पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३३६

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देशमस्कन्ध १० (२३). जानति नीके करिमैं ॥ तुम्हरे कहे सवन डरमान्यो हरिहि गई अति डरिमैं । वसुदेव डारि रातिही भागे आयेहैं शुभघरि मैं । अंग अंगको दान कहतहैं सुनत उठी रिस जरिमैं । तब पीतां वर झटकि लियो में सूरश्यामको धारमैं ॥ ७९ ॥ गौरी ॥ याते तुमको ढीठ कही । श्यामहि तुम भई झिरकन हारी एतेपर पुनि हारि नहीं ॥ तबते हमहिं देतही गारी हमको दाहति आपु दही। वनिज करति हमसों झगरतिही कहा कहैं हम बहुत सही समुझि परी अब कछ जिय जान्यो तातेही सव मौन रही । सूरश्याम ब्रज ऊपर दानी यहि मारग अब तुम निवही ॥८॥ ॥ कल्याण ॥ तुम देखत रैहौ हम जैहैं । गोरस बेचि मधुपुरीते पुनि येही मारग ऐहैं । ऐसेही बैठे सब रैहो वोले ज्वाव नदेहैं । धरि लेहैं यशुमति पै हरिको तव धौं कैसे कैहैं। काहेको मोतिनलर तोरी हम पीतांवरलैहैं । सूरश्याम इतरात इते पर घर बैठे तब हैं ॥८१॥ मेरे हठ क्यों निवहन पैहौ। अवतो रोकि सबनिको राख्यो कैसे करि तुम जैहो । दान लेउँगो भरि दिन दिनको लेखों कार सब देहौं । सौह करतहौं नंदवबाकी मैं कैहौं तव जैहौं । आवत जात रहत येही पथ मोंसों वैर वहौ । सुनह सूर हमसों हठ मांडति कौन नफा करि लैहौ ॥ ८२ ॥ कान्हरो कौन बात यह कहत कन्हाई । समुझति नहीं कहा तुम मांगत डरपावत कार नंद दोहाई । डरपावहु तिनको जे डरपहिं तुमते घटि हम नाहीं । मारगछाडि देहु मनमोहन दधि वेचन हम जाहीं ॥ भलीकरी. मोतिनलर तोरी यशुमतिसों हम लहैं। सूरदास प्रभु इही बनत नहिं इतनो धन कहा पैहैं ॥८३ ॥ येकहार मोहिं कहा देखावति । नखशिखते अंग अंगनिहारहु ए सब कतहि दुरावति ॥ मोतिन माल जराइको टीको कर्णफूल नकसर । कंठसिरी दुलरी तिलरीको और हार एक नंवसर ॥ सुभग हमेल कनक अँगिया नग नगन जरितकी चौकी । वाहुगाड कर कंकन वाजूवंद येते परही तौकी॥ छुद्रघंटिका पग नूपुर जेहरि विछिया सव लेखौ । सहज अंग सोभा सब न्यारी कहत सूर ये देखौ ॥ ८४ ॥ नेतश्री ॥ याहूमें कछु वांट तुम्हारो । अचरज आइ सुनहुरी माई भूषण देखि न सकत हमारो ॥ कहो ढिठाई हिएते आपुन की यशुमतिकी नंद। पाटधरचो तुम इहै जानिकै करत ठगनके छंदाजितनो पहिरि आपु हम आई घरहै याते दूनो । सूरश्याम हो बहुत लोभाने वन देख्यो धौं सूनो ॥ ८५ ॥ गौरी ॥ चीज कहा अब सबै हमारो । जवलौं दान नहीं हम पायो तंवलौं कैसे होत तिहारो॥ आभूपणकी कौन चलावत कंचनघट काहे न उघारो। मदनदूत मोहि वात सुनाई इनमें भरयो महारस भारो॥ एक ओर यह अंग अभूपण सब एक ओर यह दान विचारो । सुनहु सूर कहा वाट करैं हम दान देहु पुनि जहां सिधारो॥८६॥ कल्याण ॥ श्याम भराये सेरसनागर । दिनकै घाट रोकि यमुनाको युवतिनमें तुम भए उजागर ॥ कांधे कामरि हाथ लकुटिया गाइ चरावन जाते। दही भातकी छाक मँगावत ग्वालन सँग मिलि खाते ॥ अब तुम कर नवलासी लीने पीतांवर कटि सोहत । सूरश्याम अब नवल भए तुम नवल नारि मन मोहत ॥ ८७ ॥ गौरी ॥ दान देतकी झगरो करिहौ । प्रथमहि यह जंजाल मिटावहु ता पाछे तुम हमहि निदरिही। कहत कहा निदरेसेहो तुम. सहज कहति हम बात । आदि बुन्यादि सबै हम जानति काहेको सतरात । रिस करि करि मटुकी शिर धरि धरि डगरि चलीं सब ग्वालिनि । सूरश्याम अंचल गहि झरकी जहाँ कहा वजारिनि ॥८८॥ कल्याण|अब तुमको मैं जान न देहदान ले कौडी कौडी करि वैर आफ्नो लैहों । गोरस खाइ बच्यो सो डरयो मटुकी डारी फोरि। दैदै | गारि नारि झकझोरी चोलीके बदतोरि ॥ हसत सखा करतारी दै वनमें रोकी नारि । सुनत: