पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३२६

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दशमस्कन्ध १० (२३३) वाट यमुनातट रोके ।मारग चलत जहाँ तहँ टोकै ॥ काहूकी गागरि धरि फोरै । काहसों हॉस वदन सकोरै ॥ काहूको अंकम भरि भेटे । कामव्यथा तरुणिनके मेंटे। ब्रह्माकीट आदिके स्वामी प्रभु हैं निलोभी निहकामी।भाववश्य सँगही सँगडोले । खेलै हँसे तिनहिसों बोले ॥ ब्रजयुक्ती नहिं नेक विसाएँ । भवनकान चित हरिसोंधागोरसलै निकसी व्रजवालातिहाँतिनि देखे मदन गोपाला॥ अंग अँग सजिशृंगारवर कामिनि । चली मनहु यूथनि जुरि दामिनि ॥ कटिकिकिनि नूपुरविछि या धुनि । मनहु मदनके गजघंटा मुनि ॥ जाति माट मटुकी शिरधारकै । मुख मुख गान करति गुण हरिके ॥ चंद्रवदनि तनु अति सुकुमारी । अपने मन सव कृष्ण पियारी ॥ देखि सवनि रीझे बनवारी । तब मनमें इक बुद्धि विचारी ॥ अब दधि दान रचौं इक लीला । युवतिन संग करौं रस लीला ॥ सूरश्याम सँग सखन बोलायो। यह लीला कहि सुख उपजायो । १००५॥ नयतश्री ॥ सुनत हँसी सुख होहि दान दहीको लाग्यो । निशिदिन मथुरादधि वेचैं श्याम दान अव मांग्यो। प्रात होत उठि कान्ह टेरि सव सखनि बोलाए । तेइ तेइ लीने साथ मिले जे प्रकृति बनाए ॥ डगरि गए अनजानही गयो जाइ वन घाट । पेडपेड तरुके लगे ठाटि ठगनको ठगट ॥ १ ॥ इहां ग्वालि पनि बनि जुरीं सब सखी सहेली। शिरनि लिए दधि दूध सवै योवन अलवेली ॥ हँसत परस्पर आपमें चली जाहिं जिय भोर । जवहि आनि पातहि परी तव छेकिलिए चहुंओर .॥ ॥२॥ देखि अचानक भीर भई सब चकृत किशोरी। ज्यों मृगसावक यूथ मध्य वागरि चहुँओरी संकितद्वै ठाढ़ी भई हाथ पाँव नहिंडोल । मनहुँ चित्रकीसी लिखीं मुखहि न आवै बोल ॥३॥ तब उठि बोले ग्वाल डरहु जिनि कान्ह दुहाई । ठग तस्कर कोउ नाहिं दान यदुपति सुखदाई ॥ आवत निशि दिनही रही श्यामराज भए नाहीं।जोकछु लागै दानको तुम घाटि देहु तेहि माहीं॥४॥ तब हँसि बोली ग्वालि नाम जव कान्ह सुनायो।चोरी भरयो नपेट आनि अब दान लगायो।तब उ लटी पलटी फवी जब शिशुरहे कन्हाई। अब ओहि कछु धोखे करौं तौछिनकमाहँ पतिजाईदातव उठि बोले कान्ह रही तुम पोच सदाई । महरि महर मुखपाइ संकतजि करहु ढिठाई ।। अब वह धोखो मेटिकै छोडिदेहु अभिमान । करि लेखो अब दानको दियहि पाइहौ जान ॥ ६॥ तव हँसि वोली ग्वालि डरनि तुम तजी ढिठाई । बहुतै नंदनि काज भयो तुअ तप अधिकाई ॥ कालिहि घर घर डोलते खाते दही चुराइ । राति कछू सपनों भयो प्रातभई ठकुराइ ॥७॥ भली कही नहिं ग्वालि वातको भेद न पायो। पिता रचित धन धाम पुत्रके काजहि आयो ॥तुमसे प्रजा वसाइकै राखेहैं इह पाइ । ते तुम हम सरखस भई अब मिलहु छाँडि चतुराइ ॥ ८॥तव झुकि वोली ग्वालि बात किन कहाँ सम्हारै । ऐसोको वहिगयो प्रजाहै वसे तुम्हारै ॥ हमहूं तुम नृपकं सके वसैं वास इकठाँउ। देखौधौं घरजाइकै हम तर्जे तुम्हारो गाउँ ॥९॥ गाउँ हमारो छडि जाइ वसिहौ केहि केरे। तीनलोकमें कौन जीव नाहिन वशमेरे ॥ कंसहि कोगनती गर्ने जाके हमाह कहाहु ॥ दियेदान पै वांचिहो नातरु नहीं निवाहु ॥ १०॥ छोटे मुँह वडीवात कहौ किनि आपु सँभारे । तीनिलोक अरु कंस कवहिं वशभए तुम्हारे ॥ यह वाणी तिनसों कहो जो कोउ होइ अजान । ऐसे होहु जुरावरे हम जानति परवान ॥ ११॥ लेखो जैहै भूलि कहूंकी बात चला वत । झूठी मिलवत आनि सुनत हमको नहिं भावत ।। हमसों लीजै दानके दाम सबै परखाइ । थैली मांगि पठाइए पीतांवर फटिजाइ ॥ १२॥ काहेको सतरात वात मैं सांची भाषत । झूठी सब तुम ग्वारि वात मेरी गहि नाखत ॥ कह्यो मानि लेखो करौ देहु हमारो दान । सौंह बबा मोहि