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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३३७

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सूरसागर।


लोग घरते आवहिंगे सकिहौ नहीं सम्हारि॥ घरके लोगनि कहा डरावत कंसहि आनि बुलाइ। सूर सबै युवतिनके देखत पूजा करौं बनाइ॥८९॥ गौरी ॥ तो तुमहीहौ सबके राजा। तो बैठौ सिंहासन चढ़िकै चमर छत्र शिर भ्राजा॥ मोर मुकुट मुरली पीतांबर छाँडिदेहु नटवरको साजा। वेनु विषान श्रृंगक्यों पूरत बाजै नौबति बाजा॥ यह जो सुनै हमहु सुखपावै संगकरै कछु काजा। सुरश्याम ऐसी बातें सुनि हमको आवति लाना॥९०॥ कल्याण ॥ तुम्हारे चित रजधानी नीकी। मेरे दास दासनिके चेरे तिनको लागति फीकी॥ ऐसी कहि मोहिं कहा सुनावति तुमको इहै अगाध। कंसमारि शिरछत्र धरावों कहा तुच्छ यह साध॥ तबही लौं यह संग तिहारो जबलागि जीवत कंस। सूरश्यामके मुख यह सुनि तब मन मन कीन्हो संस॥९१॥ जैतश्री ॥ भली करी हरि माखन खायो। इहौ मानि लीनी अपने शिर उबरो सो ढरकायो॥ राखी रही दुराइ कमोरी सोलै प्रगट देखायो। यह लीजै कछु और मँगावें दान सुनत रिसपायो॥ दानदिये विनु जान नपैहौं कबमै दान छुटायो। सूरश्याम हठ परे हमारे कहो नकहा लदायो॥१२॥ धनाश्री ॥ लहौं दान इननको तुमसों। मत्त गयंद हंसते तुमसोहैं कहा दुरावति तुमसों॥ केहरि कनक कलस अमृतके कैसे दुरै दुरावति।विद्रुम हेम वज्रके किनुका नाहिन हमहि सुनावति॥ खग कपोत कोकिला कीर खंजन चंचल मृगजानति॥ मणि कंचनके चित्र जरेहैं एतेपर नहिं मानति। सायक चाप तुरय बनिजतिहौ लिये सबै तुम जाहू॥ चंदन चमर सुगंध जहाँ तहँ कैसे होत निवाहू॥ यह वनिजात वृषभानु सुता तुम हमसों वैर बढ़ावति। सुनहु सूर एतेपर कहतिहै हमधौं कहा लदावति॥९३॥ सोरठ ॥ यह सुनि चकृतभई ब्रजवाला। तरुणी सब आपुसमें बूझति कहा कहत गोपाला। कहां तुरंग कहां गज के हरि कहां हंससरोवर सुनिये। कंचनकलस गढाये कब हम देखे धौं यह गुनिये। कोकिल कीर कपोत बननमें मृग खंजन इक संग। तिनको दान लेतहै हमसों देखहु इनको रंग॥ चंदन चौर सुगंध बतावत कहां हमारे पास। सूरदास जो ऐसे दानी देखिलेहु चहुँ पास॥९४॥ गुनकरी ॥ भूलिरहे तुम कहा कन्हाई। तिनको नाउलेत हम आगे जो सपने कहुँ दृष्टि नआई। हैवर गैवर सिंह हंसवर खग मृग कहँहैं हम लीन्हे। सायक धनुष चक्र सुनि चकृत चमर न देखेचीन्हे॥ चंद न और सुगंध कहतहौ कंचन कलस बतावहु। सूरश्याम ये सब जो ह्वैहै तबहिं दान तुप पावहु॥९९॥ गूजरी ॥ इतने सबै तुम्हारे पास। निरखि न देखहु अंग अंग अब चतुराई के गांस॥ तुरतही निरुवारि डारहु करति कहत अवेर। तुमकहोकछु हमहुँ बोलैं घरहि जाहु सबेर। कनक तुम परतक्ष देखहु सजे नवसत अंग। सूर तुमसों रूप जोबन धन्यो एकहि संग॥९६॥ विलावल ॥ प्रगटकरौ सब तुमहि बतावें। चिकुर चमर घूघटहै बरबर भुवसारंग देखावैं॥ बाण कटाक्ष नयन खंजन मृग नासा शुक उपमांउ। तरिवनचक्र अधर विद्रुम छबि दशन वज्र कनठांउं॥ ग्रीव कपोत को किला वाणी कुच घट कनक सुभाउ। जोबनमदरस अमृत भरेहैं रूप रंग झलकाउ॥ अंग सुगंध बसन पाटंवर गनि गनि तुमहि सुनाउ। कटि केहरि गयंदगति सोभा हंससहित यकनाउँ। फेरकिये कैसे निबहतिहै घरहिगएकहा पाउँ॥ सुनहु सूर यह वनिज तुम्हारे फिरि फिरि तुमहि मनाउँ॥ नट ॥९७॥ माँगत ऐसे दान कन्हाई। अब समुझी हम बात तुम्हारी प्रगट भई कछुधौं तरुनाई॥ यहि लालच अंकवारि भरतहौ हार तोरि चोली झटकाई। अपनी ओर देखि धौं लीजै ता पाछे करियै बरिआई॥ सखालियेतुम घेरत पुनि पुनि वनभीतर सब नारि पराई। सूरश्याम ऐसी नवूझियै इनिवातनि मर्यादा जाई॥९८॥ नट ॥ हमपर रिस करात ब्रजनारि। बात सूधे हम बतावत आपु उठत पुकारि॥ कबहुँ