पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३५२

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दशमस्कन्ध १० (२५९) चित जोरयो । लोकवेद तिनुकासोंतोरयो । १२०० ॥ सखीरी श्यामसों मन मान्यो । नीकेकरि चित कमलनैनसों पालि एको सान्यो । लोकलाज उपहास नमान्यो मति अपनेही आन्यो। यागोविंदचंदके कारन वैर सबनिसों ठान्यो।।अव क्यों जाति निवरि सखीरी मिलो येक पय पान्यो। सूरदास प्रभु मेरी जीवाने है पहिली पहिचान्यो ॥ १ ॥ नंदलालसों मेरो मन मान्यो कहाकरेगो कोईरी । मैंतो चरण कमल लपटानी जो भावै सो होईरी ॥ वाप रिसाइ माइ घरमारै हँसे विरानो लोगरी । अवतौ श्यामहिसों रतिवाढी विधिना रच्यो संयोगरी ॥ जाति महति पति जाइ नमेरी अरु परसोक नशाईरी। गिरिधर वरमैं नैक नछाँडो मिली निसान वजाइरी॥ बहारकवाह यह तनु धार पैहौ कहा पुनि श्रीवनवारीरी । सूरदास स्वामीके ऊपर यह तनुडारौं वारीरी॥२॥ सारंग ॥ करनदै लोगनको उपहास । मन कर्म वचन नंदनंदनको नैक नछाँडौंपास ॥ सवही याब्रजके लोग चिकनिया मेरे भाएघास । अवतो इहै वसीरी माई नहिं मानौंगी त्रास ॥ कैसे रह्यो परैरी सजनी एकगाँवको वास श्याम मिलनकी प्रीति सखीरी जानत सूरजदास ॥३॥ रामकली । येक गाउँको वास धीरज कैसेकै धरौं । लोचन मधुप अटक नहिं मानत यद्यपि जतन करौं ॥ वैयेहि मग नितप्रति आवतहैं हौं दधिले निकरौं । पुलकित रोम रोम गद गद सुर आनंद उमॅगिभरौं । पल अंतर चलिजात कलपवर विरहा अनल जरौं । सूर सकुच कुलकानि कहालगि आरजपथहि डरौं ॥ ४॥ मेरो मन हरि चितवान अरुझानो ! फेरत कमलद्वारकै निकसे करत शृंगारभुलानो॥ अरुन अधर दशननि द्युति राजति मोहन मुरि मुसकानों । उदधितनया सुत पांति कमलके महि वदन भुरके मानों ॥ सुभग कपोल लोल मणिकुंडल इह उपमा केहि वानों । उभयअंक अति पान अमीरस मीन असतविधि भानों । यह रस मगन रहति निशि वासर हारि जीति नहिं जानो । सूरदास चितभग होत क्यों जो जेहिरूप समानो ॥६॥ रामकली हों संग सॉवरेके जैहौं । होनी होइ सो हावै अवहीं यश अपयश काहूं न डरैहों ।। कहा रिसाइ करै कोउ मेरो कछु जो कहै प्राणतेहि देहों । देहौं त्यागि राखिहौं यह व्रत हार रति वीज बहुरि कव वैहौं । का यह सुर अजिर अवनी तनु तजि अगास पिय भवन समैहों। का यह ब्रजवापी क्रीडा जल भजि नँदनंद सबै सुख लेहोशाधनाश्री|तें मेरे हित कहत सहीरी।यह मोको सुधि भली दिवाई तनु विसरे मैं बहुत वहीरीजवते दान लियो हरि हमसों हँसि हँसिरी कछु बात कहीरी। काकेघर काके पित माता काके तनुकी सुराति रहीरी । अब समुझति कछु तेरी वाणी आई हौं लइ दही महीरी सुनहु सूर प्रातहिते आई यह कहि कहि जिय लाज गहीरी ॥ ७॥ सुनरी सखी बात एक मेरी। तोसो धरौं दुराइ कहौं केहि तू जानहि सब चितकी मेरी ॥ मैं गोरस ले जाति अकेली कालि कान्ह वहिया गही मेरी । हारसहित अचरा गहो गाढे एक कर गयो मटुकिया मेरी ॥ तव में क ह्यो खोझि हरि छोडहु टूटैगी मोतिन लर मेरी । सुरश्याम ऐसे मोहि रिझई कहा कहति तूमोसों मेरी॥८॥ तऊ न गोरस छाँड दयो । चहुँ फल भवन गयो सारंगरिपु वाजि धरा अथयो अमी वचन रुचि रचत कपटहठि झगरो फोर ठयो। कुमुदिन प्रफुलितही जिय सकुची लै मृगचंद जयो ॥ जानिशि सा शशिरूप विलोकत नवलकिशोर भयो । तपते सूर नेक नहिं छूटत मन अप नाइ लयो॥९॥ नट ॥ सखी वह गई हरिपै धाइ। तुरतही हरि मिलो ताको प्रगटकही सुनाइ। नारिएक अति परमसुंदरि वरन कापै जाइ । प्रातते शिरधरे मटुकी नंदगृह भरमाइ । लेहु लेहु । गोपाल कोऊ दह्यो गई भुलाइ । सूरप्रभु कहुं मिलें ताको कहति कार चतुराइ ॥१०॥ कान्हरो।