पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३३७

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(२४४) सूरसागर। 1 लोग घरते आवहिंगे सकिही नहीं सम्हार । घरके लोगनि कहा डरावत कसहि आनि वुलाइ । सूर सबै युवतिनके देखत पूजा करौं वनाइ।।८९॥गौगातो तुमहीही सबके राजा। तो वैठौ सिंहासन चड़िक चमर छत्र शिर भ्राजा।।मोर मुकुट मुरली पीतांवर छाँडिदेहु नटवरको साजा । वेनु विषान शृंगक्यों पूरत वाजै नौवति वाना।यह जो सुनै हमहु सुखपावै संगकरैकछु काजा। सुरश्याम ऐसी वातें सनि हमको आवति लाना ॥९०॥ कल्याण ॥ तुम्हारे चित रजधानी नीकी । मेरे दास दासनिके चेरे तिनको लागति फीकी ॥ ऐसी कहि मोहिं कहा सुनावति तुमको इहै अगाध । कंस मारि शिरछत्र धरावों कहा तुच्छ यह साध ॥ तवही लौ यह संग तिहारो जपलागि जीवत कंस । सूरश्यामके मुख यह सुनि तव मन मन कीन्हो संस ॥ ९१ ॥ नेतश्री ॥ भली करी हार माखन खायो । इहौ मानि लीनी अपने शिर उवरो सो ढरकायो॥ राखी रही दुराइ कमोरी सोलै प्रगट देखायो। यह लीजै कछु और मँगावें दान सुनत रिसपायो । दानदिये विनु जान नपैहौं कवमै दान छुटायो । सूरश्याम हठ परे हमारे कहो नकहा लदायो ॥१२॥ धनाश्रीगोलहौं दान इननको तुमसों। मत्त गयंद हंसते तुमसोहैं कहादुरापति तुमसोंकिहार कनक कलस अमृतके कैसे दुरैदुरावति।विद्रुम हेम वज्रके किनुका नाहिन हमहि सुनावति ॥ खग कपोत कोकिला कीर खंजन चंचल मृगजान ति ॥ मणि कंचनके चित्र जहैं एतेपर नहिं मानति । सायक चाप तुरय बनिजतिहौ लिये सबै तुम जाहू ॥ चंदन चमर सुगंध जहाँ तहँ कैसे होत निवाहू ॥ यह वनिजात वृषभानु सुता तुम ह मसों वैर बढ़ावति । सुनहु सूर एतेपर कहतिहै हमधौं कहा लदावति ॥९३॥ सोरठ ॥ यह सुनि चकृतभई ब्रजवाला । तरुणी सव आपुसमें धूझति कहा कहत गोपाला । कहां तुरंग कहां गज के हरि कहां हंससरोवर सुनिये । कंचनकलस गढाये कब हम देखे धौं यह गुनिये। कोकिल कीर कपोत बननमें मृग खंजन इक संग । तिनको दान लेतहै हमसों देखहु इनको रंग ॥ चंदन चौर सु गंध बतावत कहां हमारे पास । सूरदास जो ऐसे दानी देखिलेहु चहुँ पास ॥ ९४ ॥ गुनकरी ॥ भू लिरहे तुम कहा कन्हाई । तिनको नाउलेत हम आगे जो सपने कहुँ दृष्टि नआई । हैवर गैवर सिं ह हंसवर खग मृग कहहैं हम लीन्हे । सायक धनुष चक्र सुनि चकृत चमर न देखेचीन्हे ॥ चंद न और सुगंध कहतही कंचन कलस बतावहु । सूरश्याम ये सब जो है तबहिं दान तुप पावहु ॥ ९९ ॥ गृजरी ॥ इतने सबै तुम्हारे पास । निरखि न देखहु अंग अंग अव चतुराई के गांस ॥ तुर तही निरुवारि डारहु करति कहत अवेर । तुमकहोकछु हमहुँ बोलें घरहि जाहु सवेर । कनक तुम परतक्ष देखहु सजे नवसत अंग । सूर तुमसों रूप जोवन धन्यो एकहि संग ॥ ९६ ॥ विलावल ॥ प्र गटकरौ सब तुमहि वतावें। चिकुर चमर घूघटहै वरवर भुवसारंग देखावाण कटाक्ष नयन खंजन मृग नासा शुक उपमांउ । तरिवनचक्र अधर विद्रुम छवि दशन वज्र कनठांउ ।। ग्रीव कपोत को किला वाणी कुच घट कनक सुभाउ । जोबनमदरसअमृत भरेहैं रूप रंग झलकाउ ॥ अंग सुगंध वसन पाटवर गनि गनि तुमहि सुनाउ । कटि केहरि गयंदगति सोभा हंससहित यकनाउँ। फेरकिये कैसे निवहतिहै घरहिगएकहा पाउँ । सुनहु सूर यह वनिज तुम्हारे फिरि फिरि तुमहि मनाउँ ॥ नट ॥९७॥ माँगत ऐसे दान कन्हाई अब समुझी हम बात तुम्हारी प्रगट भई कछुधौं तरुनाई।यहि लाल च अंकवारि भरतही हार तोरि चोली झटकाई अपनी ओर देखि धौ लीजै तापाछे करियै वरिआई॥ सखालियेतुम घेरत पुनि पुनि वनभीतर सब नारि पराई।सूरश्याम ऐसी नबूझियै इनिवातनि मर्यादा जाई ॥९८॥ नट हमपर रिस करात ब्रजनारि । बात सूधे हम बतावत आपु उठत पुकारिकबहुँ