पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३४८

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- दशमस्कन्ध १० (२६६) श्यामकी सुरति करै । चौक परति कछु तनु सुधि आवति जहां तहँ सखि सुनति रै तब यह कहति कही मैं इनिसों भ्रमि भ्रमि. वनमें वृथामरै ॥ सूरश्यामके रस पुनि छाकति वैसेही ढंग बहुरि ढरै ।। ६५ ॥ नट ॥ तरुणी श्यामरस मतवारि । प्रथम जोवन रस चढायो अतिहि भई खुमारि ॥ दूध नहि दधि नहीं माखन नहीं रीतो माट। महारस अंग अंग पूरण कहां घर कहां वाट॥मात पितु गुरुजन कहांको कौन पति को नारि । सुरप्रभुके प्रेम पूरन छकि रही वजनारि ॥६६॥ रामकली ॥ गोरसलेहुरी कोउ आइौद्धमनिसों यह कहति डोलति कौन लेइ वुलाइ।। कबहुँ यमुनातरिको सब जातिहै अकुलाइ । कबहुँ वंसीवट निकट जुरि होति ठाढी धाइ ॥ लेड गोरसदान मोहुन कहां रहे छपाइ । डरनि तुम्हारे जाति नाहीं लेत दह्यो छिड़ाइ ॥मांगिलीजै दान अपनो कहतिहै समुझाइ । आइहौ पुनि रिस करत हरि दह्यो देत वहाइ ॥ एक एकहि पात घूझत कहां गए कन्हाइ । सूर प्रभुके रंग राची जीव गयो भरमाइ ॥ ६७ ॥ नैतश्री ॥ वैठिगई मटुकी सब धरिकै । यह जानत अवहींहै आवत ग्वाल सखा सँग हरिकै ॥ अंचलसों दधिमाट दुरावति दृष्टिगई तहां परिकै । सवानि मटुकिया रीती देखी तरुनी गई भभीरकै ॥ कहि कहि उठी जहां तहँ सबमिलि गोरस गयो कहुँ टरिकै । कोउ कोउ कहै श्याम ढरकायो जानदेहरी जरिक। यहिमारग कोऊ जिनि आवहु रिसकरि चली डगरिकै । सूर सुरति तनुकी कछु आई उतरत काम लहारकै ॥ ६८॥ नट | चकृतभई घोपकुमारि। हम नहीं घर गई तवते रही विचारि विचारि ॥ घरहिते हम प्रात आई सकुचिवदन निहारि । कछु हँसति कछु डरति गुरुजन देतिकै हँगारि । जो भई सो भई हम कह रही इतनी नारि । सखासंग मिलि खाइदधि तवही गए वन वारि ॥ इहालौंकी बात जानति यह अचंभो भारि । इहे जानति सूरके प्रभु गए शिर कछुडारि॥ ॥६९॥ धनाश्री ॥ श्यामविना यह कोन करै । चितवतही मोहनी लगावत नेक हँसनिपर मनहि हरै ॥ रोकिरह्यो प्रातहि गहि मारग लेखो करि दधि दान लियो । तनुकी सुधि तवहीं ते भूली कछु पदिक शिर नाइदियो । मनके करति मनोरथ पूरण चतुरनारि एहिभांति कहै । सूरश्याम मन हरचो हमारो तेहिविनु कहु कैसे निवहै ॥ ७० ॥ मन हरिसों तनु घरहि चलावति । ज्यों गजमत्त जाल अंकुशकर पर गुरुजन सुधि आवति ॥ हरिरसरूप इहै मद आवत डरडारयो जु महावत । गेह नेह बंधन पगतारेयो प्रेम सरोवर धावत ।। रोमावली सूड विविकुच मनों कुंभस्थल छपिपावत । सुरश्याम केहरि सुनिके जोवन गजदर्प नवावत ॥७१ ॥ युवतीगई घर नेक नभावत मात पिता गुरु जन पूछत कछु और और बतावत।।गारीदेति सुनति नाह नेकहु श्रवन शब्द हरि पूरे। नननही देखत काहूको जो कह होहिं अधूरे ॥ वचन कहति हरिहीके गुनको उतही चरण चलावें। सूरश्याम विन और नभावे कोउ जितनो समुझावै ॥ ७२ ॥ सौरठ ॥ लोक सकुच कुलकानि तजी। जैसे नदी सिंधुको धावे तसे श्यामभजी॥ मात पिता बहु वास दिखायो नेक नडरी लजी । हारिमानि वैठे नहिं लागति बहुतै बुद्धि सजी ॥ मानतनहीं लोक मर्यादा हरिके रंग मजी । सूरश्यामको मिली चूने हरदी ज्यों रंग रजी ॥७३॥ वारवार जननी समुझावति । काहेको तुम जहँ तहँ डोलति हमको अतिहि लजावति ॥ अपने कुलकी खबरि करौधों सकुच नहीं जियावति । दधिवेचहु घर सूधे आवहु काहे झेर लगावति ॥ यह सुनिकै मन हर्ष बढायो तब इक बुद्धि वनावति । सुनि मैया दधि माट ढरायो तेहि डर वात नआवति । जान । देहि कितनो दधि डारयो ऐसे तव न सुनावति।सुनहु सूर यहि वात डरानी माता उरले लावति॥