पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३३४

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- दशमस्कन्ध-१० (२४१) लकुट कंचनको ॥ ५९॥ विलावल ॥ यह कमरी कमरी करि जानति । जाके जितनी बुद्धि हृदय में सो तितनी अनुमानतिाया कमरीके येक रोमपर वारौं चीर नील पाटंबरासो कमरी तुम निंदति गोपी जो तीनिलोक आडंबर ॥ कमरीके वल असुर संहारे कमरिहते सब भोग । जाति पांति कमरी सब मेरी सूर सबहि यह योग ॥६०॥ विलावल ॥ धनि धनि यह कामरिहो मोहन श्यामलालकी। इहै ओढि जात वनहि इहै सेज करतहो तुम मेहबूंद निखारन इहै छांह घामकी।इहै उठि गुन करतहै पुनि शिशिर शीत इहै हरति गहनेले धरति ओट कोट वामकी । इहै जाति इहे पाति । परिपाटी यह सिखवात सूरदास प्रभुके यह सब विशरामकी ॥ ६ ॥ अब तुप सांची बात कही। एतेपर युवतिनको रोंकत मांगत दान दही ॥ जोहम तुमहि कह्यो चाहतही सो श्रीमुख प्रगटायो। नीके जातिं उघारि आफ्नी युवतिन भले हँसायो। तुम कमरीके ओढनहारे पीतांबर नहिं छाजत। सूरदास कारे तनु ऊपर कारी कमरी भ्राजत ॥ ६२ ॥ मोसों बात सुनहु ब्रजनारि। एक उप खान चलत त्रिमुवनमें तुमसों आज उघारि ॥ कबहूँ वालक मुँह नदीजिये मुँहनदीजिये नारि । जोइ मनकर सोई करिडारै मूंड चढतहै भारि ॥ बात कहत अठिलात जाति सब हँसत देति कर तारि । सूर कहा ए हमको जानै छाछिहि वेचन हारि॥ १०६३ ॥ यह जानति तुम नंदमहरसुत। धेनु दुहत तुमको हम देखति जवहि जात खरिकहि उत ॥ चोरी करत रहौ पुनि जानात घर घर ढूंढत भांडे । मारगरोकि भये अव दानी वैटॅग कवते छाँडे । और सुनहु यशुमति जब बांधे तब हम कियो सहाइ । सूरदास प्रभु यह जानति हम तुम ब्रजरहत कन्हाइ ॥ ६॥ आसावरी ॥ को माता को पिता हमारे । कव जनमत हमकोतुम देख्यो हँसी लगत सुनि वात तुम्हारे ॥ कंब माख- न चोरी करि खायो कव बांधे महतारी । दुहत कौनकी गैया चारत बात कही यह भारी तुम जानति मोहिं नंद ढुटौना नंद कहां ते आए । मैं पूरन अविगति. अविनाशी माया सबनि भुलाए ॥ यह सुनि ग्वालि सवै मुसकानी ऐसेउ गुणही जानत । सूरझ्याम जो निदरयो सवही मात पिता नहिं मानत ॥ ६५ ॥ सोरठ ॥ तुमको नंदमहर भरुहाए । माता गर्भ नहीं तुम उपजे तो कही कहांते आए। घर-घर-माखन नहीं चुरायो उखल नहीं बँधाए। हाहाकरि यशुमतिके आगे तुमको हमहि छुराये ॥ ग्वालनि संग संग वृंदावन तुम नहिं गाइ चराये । सूरश्याम दशमास गर्भधरि जननि नहीं तुम जाये ॥ ६६ ॥ गोडी ॥ भक्तहेतु अवतार धरयो। कर्म धर्मके वश मैं नाहीं योग जप मैंने नकरयो॥ दीनगुहारि सुनौ श्रवणनि भरि गर्व वचन सुनि हृदय जरौं । भाव अधीन रहौं सवहींके और नकाहू नेकडरौं । ब्रह्मकोटि आदिलौं व्यापक सवको सुखदै दुखहिहरौं । सूरश्याम तब कही प्रगटही जहां भाव तहँते नट”। ॥६७॥ धनाश्री ॥ कान्ह कहांकी बात चलावत । स्वर्ग पताल एक करि राखौ युवतिनको कहि कहा बतावत ॥ जो लायक तो अपने घरको वनभीतर डरपावत । कहा दान गोरसको हैहै सबै नलेहु देखावत ॥ रीती जान देहु घर हमको यतनेही सुखपावत्त । सूरश्याम माखन दधि लीजे युवतिन कत अरुझावत ॥ ६८॥ माखन दधि कह करौं तुम्हारो। मैं मनमें अनुमान करौं नित मोसों कैहै वनिज पसारो ॥ काहेको तुम मोहिं कहतही जोवन धन ताको कार गारो । अब कैसे घर जान पाइहौ मोको यह समुझाइ सिधारौ ॥ सूर बनिज तुम करत सदाई लेखो करिहौं भाज तिहारो ॥ सूहवी ॥ ऐसी कहौ बनिजको अटकी । मुख मुख हेरि तरुनि मुसकानी. नैन सेन दैदै सव मटकी । हमहू को दान दधिको कहा माँगत कुँवर कन्हाई । अबलों कहा मौन,