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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३३५

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सूरसागर।


धरि बैठे तबहीं नहीं सुनाई॥ हँसि वृपभानुसुता तब बोली कहा वनिज हम पास। सूरश्याम लेखो करि लीजै जाहिं सबै ब्रजवास॥६९॥ विलावल ॥ कहौ तुमहि हमको कहा बूझति। लैलै नाम सुना वहु तुमहीं मोसों काहे अरूझति॥ तुम जानति मैंहूं कछु जानत जो जो माल तुम्हारे। डारि देहु जापर जो लागै मारग चलौ हमारे॥ इतनेहीको सोर लगायो अब समुझी यह बात। सुरश्यामके वचन सुनहुरी कछु समुझतिहौ घात॥७०॥ ये नहिं धौं बूझौ यह लेखो। कहा कहैंगे श्रवणनि सुनिये चरित नेक तुम देखो॥ मन मन हरष भई सब युवती मुख ये बात चलावति। ज्यों ज्यों श्याम कहत मृदुवानी त्यों त्यों आति सुखपावति॥ कोउ काहूको भेद न जानत लोग सकुच उर मानत। सूरदास प्रभु अंतर्यामी अंतर्गतिकी जानत॥७१॥ कहो कान्ह कह गथलै हमसों। जाकारण युवती सब अटकी सो बूझतहैं तुमसों॥ लोंग नारियर दाख सुपारी कहा लादे हम आवैं। हींग मिरच पीपरि अजवाइनि ये सब वनिज कहावैं। कूट काइफर सोंठि चिरैता कटजीरा कहुँ देखत॥ आलमजीठ लाख सेंदुर कहुँ ऐसेहि बुधि अवरेखत॥ वाइविरंग वहेरा हर्रै कहुँ बैलगोनि व्यापारी। सूरश्याम लरिकांई भूली जोबन भए मुरारी॥७२॥॥ सूहा ॥ कवन वनिज कहि मोहिं सुनावति। तुम्हरो गथ लादो गयंदपर हींग मिरच पीपरि कहा गावति॥ अपनो वनिज दुरावतहौ कत नाउँ लियो यतनोही। कहा दुरावतिहौ मो आगे सब जानत तुव गोही॥ बहुत मोलको वावा तुह्मारो कैसे दुरत दुराए। सुनहु सूर कछु मोल लेहिंगे कछु इक दान भराए॥७३॥ टोडी ॥ दधिको दान मेटि यह ठान्यो। सुनहु श्याम अति चतुर भएहौ आजु तुमहि हम जान्यो॥जो कछु दूध दह्यौ हम देती लैखाते तुम ग्वाल। सोऊ खोइ हाथते बैठे हँसति कहात ब्रजबाल॥ यह सुनि श्याम सबनि करते दधि मटकी लई छँडाई। आपुन खाइ सखन को दीन्हों अति मन हरष बढाई॥ कछुखायो कछु भुँइ ढरकायो चितै रही ब्रजनारि॥ सुरश्याम वन भीतर युवती नएढंग करत सुरारि॥७४॥रामकली ॥ प्यारी पीतांबर उर झटक्यो। हरि तोरी मो तिनकी माला कछुगर कछुकर लटक्यो॥ ढीठो करन श्याम तुम लागे जाइ गही कटि फेट। आपु श्याम रिस करि अंकमभरि भई प्रेमकी भेट॥ युवतिन घेरि लियो हरिको तब भारि भार धरि अँकवारि। सखा परस्पर देखत ठाढे हँसत देत किलकारि॥ हाँक दियो कार नंद दोहाई आइ गए सब ग्वाल॥ सूरश्यामको जानत नाहीं दीठभई हैं बाल॥७५॥ रागभैरव ॥ हम भई ढीठ भले तुम्हग्वाल॥ दीन्हों ज्वाब दईको चैहो देखौरी यह कहा जंजाल॥ बनभीतर युवतिनकोरोंकत हम खोटी तुम्हरे ये हाल। बात कहनको योंआवतहै बडे सुधर्मा धर्महिपाल॥ साखि सखाकी ऐसिय भरिहौ तब आवहु ते जीति भुआल। आयेहैं चढि रिसकरि हमपर सूर हमाहि जानन वेहाल॥७६॥ विलावल ॥ जानी बात तुम्हारी सबकी। लरिकाईके ख्याल तजौ अब गई बात वह त बकी॥ मारग रोकत रहे यमुनको तेहि धोखेहौ आये। पावहुगे पुनि कियो आपनो युवतिन हाथ लगाये॥ जो सुनिहै यह बात मात पितु तब हमसे कहा कैहैं। सूरश्याम मोतिन लरतोरी कौन ज्वाब हम देहैं॥७७॥ विलावलनट ॥ आपुन भई सबै अब भोरी। तुम हरिको पीतांबर झटक्यो उन तुम्हरी मोतिन लर तोरी॥ मांगत दान ज्वाब नहिं देती ऐसी तुम जोबनकी जोरी। डरनहिं मानति नँदनंदनको करति आनि झकझोराझोरी॥ यक तुम नारि गँवारि भलीहौ त्रिभुवन में इनकी सरि कोरी। सूर सुनहु लेहैं छँडाइ सब अबहिं फिरौंगी दौरी दौरी॥७८॥ नट ॥ कहा बड़ाई इनकी सरि मैं। नंद यशोदाके प्रतिपाले