पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३२८

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दशमस्कन्ध-१० . (२३५) - - फनिंगनिको । सूरदास प्रभु हँसि वश कीन्हों नायक कोटि अनंगनिको ॥१०. ॥ काफी ॥ कान्ह भलेहो भलेहो । अंगदान हमसों तुम मांगत उलटी रीति चलेहो ॥ कौन दोप कीन्हों माखनछीनों काहेको तुम औरहि भाव मिलेहो। दानलेहु कछु और कहतहो कौन प्रकृतिही लेहो ॥ हारतोरयो चीरफारयो बोलत बोल हठीलेहो । ऐसो हाल हमारो कीन्हों जातहुती दही लेहो। हमहैं तुम्हारे गाउँकी कछु याते ए गहि लेहो । सूरदास प्रभु और भए अब तुम नहिं होहु पहिलेहो ॥११॥ पूरवी ॥ तूमोसों दान माँगि किनु लेहो नंदकेलाला । ऐसी बातनि झगरों ठानोंहो मूरख तेरो कौन हवाला ।। नंदमहरकी कानि करतहैं छाडिदेहु ऐसो ख्याला । सूरदास प्रभु मन हरिलीन्हो नेक हँसतही ग्वारिनिं भई विहाला ॥ १२ ॥ गूलरी ॥ सूधे दान काहे न लेत । और अटपटी छांडि नंदसुत रहहु कँपावत वेत॥ वृंदावनकी वीथिनि तकि तकि रहत गुमान समेत । इनि वातनि पति पावत मोहन जानत होहु अचेत ॥ अवलनि रविकर वकि पकरतहो मारग चलन नदेत सोई तुम कछु कहि न जनावत कहा तुम्हारे हेत॥आजु नजान देहुरी ग्वालिनि बहुत दिननिको नेत । सूरदास प्रभु कुंजभवनचलि जोर उरनि नखदेत ॥१३॥। कान्हरो ॥ जोवनदान लेउँगो तुमसों । जाके बल तुम बदति नकाहुहि कहा दुरावति हमसों॥ ऐसो धन तुम लिए फिरतिहौ दानदेत सतराति । अतिहि गर्वते कह्यो नमोसों नितप्रति आपति जाति।। कंचनकलस महारसभारे हमहूं तनक चखावहु । सुर सुनहु करि भार मरति है हमहि नमोल दिवावहु ॥ १४ ॥कहा कहत तू नंद ठौना। सखी सुनहरी वातें जैसी करत अतिहि अचभौना॥ वदन सकोरत भौंह मरोरत नैननिमें कछुटोना ॥ जोवनदान कहा धौं मांगत भई कहूं नहिं होना। हम कहें वात सुनहु मनमोहन कालि रहे तुम छौना । सूरश्याम गारी कहा दीजै इह बुद्धिहै घर खोना ॥ १५ ॥ पूरवी ॥ ऐसे जिनि बोलहु नंदलाला । छाँडिदेहु अचरा मेरो नीके जानत औरसी वाला ॥ वारवार मैं तुमहि कहतिहौं परिहै बहार जंजाला। जोवनरूप देखि ललचाने अवहींते एं ख्याला ॥ तरुणाई तनु आवनंदीजै कित जिय होत विहाला । सूरश्याम उरते कर टारह टूटे मोतिनमाला ॥ १६॥ सुघराई ॥ कहागति प्रकृति परहो कान्ह तुम्हारी धरत कहा कत राखतघेरे । जे पतियां तुम हँसि हाँस भापत इहैं चलै चहुँ फेरे । अब सुनिहै इह बात आजुकी वनमें कान्ह युवति सब नेरे। सकुचतिहै घर घर घेराको नेकलाज नहिं तेरे ॥ अतिहि अवर भई घर छांडे चितै हँसत मुखतन हरिहेरे । सूरदास प्रभु झुकत कहाही चेरीहै कहुकेरे ॥ १७॥ टोडी ॥ कहा कहतु तुमसों में ग्वारिनि । दानदेहु संव जाहु चली घर अतिकत होतगँवारिनि कवहूं वात नहीं घरखोवति कबहुँ उठतिदै गारीिनि। लीन्हें फिरति रूप त्रिभुवनको ऐनोखी वनिजा रनि ॥ पेलाकरति देति नहिं नीके तुमहो बड़ी वंजारनि । सूरदास ऐसो गथ जाके ताके बुद्धि पसारनि ॥ १८॥ पुरिआकान्हरो । कान अब नारि गयौहै जानि। मांगत दान दहीको अवलौंलेकछु अवरै ठानि ॥ औरनिसों तुम कहा लियो है सो सव हमहि देखावह आनी । मांगतहैं दधिसो हम देह कहत कहा यह वानी ॥ छांडि देहु अचरा फटि जैहै तुमको हम नीके पहिचानी । सूरश्याम तुम रति पति नागर नागरि अतिहि सयानी ॥ १९ ॥ रागकान्हरो ॥ लेहों दान. अंग अंगनको । गोरेभाल लाल सेंदुरछवि मुक्ता पर शिरसुभग मंगको ॥ नकसरि सुटिला तरिवनको गरहमेल कुचः युग उतंगको । कंठसिरी दुलरी तिलरी उर माणिक मोती हार रंग को ॥ बहु नग लगे जरावकी अंगिया भुजा बहुटनी वलय संग को। कटि किंकिणिको दान