मेरे रसके केलि॥ कहत ब्रजनागरी॥३०॥ अबलौं कीन्ही कानि कान्ह अब तुमसों लरिहैं। अधर नयन रसकोपि विराचि अनउत्तर करिहैं। मोआगे को छोहरा जीत्यो चाहे मोहिं। काके बल इतरातहौ देहुँन नख भार तोहिं॥ कहत नंदलाडिले॥३१॥चितै वदन सुसकाइ हाथ दधि पूरन दोना। इत मुंदरी विचित्र स्तहि घनश्याम सलोना। आततामस तोहि ग्वालिनी मैं सब जानत आदि। खोटी करनी जाहि मेरेकी सोई करे उपादि॥ कहत ब्रजनागरी ॥३२॥ तोहि नछांडों कान्ह दान
तुमको नहिं देहौं। बिना कहे ब्रजलोग कहा काहूपतिऐहौं॥ लाज नहीं तुम आवई बोलत जय सतराइ। कहूं कंस मुनि पाइहै गद्दत फिरहुगे पाइ॥ कहत नँदलाडिले ॥३३॥ सुनत हँसे नँदलाल ग्वारि जिय तामस मान्यो॥ सींच्यो अमृतवैन कोप कर्षत नहिं जान्यो॥ कहां वसतिहौ वावरी सुनहु नमुग्ध गवाँरि। ब्रजवासी कहा जानिहीं तामसको व्यवहारि॥ कहत ब्रजनागरी॥३४॥ जननी जन परिहयो तात कुलधर्म नशायो। गोपराइके गेह पुत्रर्ह्वे नाम धरायो॥ इतनेते इतनो कियो खाटी छांछि पिवाइ। तुमहि दोष नहिं लाडिले वोछो गुण क्यौं जाइ॥ कहत नंदलाडिले ॥३५॥ अविगति अगम अपार आदि नाहीं अविनासी। परमपुरुप अवतार माया जिनकीहै दासी॥ तुमहि मिले ओछेभए कहा रही कार मौन। तुम्हरे आगेन्या
बहै दुइ में ओछो कौन॥ कहत ब्रजनागरी॥३६॥ हमहि ओछाई भई जबहि तुमको प्रतिपाले। तुम पूरे सब भांति मात पितु संकट घाले॥ कहा चलत उपरावटे अजहूं खिसी नगात। कंस सौंहदे पूछिये जिन पटकेहैं सात॥ कहत नंदलाडिले॥३७॥ कंसकेश निग्रहौं पुहुमिको भार उतारों। उग्रसेन शिरछत्र चमर अपने कर ढारौं। मथुरा सुरनि वसाइडौं असुर करौं यमहाथ॥ दनुज वदन बिरदावली सांचो त्रिभुवननाथ॥ कहत ब्रजनागरी॥३८॥ तब न कंस निग्रह्यौ पुहु
मिको भार उतारयो। चोरीजायो मातु गोद गोकुल पगधारयो। अब बहुतै बातें कहौ दही दूध के मात। जो ऐसे बलवंतहौ मथुरा काहे नजात॥ कहत नंदलाडिले॥३९॥ जो जैहौं मधुपुरी बहुरि गोकुल नहिं ऐहौं। यह अपनो परताप नंद यशुमतिहि सुनैहौं॥ वचनलागि में है कियो यशुमतिको पयपान। मोहिग्वार जनि जानहू ग्वारिनि सुनहु निदान॥ कहत ब्रजनागरी॥४०॥ हम ग्वाली तुम तरनि रूप रस रवि शशि मोहै। तीनलोक परताप छत्र सिंहासन सौहै॥ गयो गर्व गति ग्वालनी देखि चरित तेहि काल। हम अहीर ढीगे दई तुम जैजैमदन गोपाल॥ और दिननते आजु दहो हम उखाल्याई। देखत ज्योति विलास दई मुख वचन डिठाई॥ कान्ह विलग जिन मानहु राखहु पिछलो नेहु। दही दूधकी को गनै कछु हमहू पैते लेहु॥ धन्य नंदको गेह धन्य गोकुल जहँ आये। धनि गोपनकी नारि जहां तुम रोकन धाये॥ धनि धनि झगरो आजको इह मुख नाहिन पार। नंदनँदन पर कीजिये तन मन धन बलिहार॥ तब लै दधि आगे धरयो कान्ह लीजे जो भावे। खाइ जाइ मंजार काज एकौ नहिं आवे। हम अनखी या बातको लेत दानको नाउँ। सहज भावरहो लाडिले वसत एकही गाउँ। कहत नँदलाडिले॥४१॥ अभरन दियो मँगाइ कियो गोपिन मनभायो। हिलि मिलि वढ्यो सनेह आपु करमाट उठायो॥ नँदनंदन छबि देखिक गोपिन वारो प्रान। कुंज
केलि मनमें वसी गायो सूर सुजान॥४२॥११६०॥ विलावल ॥ जबहिं कान्ह यह बात सुनाई। ब्रजयुवती अति गई मुरझाई॥ कंस संहारन मथुरा जैहौ। बहुरौ फिरि ब्रजको नहिं ऐहौं॥ देवैगर्भ वासहौं लीन्हौं। तुमको गोकुल दरशन दीन्हौं॥ नंद यशोदा अति तप कीन्हों। मोसों पुत्र
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दशमस्कन्ध-१०
