न न चोरावै। क्यों गोपिनको आपु जनावै॥ भुजा उलूखल नहीं बँधावै। जमलामोक्ष कौन विधि पावै॥५॥ सो प्रभु दधिदानी कहवावै। गोपिनको मारग अटकावै॥ करिलेखो कै दान सुनावै। आपुन खीझै उनहिं खिझावै॥६॥ ब्रजवासी जो धन्य कहावै। जहां श्याम दधि दान लगावै॥ मांगि खात आनंद बढावै। युवतिनसों कहि कहि परुसावै॥७॥ तेई हरि नटवर वपु काछे। मोर मुकुट पीताबंर आछे॥ ग्वालसखा ठाठे सब पाछे। सूरश्याम गोपिन सुख साछे॥८॥४९॥सुही ॥ यह महिमा येईपै जानै। योग यज्ञ तप ध्यान न आवत सो दधि दान लेत सुखमानै। खात पर स्पर ग्वालन मिलिकै मीठो कहि कहि आपु बखाने। विश्वंभर जगदीश कहावत तेदधि दोना माँझ अघाने॥ आपुहि हरता आपुहि करता आपु बनावत आपुहि भाने। ऐसे सूरदासके स्वामी ते गोपिनके हाथ विकाने॥५०॥ रामकली ॥ धनि वडभागिनी ब्रजनारि। खात लै दधि दूध माखन प्रगट जहां मुरारि॥ नहीं जानत भेद जाको ब्रह्मा अरु त्रिपुरारि। शुक सनक मुनि येउ न जानत निगम गावत चारि॥ देखि सुख ब्रजनारि हरिसँग अमर रहे भुलाइ। सूर प्रभुके चरित अगनित
वरनि कापै जाइ॥५९॥ विलावल ॥ ब्रजवनिता यह कहति श्यामसों माखन दूध दह्यो अरल्यावे। मटुकि निते हम देहिं खाहु तुम देखि देखि नैननिं सुखपावै॥ गोरस बहुत हमरे घर पर दान पाछिलो लेहु।
खायो जौन दान आजुहिको मांगतहै सब देहु॥ सबै लेहु राखहु जिनि वाकी पुनि नपाइहो मांगे आजहिलेहु सबै भरिदैहैं कहति तुम्हारे आगे॥ कह्यो श्याम अब भई हमारी मनहि भई परती ति। जब चैहैं तब मांगि लेहिगे हमहिं तुम्हैं भई प्रीति॥ बेचहु जाइ दूध दही निधरक घाट वाट डर नाहीं। सुरश्याम वशभई ग्वारिनी जात वनत घरनाहीं॥५२॥ टोडी ॥ सुनहु सखी मोहन कहा कीन्हों। येक येक सों कहति बात यह दान लियो की मन हरि लीन्हों॥ यहतौ नाहिं वदी हम उनसों बूझहु धौं यह बात। चकृतभई विचार करत यह विसरि गई सुधि गात॥ उमचि जाति तबहीं सब सकुचति बहुरि मगनह्वै जाति। सूरश्याम सों कहौं कहा यह कहत न बनत लजाति॥५३॥ धनाश्री ॥ श्याम सुनहु एक बात हमारी। ढिठो बहुत कियो हम तुमसों सो बकसो हार चूक हमारी॥ मुख जो कही कटुक सब वानी हृदय हमारे नाहीं। हँसि हँसि कहति खिझावति तुमको अति आनंद मनमाहीं॥ दधि माखनको दान और जो जानो सबै तुम्हारो। सूरश्याम तुमको सब दीनों जीवनप्राण हमारो॥५४॥ नंदकुमार कहा यह कीन्हौं। बूझति तुमहि कहाँ धौं हमसों दान लियो की मन हरिलीन्हौं। कछू दुराव नहीं हम राख्यो निकट तुम्हारे आई। येते पर तुमही अब जानौं करनी भली बुराई। जो जासों अंतर नहिं राखै सो क्यों अंतर राखै। सूरश्याम तुम अंतर्यामी वेद उपनिषद भाषै॥५५॥ टोही ॥। सुनहु बात युवती इक मेरी तुमते दूरि होत नहिं कतहूँ तुम राखौ मोहिं घेरी॥ तुम कारण वैकुंठ तजतहौं जनमलेत ब्रजआई। वृंदावन राधा सँग गोपी यह नहिं विसरयो जाई॥ तुम अंतर अंतर कहा भाषति एक प्राण द्वै देह। क्यों राधा ब्रज बसे विसारयो सुमिरि पुरातन नेह॥ अब घर जाहु दान मैं पायो लेखो कियोनजाइ। सूरश्याम हँसि हँसि युवतिनसों ऐसी कहत बनाइ॥५६॥ नट ॥ घर तनु मनहिं विना जाता। आपु हँसि हँसि कहतहौजू चतुरईकी बात॥ तनहि परहै मनहि राजा जोइ करै सोइ होइ। कहाँ पर हम जाहिं कैसे मनधरयो तुम गोइ॥ नयन श्रवन विचार सुधि बुधि रहे मनहि लुभाइ जाहि अबही तनहि लै घर परत नाहिन पाइ॥ प्रीतिकरि दुविधा करी कुत तुमहि जानौ नाथ। सूरके प्रभु दीजिये मन जाइँ घरलै साथ॥५७॥ कानरो ॥ मन भीतरहै वास हमारो। हमको।
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सूरसागर।
