पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३३५

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(२४२) सूरसागर। धरि बैठे तवहीं नहीं सुनाई। हँसि वृपभानुसुता तब वोली कहा वनिज हम पास। सूरश्याम लेखो करि लीजै जाहिं सबै ब्रजवास ॥६९॥ विलावल ॥ कही तुमहि हमको कहा बूझति । लैलै नाम सुना वहु तुमहीं मोसों काहे अरूझति ॥ तुम जानति मैंहूं कछु जानत जो जो माल तुम्हारे । डारि देह जापर जो लागै मारग चलौ हमारे ॥ इतनेहीको सोर लगायो अव समुझी यह वात । सुरश्यामके वचन सुनहुरी कछु समुझतिही घात ॥ ७० ॥ ये नहिं धौं बूझौ यह लेखो। कहा कहेंगे श्रवणनि सुनिये चरित नेक तुम देखो ॥ मन मन हरप भई सव युवती मुख ये वात चलावति । ज्यों ज्यों श्याम कहत मृदुवानी त्यों त्यों आति सुखपावति ।। कोउ काहूको भेद न जानत लोग सकुच उर मानत । सूरदास प्रभु अंतर्यामी अंतर्गतिकी जानत ॥७१ ॥ कहो कान्ह कह गथलै हमसों । जाकारण युवती सव अटकी सो बूझतहैं तुमसों । लौंग नारियर दाख सुपारी कहा लादे हम आवै । हींग मिरच पीपरि अजवाइनि ये सब वनिज कहावें । कूट काइफर सोंठि चिरता कटजीरा कहुँ देखत ॥ आलमजीठ लाख सेंदुर कहुँ ऐसेहि बुधि अवरेखत । वाइविरंग वहेरा हरैं कहुँ बैलगोनि व्यापारी । सूरश्याम लरिकाई भूली जोवन भए मुरारी ॥ ७२ ॥ ॥सूहाकवन वनिज कहि मोहिं सुनावति । तुम्हरो गथ लादो गयंदपर हींग मिरच पीपरि कहा गाव ति॥ अपनो वनिज दुरावतही कत नाउँ लियो यतनोही । कहा दुरावतिहौ मो आगे सब जानत तुव गोही॥ बहुत मोलको वावा तुह्मारो कैसे दुरत दुराए । सुनहु सूर कछु मोल लेहिंगे कछु इक दान भराए ॥ ७३ ।। टोडी ॥ दधिको दान मेटि यह ठान्यो । सुनहु श्याम अति चतुर भएही आजु तुमहि हम जान्यो॥जो कछु दूध दह्यौ हम देती लैखाते तुम ग्वाल । सोऊ खोइ हाथते बैठे हँस ति कहात ब्रजवाल ॥ यह सुनि श्याम सवनि करते दधि मटकी लई ठंडाई । आपुन खाइ ससन को दीन्हों अति मन हरप बढाई ॥ कछुखायो कछु भुंइ ढरकायो चितै रही वजनारि ॥ सुरश्याम वन भीतर युवती नएढंग करत सुरारि ॥७॥रामकली|| प्यारी पीतांवर उर झटक्यो । हरि तोरी मो तिनकी माला कछुगर कछुकर लटक्यो।ढीठो करन श्याम तुम लागे जाइ गही कटि फेट । आपु श्याम रिस करि अंकमभरि भई प्रेमकी भेट ॥ युवतिन घेरि लियोहरिको तब भारि भार परि अँकवारि। सखा परस्पर देखत ठाढे हँसत देत किलकारि ॥ हाँक दियो कार नंद दोहाई आइ गए सब ग्वाल ॥ सूरश्यामको जानत नाहीं दीठभई हैं वाल ॥ ७५ ॥ रागभैरव ॥ हम भई ढीठ भले तुम्हग्वाल ॥ दीन्हों ज्वाव दईको चैहो देखौरी यह कहा जंजाल ॥ बनभीतर युवतिनकोरोंक त हम खोटी तुम्हरे ये हाल। वात कहनको योआवतहै वडे सुधर्मा धर्महिपाल ॥ साखि सखाकी ऐसिय भरिही तव आवहु ते जीति भुआल । आयेहैं चढि रिसकार हमपर सूर हमाहि जानन वेहा ल॥ ७६ ॥ विलावल ॥ जानी वात तुम्हारी सबकी । लरिकाईके ख्याल तजौ अब गई वात वह त बकी ॥ मारग रोकत रहे यमुनको तेहि धोखेहौ आये । पावहुगे पुनि कियो आपनो युवतिन हा थ लगाये ॥ जो सुनिहै यह वात मात पितु तव हमसे कहा कैहैं । सूरश्याम मोतिन लरतोरी कौन ज्वाब हम देहैं ॥ ७७ ॥ विलावलनट ॥ आएन भई सवै अब भोरी । तुम हरिको पीतांवर झटक्यो उन तुम्हरी मोतिन लर तोरी ॥ मांगत दान ज्वाब नहिं देती ऐसी तुम जोवनकी जोरी । डरनहिं मानति नंदनंदनको करति आनि झकझोराझोरी ॥ यक तुम नारि गँवारि भलीहौ त्रिभुवन में इनकी सरि कोरी । सूर सुनहु लेहैं उँडाइ सव अबहिं फिरौंगी दौरी दौरी ॥७८॥ नट ॥ कहा वड़ाई इनकी सरि मैं । नंद यशोदाके प्रतिपाले ।