पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३४७

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२५४) सूरसागर। - मांगि तब लीन्हो ॥ मोसों दूनो और नकोई । हरता करता मैंही सोई ॥ तुमसों सुत पयपान कराऊं। यह तुमसों मैं माँगे पाऊं ॥ मोसों सुत तुमको मैंदेहों । मथुरा जनमि गोकुलहि ऐहौं। नंद यशोदा वचन बँधायो । ताकारण देही धरि आयो। यह वाणी सुनि ग्वारि झुरानी । मीन भये मानो विन पानी ॥ इहै कथा तब गर्ग सुनाई । सोई आपु कहतरीमाई ॥ नरदेही कार मोहि नजानो । ब्रह्मरूप कार मोको मानो ॥ षोडश वरष मिले सुख करिहौं । मथुराजाइ देव उद्धरिहाँ ॥ केशगहे अरिकंस पछरिहौं । असुर कठोर यमुन लै डरिहौं ॥ रंगभूमि करि मल्लन मारौं । प्रबल कुवलियादतउपारौं ।। सुनहु नारि हरिमुखकी बानी । यह सुनि सुनि तरुणी विकलानी ॥ तन मन धन इनपर सब वारहु । जोवनदान देहु रिसि टारह ॥ षोडसवर्ष गए धौं जैहै । बजते जाइ मधुपुरी रैहै ॥ राजा उग्रसेनको करिहैं । कनकदंड आपुन कर धरिहैं । माता पिता वसुदेवदेवकीयशुमति धाइ कहतिहैं इनकी अब तिनके बंधन मोचहिंगे। दरशविना पनि हम लोचहिंगे। मथुरा नारिनके सुख दैहैं । तब घट प्राणकही क्यों हैं ॥ कहत हसी यह बात अयानी। जानतिहौ तुम कछुक सयानी॥ जोवन दान लेहिंगे तुमसों। चतुरायो मिलवतिहै हम सों। इनके गांस कहारी जानौ । इतनी कही एक जनिमानौ।। जो चाहै सो दीजै इनको । ज्योविन देखे रहत न जिनको ॥ आपु आपु यह बात विचारै । नारि नारि मन धीरजधारै ॥ आगे धरौ दूध दधि माखन । प्रथमहि यह कीजै संभाषन ॥ बड़े चतुर तुम अहो कन्हाई । तरुनि सवान कहि इहै सुनाई ॥ जानी बात तुम्हारे मनकी। दूरि नकीजै यह रिस तनकी ॥ सवनि धरयो दधि माखन आगे। लेहु सबै अब विनही मांगे ॥ तुम रिस करत देखि सुखपावें । याते वारहिवार खिझावें ॥ तनु जोवन धन अर्पन कीन्हों। मनदै मन हरिको सुख दीन्हों ॥ सुभगपात दोना लिए हाथनि । बैठे सखा श्याम एक साथनि।मोहन खात खवावत नारी। माँगिलत दधि गिरिवर धारी॥ आपुहि धन्य कहति ब्रजनारी । रुचिकर माँगि खात वनवारी ॥ और खाउ मोहन दधिदानी । यह कहि कहि तरुणी मुसुकानी ॥ सुखदीनो हार अंतर्यामी । ब्रज युवतिनके पूरनकामी ॥ देखत रूप थकित ब्रजनारी । देह गेहकी शुद्धि विसारी ॥ सूरश्याम सबके सुखका री। कह्यो जाहु घर पोषकुमारी॥६॥ रामकली ॥ युवती ब्रज घर जान विचारति । कबहुँक म टुकी लेत शीशपर कबहुँ धरणि फिरि धारति ॥ देखत श्याम सखा सब देखत चितैरही ब्रजनारि रीती मटुकिनिमें कछु नाही सकुचति मनहि विचारि॥ तब हँसि बोले श्याम जाहु घर तुमको भई अवार । सकुचति दान पाछिले को तुम मैं करिहौं निरवार ॥ यह कहिकै हार ब्रजहि सिधारे युव तिन दान मनाई । सूरश्याम नागर नारिनकी चितलै गए चुराई ॥ ६२ ॥ बिलावल ॥ अलहीआ ॥ रीती मटकी शीशलै चली घोषकुमारी । एक एककी सुधि नहींको कैसी नारी ॥ बनहीं में वेचति फिरै घरकी सुधि डारी । लोकलाज कुलकानकी मर्यादा टारी ॥ लेहु लेहु दधि कहति है वनसोर पसारी । द्रुम सब घर कार जानही तिनको दैगारी ॥ दूध दह्यो नहि लेहुरी कहि कहि पचिहारी कहति सूर घर कोउ नहीं कहां गई दईमारी ॥ ६३ ॥ टोडी ॥ याघरमें कोउहै की नाहीं । वार बार बूझति वृक्षनको गोरस लैहौ कि नाही । आपुहि कहति लेहु नाही दधि और द्रुमन तर जाती । मिलति परस्पर विवस देखि तेहि कहति कहा इतराती ॥ ताको कहति आपु सुधि नाहीं सो पुनि जानत नाहीं । सूरश्याम रसभरी गोपिकाबनमें यो वितताही॥६॥रीती मटुकी शीशधरै । वनकी घरकी सुरति नकाहू लेहु दही यह कहत फिरै ॥ कबहुँक जाति कुंज भीतरको तहाँ । -