पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३३३

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(३४०) सूरसागर। तुम दान मारे जाति ॥ कालिंद्री तट श्याम बैठे हमहिं दियो पठाइ । यह कह्यो हरि दान, माँगहु जाति नितहि चुराइ ॥ तुम सुता वृषभानुकी वै बड़े नंदकुमार । सूर प्रभुको नाहि जानति दान हाट बजार ॥ १९ ॥ कान्हरो ॥ यह सुनि हँसी सकल ब्रजनारी । आनि सुनहरी वात नई इक सिखयह महतारी ॥ दधि माखन खैयेको चाहत मांगि लेहु हम पास । सूधे वात कहौ सुखपा बांधन कहत अकास ॥ अव समुझी हम बात तुम्हारी पढ़े एक चटशार । सुनहु सूर यह बात कहौ जिनि जानति नंदकुमार ॥५०॥धनाश्री ॥ बात कहति ग्वालिनि इतराति । हम जानी अब वाति तुम्हारी सुधे नहिं वतराति ॥ इहै बडो दुख गाँव वासको चीन्हे कोड नसकात हरिमांगतहै दान आपनों कहत मांगि किनखात ॥ हाट वाट सब हमहि उगाहत अपनो दान जगात । सूरदासको लेखो दीजै कोउ नकहै पुनि वात ॥५१ ॥ कान्हरो ॥ कौन कान्हको तुम कहा मांगत । नीके करि सबको हम जानति बातें कहत अनागत ॥ छाडिदेहु हमको जान रोकहु वृथा बढावति रारि । जैहै बात दूरिलौं ऐसी.परिहै वहुरि खंभारि ॥ आजहि दान पहरि ह्याँ आए कहां दिखावहु छाप । सूरश्याम वैसेहि चलौ ज्यों चलत तुम्हारो बाप ॥५२ ॥ कान्हरो ॥ कान्ह कहत दधिदान नदैहौ । लेहौं छीनि दूध दघि माखन देखतही तुमरैहो ॥ सब दिनको भरि लेहुँ आजुही तब छोडौं मैं तुमको । उपटतिहै तुम मात पितालौं नहिं जानो तुम हमको ॥ हम जानतिहैं तुमको मोहन लैलै गोद खिलाए । सुरश्याम अब भए जगाती वैदिन सब विसराए॥५३॥ अजहूं मांगिलेहु दधि देहाँ । दूध दही माखन जो चाहो सहज खाहु सुख पैहौं । तुम दानी है आए हमपर यह हमको नहिं भावत । करौतहीं ले निवहै जोई जाते सव- सुख पावत ॥ हमको जान देहु दधि वेचन पुनि कोउ नाहिन लैहै। गोरसलेत प्रातही सवको उ सूर धरयो पुनि रैहै ॥५४॥ कान्हरो ॥ दान दिये विन जान नपैहौ।जव देहौं ढराइ सब गोरस तबहिं दान तुम देहौ ॥ तुमसों बहुत लेनहै मोको यह लै ताहि सुनावहु । चोरी आवति वेचि जातिसब पुनि गोरस बहुरो कह पावहु ॥ मांगत छाप कहा दिखराऊ कोनहिं हमको जानत । सूरश्याम तब कह्यो ग्वारिसों तुम मोको क्यों मानत ॥६५॥ रामकली ॥ कहा हमहि रिसकरत कन्हाई। इहरिस जाइ करौ मथुरापर जहां है कंस बसाई। हम अब कहा जाइ गुहराव वसत तुम्हारे गाउँ। ऐसे हाल करत लोगनके कौन रहै यहिठाउँ ॥ अपने घरके तुम राजाही सबको राजा कंस । सूरश्याम हम देखत उगळे अब सीखे एगंस ॥ ५५ ॥ गंधारी ॥ कापर दान पहिरि तुम आए । चलहु ज मिलि उनहीमें जैए जिन तुम रोकन पंथ पठाए । सखासंग लीन्हे जु सैंति के फिरत रैनि दिन बनमें धाए । नाहिन राज कंसको जान्यो वाट रोकते फिरत पराए ॥ लीन्हे छीनि बसन सबहीके सबही लै कुंजनि अरुझाए । सूरदास प्रभुके गुण ऐसे दधिक माट भूमिटरकाए ॥ २७ ॥ सूहा ॥ जाइ सबै कंसहि गुहरावहु । दधि माखन घृत लेत ॐडाए आजहि मोहि हजूर वोलावह ॥ ऐसेको कह माह वतावति पल भीतर गहिमारौं। मथुरापतिहि सुनोगी तुमही जब वाके धरि केश पछारौं ॥ वार वार दिन हमहि वतावत अपनो दिन न विचारो। सूरइंद्र ब्रज तबहिं वहावत तप गिरि राखिउबारो॥ ५८ ।। गूजरी ॥ गिरि वर धरयो आपने घरको । ताहाके बल तुम दान लेतही रोंकि रहतही हमको ॥ अपनेही मुख बडे कहावत हमहू जानति तुमको । इह जानाति पुनि गाइ चरावत नितप्रति जातही वनको॥ | मोर मुकुट सुरली पीतांवर देखो आभूषन सब वनको । सूरदास कांधे कामरिहू जानात हाथ ।