पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३३८

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दशमस्कन्ध-१० (२४५) मर्यादा घटावति कबहुँ दैहै गारि।प्रातते झगरो पसारो दानदेहु निवासिबिडे घरकी बहू बेटी करति वृथा झवारि । सूर अपनो अंश पावै जाहिंघर झखमारि॥९९॥सारंग ॥ तुमहि उलटि हमपर सतराने। जो कछु हमको कहन बूझिए सो तुम कहि आगे अतुराने ॥ यह चतुराई कहा पढी हरि थोरे दिन अति भये सयाने। तुमकोलाज होतकी हमको वात परै जोकहुँ महरान।ऐसो दान और पै मांगह जो हमसों कहौ छविछाने । सूरदास प्रभु जानदेहु अब वहरि कहोगे कालि विहानै ॥११००.॥ श्यामहि बोलि लियो ढिग प्यारी । ऐसी वात प्रगट कहुँ कहिये सखनि मांझ कत लाजन मारी॥ एक ऐसेहि उपहास करत सब तापरतुम यह बात पसारी । जातिपातिके लोग हँसिहिंगे प्रगट जानिहै श्याम भतारी । लाजन मारतही कत हमको हाहा करति जाति बलिहारी । सूरश्याम सर्वज्ञ कहावत मात पितासों घावत गारी ॥१॥ जयहि ग्वारि यह वात सुनाई । सखा सपनि तवहीं लखि लीन्ही सदा श्यामके प्रकृत सुभाई।सुनहुँ ग्वारि इकवातसुनावों जो तुम्हरे मन आवै। तुम प्रति अंग अंगकी सोभा देखत हरिसुख पावै ॥ तुम नागरी नवल नागर वे दोऊ मिलि करी विहार । सूरश्यामश्यामा तुम एकै कहा हँसिहै संसार॥२॥नट | नंदसुवन यह बात कहावताआपुन जोवन दान लेतहै तापर जोइ सोइ सखनि कहावत ॥वैदिन भूलिगए हरि तुमको चोरी माखन खाते। खीझतही भरिनयन लेतहै डरडरात भजि जाते ॥ यशुमति जब ऊखलसों वांधति हमही छोरति जाइ । सूरश्याम अब बडे भयेही जोवनदान सुहाइ ॥३॥ टोडी ॥ लरिकाईकी बात चला. वति । कैसी भई कहा हम जानै नेकहु सुधि नहिं आवति। कव माखन चोरी करि खायो कव बांधे धौं मया। भले बुरेको मात पिता तन हरपतही दिन जैया ॥ अपनी बात खबरि कार देखहु न्हात यमुनके तीर । सूरश्याम तव कहत सबनिके कदम चढाए चरि ॥४॥ गूलरी ॥ सवै.रही जलमांझ उघारी । बार बार हाहाकार थाकी मैं तट लिये हँकारीआई निकसि बसन बिनुतरुनी बहुत करी मनुहारि । कैसे हास भए तब सबके सो तुम सुरति बिसारि॥ हमहि कहति दधि दूध चुराये अरु बांधे महतारी । सूरश्यामके भेद वचन सुनि हँसि सकुची ब्रज नारी ॥६॥कहाभए अति ढीठ कन्हाईऐिसी बात कहत सकुचत नहिं कहाधौं अपनी लाज गवाई।जाहु चले लोगनिके आगे झूठी वाणी कहत सुनाई।तुम हँसि कहत ग्वाल मुनिकै सब घर घर कैहैं जाई।बहुत होहुगे दशहि वरसके | वात कहतही वनै वनाईसूरश्याम यशुमतिके आगे इहै वात सव कहे जाईवाहमीर।।झूठीवात कहा. मैं जानौं।जो हमको जैसेही भनेरी ताको तैसेहि मानौं।तुम पति कियो मोहिको मनदै मैंही अंतर्यामी योगीको योगी व दरशौं कामीको है कामी॥ हमको तुम झूठे करिजानति तो काहे तप कीन्हो। सुनहु सूर अब निठुर भई कत दान जात नहिं दीन्हों ॥ ७ ॥ गौरी ॥ दान सुनतं रिस होइ कन्हाई। और कहा सो सब सहि लेहैं जो कछु भली बुराई ॥ महतारी तुम्हरीके वै गुण उरहन देत रिसाई । तुम नीके ढंग सीखे बनमें रोकत नारि पराई । आवन जावन पावत कोऊ तुम मगमें घटवाई। सूरश्याम हमको विरमावत खीझत वहिनी माई ॥८॥ काहेको तुम. झेर लगावतिादानदेहु घर जाहु वेचि दधि तुमहीको यह भावति ॥ प्रीति करो मोसों तुम काहेन वनिज कराति ब्रजगाउँ । आवहु जाहु सवै यहि मारग लेत हमारो नाउँालेखौ करौतुमहि अपने मन जोइ देहो सोइ लेहौं।सूर सुभाइ चलहुगी जब तुम पुनिधों मैं कहाँ कहौं ॥९॥ कान्हरो ॥ सुनहु आइ हरिके गुण माई । हम भई वनि. जारिनि आपुन दानि भए कुँवर कन्हाई ॥ कहा वनिज ले आई धौं हम ताको मांगत दान । कालि. हिके ढंग पुनि आएहैं नहिं जानत कछुआन ॥ तुम गँवारि एही मग . आवति जानि: बूझि :गुण