पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३४०

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दशमस्कन्ध-१० (२४७) सुनि पावै तब ताहीको पूजो ॥ कहा नाउँ केहि गाँउ बसतहै ताहीके द्वैरहिए । सूरदास प्रभु कहै | वनेगी झूठे हमहि निदरिए ॥२१ ॥ मोसों सुनहु नृपतिको नाउँ । तिहूं भुवन भरि गम्यहं जाको नर नारी सब गाउँ ॥ गण गंधर्व वश्यवाहीके अवर नहीं सरिताहि ।। उनकी स्तुति करौं कहांलगि में सकुचतहौं जाहि ॥ तिनहीको पठयो मैं आयो दियो दानको वीरा । सूररूप जो वन धन सुनिक देखत भयो अधीरा ॥२२ ॥ गौरी। पाई जाति तुम्हारे नृपकी जैसे तुम तैसे वो उहौं कहां रहे दुरिजाइ आजुलौं एई ढंग गुणके सोङहैं। यह अनुमान कियो मनमें हम येक हि दिन जनमें दोऊहैं । चोरी अपमारग वटपारयो इनि पटतरके नहिं कोङहैं। श्याम बनी अब जोरी नीकी सुनहु सखी मानत तोऊहैं । सूरश्याम जितने रंग काछत युवती जन मनके गोऊहैं ॥ २३ ॥ ठगात फिराति ठगिनी तुम नारी । जोइआवति सोइ सोइ कहडारति जाति जनावति दै दै गारी ॥ फॅसिहारिनि बटपारिनि हम भई आपुन भए सुधर्मा भारी। फंदाफाँसिकमानवानसो काहूडारत देख्यो मारी।।जाकेमन जैसोई बरतै मुखवानी कहिदेत उधारी।सुनहु सूर प्रभुनी के जान्यो ब्रज युवती तुम सब वटपारी ॥ २४ ॥ सुही ॥ अपने नृपको इहै सुनायो । ब्रजनारी वटपारिनि हैं सव चुगली आपुहि जाइ लगायो।राजा बड़े बात यह समुझी तुमको हमपर धौंस पठायोसि हा रिनि कैसे तुम जानी तुम कहुँ नाहिंन प्रगट देखायो।व्रजवनिता फँसिहारी जो सव महतारी काहेन गनायो । फंदा फांसि धनुप विप लाडू सूरश्याम नाह हमहिं बतायो॥२६॥भैरवादा फांसि बताव हु जी । अंगनि धरे छपाइ जहां जो प्रगट करौ सब दीहौ तौ ॥ प्रथमहि शीश मोहिनी डारति ऐसे ताहि करत वशहौ । विपलाडू दरशावति ले पुनि देह दशा पुनि विसरति ज्यो॥ ता पाछे फंदागर डारति एहिभांतिनिकरिमारतिहौ । सुनहु सूर ऐसे गुण तुम्हारे मोसों कहाउचारतिहौ२६ प्रगट करौ यह बात कन्हाई । वान कमान कहां केहि मारयो काके गर हम फांसि लगाई। काके शिर पढ़ि मंत्र दियो हम कहां हमारे पाशदिनाई । मिलवत कहां कहांकी बातें हँसत कहति अति गई सकुचाईतव मानें सव हमहुँ वतावहु कहो नहीं जो नंद दोहाई । सूरश्याम तब कह्यो सुनहुगी एक एक करि देउँ वताई ॥२७ ॥ रागिनी ॥ मोसों कहा दुरावति नारी । नयनशयन दै चितहि चुरावति इहै मंत्र टोना शिरडारी॥ भौह धनुप अंजन गुन वान कटाक्षनि डारति मारि। तरिवन श्रवन फांसि गर डारति कैसेहुँ नहीं सकत निरवारि ॥ पीन उरोज मुख नैन चखावति इह विप मोदक जानत झारि । पालति छुरी प्रेमकी वानी सूरदासको सकै सँभारि ॥२८॥ टोडी ॥ अपनोगुण औरनि शिरडारत । मोहन योवन मंत्र यंत्र टोना सब तुमपर वारत ॥ तनुत्रिभंग अंग अंगमरोरनि भौंह बंक करि हेरत । मुरली अधर बजाइ मधुर सुरतरुनी मृगवन घेरत ।। नटवर भेप पीतांवर काछे छैलभए तुम डोलत । सूरश्याम रावरे ढंगए अवरनिको ढंगबोलत ॥२९॥ जानी बात मौन धरि रहिए । इहै जानि हमपर चढि आए जो भावै सो कहिए ॥ हम नहिं विलग तुम्हारो मान्यो तुम जनि कछु मन आनो। देखहु एक दोइ जनि भापड चारि देखि दुइगानो दोबल देति सवै मोहीको उन पठयो मैं आयो । सूर रूप जोवनकी चुगली नैननि जाइ सुनायो ॥३०॥ बिलावल ॥ तव रिसकरिकै मोहिं बोलायो । लोचन दूत तुमहिं इहि मारग देखत जाइ सुनायो । सोइ सब महलनते सुनि वानी जोबन महलनि आयो । अपने कर वीरा मोहिं दीन्हो तुरत मोहिं पहि रायो॥ वैढ्योहै सिंहासन चढिके चतुराई उपजायो । मनतरंग आज्ञाकारी भृत सौतिनको तुमही लगायो॥तिनको नाम अनंग नृपतिवर सुनहु वात सुखपायो । सूरश्याम मुखबात सुनत यह