मांगि तब लीन्हो॥ मोसों दूजो और नकोई। हरता करता मैंही सोई॥ तुमसों सुत पयपान कराऊं। यह तुमसों मैं माँगे पाऊं॥ मोसों सुत तुमको मैंदैहों। मथुरा जनमि गोकुलहि ऐहौं॥ नंद यशोदा वचन बँधायो। ताकारण देही धरि आयो॥ यह वाणी सुनि ग्वारि झुरानी। मीन भये मानो विन पानी॥ इहै कथा तब गर्ग सुनाई। सोई आपु कहतरी माई॥ नरदेही कार मोहि नजानो। ब्रह्मरूप कार मोको मानो॥ षोडश वरष मिले सुख करिहौं। मथुराजाइ देव उद्धरिहौं॥ केशगहे अरिकंस पछरिहौं। असुर कठोर यमुन लै डरिहौं॥ रंगभूमि करि मल्लन मारौं। प्रबल कुवलियादंतउपारौं॥ सुनहु नारि हरिमुखकी बानी। यह सुनि सुनि तरुणी
विकलानी॥ तन मन धन इनपर सब वारहु। जोबनदान देहु रिसि टारहु॥ षोडसवर्ष गए धौंजैहै। ब्रजते जाइ मधुपुरी रैहै॥ राजा उग्रसेनको करिहैं। कनकदंड आपुन कर धरिहैं। माता पिता वसुदेवदेवकी। यशुमति धाइ कहतिहैं इनकी॥ अब तिनके बंधन मोचहिंगे। दरशविना पुनि हम लोचहिंगे॥ मथुरा नारिनके सुख दैहैं। तब घट प्राणकहौ क्यों रैहैं॥ कहत हसी यह बात अयानी। जानतिहौ तुम कछुक सयानी॥ जोवन दान लेहिंगे तुमसों। चतुरायो मिलवतिहै हमसों॥ इनके गांस कहारी जानौ। इतनी कही एक जनिमानौ॥ जो चाहै सो दीजै इनको। ज्योंविन देखे रहत न जिनको॥ आपु आपु यह बात विचारै। नारि नारि मन धीरजधारै॥ आगे धरौ दूध दधि माखन। प्रथमहि यह कीजै संभाषन॥ बड़े चतुर तुम अहो कन्हाई। तरुनि सबनि कहि इहै सुनाई॥ जानी बात तुम्हारे मनकी। दूरि नकीजै यह रिस तनकी॥ सबनि धरयो दधि माखन आगे। लेहु सबै अब विनही माँगे॥ तुम रिस करत देखि सुखपावें। याते बारहिबार खिझावें॥ तनु जोवन धन अर्पन कीन्हों। मनदै मन हरिको सुख दीन्हों॥ सुभगपात दोना
लिए हाथनि। बैठे सखा श्याम एक साथनि॥ मोहन खात खवावत नारी। माँगिलेत दधि गिरिवर धारी॥ आपुहि धन्य कहति ब्रजनारी। रुचिकर माँगि खात वनवारी॥ और खाउ मोहन दधिदानी। यह कहि कहि तरुणी मुसुकानी॥ सुखदीनो हार अंतर्यामी। ब्रज युवतिनके पूरनकामी॥ देखत रूप थकित ब्रजनारी। देह गेहकी शुद्धि विसारी॥ सूरश्याम सबके सुखकारी। कह्यो जाहु घर घोषकुमारी॥६१॥ रामकली ॥ युवती ब्रज घर जान विचारति। कबहुँक मटुकी लेत शीशपर कबहुँ धरणि फिरि धारति॥ देखत श्याम सखा सब देखत चितैरही ब्रजनारि रीती मटुकिनिमें कछु नाहीं सकुचति मनहि विचारि॥ तब हँसि बोले श्याम जाहु घर तुमको भई अवार। सकुचति दान पाछिले को तुम मैं करिहौं निरवार॥ यह कहिकै हार ब्रजहि सिधारे युव
तिन दान मनाई। सूरश्याम नागर नारिनकी चितलै गए चुराई॥६२॥ विलावल ॥ अलहीआ ॥ रीती मटकी शीशलै चली घोषकुमारी। एक एककी सुधि नहींको कैसी नारी॥ बनहीं में वेचति फिरै घरकी सुधि डारी। लोकलाज कुलकानकी मर्यादा टारी॥ लेहु लेहु दधि कहति है वनसोर पसारी। द्रुम सब घर कार जानही तिनको दैगारी॥ दूध दह्यो नहि लेहुरी कहि कहि पचिहारी कहति सूर घर कोउ नहीं कहां गई दईमारी॥६३॥ टोडी ॥ याघरमें कोउहै की नाहीं। बार बार बूझति वृक्षनको गोरस लैहौ कि नाही। आपुहि कहति लेहु नाहीं दधि और द्रुमन तर जाती। मिलति परस्पर विवस देखि तेहि कहति कहा इतराती॥ ताको कहति आपु सुधि नाहीं सो पुनि जानत नाहीं। सूरश्याम रसभरी गोपिका बनमें यो वितताही॥६४॥ रीती मटुकी शीशधरै। बनकी घरकी सुरति नकाहू लेहु दही यह कहत फिरै॥ कबहुँक जाति कुंज भीतरको तहां
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सूरसागर।
