौ॥ यशुमति सुनि चकृत इह वानी। कहत कहा यह अकथ कहानी॥ ब्रज नर नारि सुनत जे गाथा। इनते हम सब भए सनाथा॥ मिनी मोह कार सबै भुलाए। नंदहि वरुनलोकते ल्याए॥ नंद एकादशी वरणि सुनाई। कहत सुनत सबके मनभाई॥ जोया पदको सुनै सुनावै। एकादशिव्रतको फल पावै॥ यह प्रताप नंदहि दिखराई। सूरदास प्रभु गोकुलराई॥१॥ कान्हरो ॥ नंदहि कहति यशोदा रानी। मोहिं वरजत निशिगए यमुनतट पैठे जाइ अकेले पानी॥ अबतौ कुशल परी पुण्यनिते द्विजन करौ बहुदान। बोलिलेहु बाजने बजावहु देहु मिठाई पान॥ गावति मंगल नारि बधाई बाजत नंददुआर। सुनहु सूर यह कहति यशोदा नंद बचे इहिवार॥२॥ विलावल ॥ कहत नंद यशुमति सुनि बात। अब अपने जिय सोचु करति कत जाके त्रिभुवनपति सों तात॥ गर्ग सुनाइ कही जो वाणी सोई प्रगट होतिहै जात। इनते नहीं और कोउ समरथ एईहैं सबहीके तात॥ मायारूप मोहिनी लगाइ डरि भूले सबै जें गाथ। सूरश्याम खेलत ते आए माखनदै माँ हाथ॥३॥ गौरी ॥ तबहिं यशोदा माखन ल्याइ। मैं मथिकै अबहीं धरि राख्यो तुम्हरे काज मेरे कुँवरकन्हाइ॥ मांगिलेहु एही विधि मोसे मो आगे तुम खाहू। बाहेर जिन कबहूं खैये सुत डीठि लगैगी काहू॥ तनक तनक कछु खाहु लालमेरे ज्योंबढि आवै देह। सूरश्याम अबहोहु सयाने वैरिनके मुखखेह॥४॥ अथ दानलीला ॥ विलावल ॥ भक्तनके सुखदायकश्याम। स्त्री पुरुष नहीं कछु नाम॥ संकटमें जिनि जहां पुकारे। तहां प्रगटि तिनको उद्धारे॥ सुख भीतर जिनि सुमिरन कीन्हो। तिनको दरश तहां हरि दीन्हों॥ दुख सुख में जो हरिकौ ध्यावै। तिनको नेक नहरि बिसरावै॥ चितदै भजै कौनहू भाउ। ताको तैसो त्रिभुवन राउ॥ कामातुर गोपी हरि ध्यायो। मन वच कर्महि सों मन लायो। षटऋतु तपकीनों तनुगारी। होहिं हमारे पति गिरिधारी॥ अंतर्यामी जानत सबकी। प्रीति पुरातन शाली तबकी॥ वसनहरे गोपिन सुखदीनो। नाना विधिकौतुकरस कीनो॥ युवतिनके इह ध्यान सदाई। नेक न अंतर होइ कन्हाई। घाट