पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३५४

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दशमस्कन्ध-१० (२६) चलावत घरघर श्रवण सुनत जिय खुनसों ॥ भैनी मात पिता बंधव गुरु गुरु जन यह कहैं मोसों राधा कान्ह एक संग विलसत मनहींमन अपसोसों। कबहुँक कहौं सवनि परित्यागों वूझतिहौं अब गोसों । सुरश्याम दरशन विन पाये नयन देत मोहिं दोसों॥२० ॥ रामकली . ॥ वात यह तुमसों कहत लजाउँ । सुनि न जात घर घरको घेरा काहू मुख न समाउँ ॥ नर नारी सब इहै चलावत राधा मोहन येक । मात पिता सुनि सुनि अतित्रासत मैं येकै वे अनेक । आपु जवाहि द्वारकै निक सत देखत सबै सुगात । निंदति तुमहि सुनावति मोको सुनत ननेक सोहात ॥ धृग नर धृग नारी धृगजीवन तुमहि विमुख धृग देहासूरश्याम यह कोऊ नजानत तनुवैहै जरिखेहा॥२१॥गूजरीश्याम यह तुमसों क्यों न कहौं । जहाँ तहाँ घरपरको घेरा कौनी भांति सहौं। पिता कोपि करवार लेत कर बंधु वधनको धावै । मात कहै कन्या कुलको दुख जनि कोऊ जग जावै ॥ विनती एक करौं करजोरे यहि वीथिनि जिनिआवै । ये जन आपुनको जानत हैं ते जन जन्म नपावै॥मन कर्म वचन कहतिहौं सांची मैं मन तुमहि लगायो । सूरदास प्रभु अंतर्यामी क्यों नकरहु मनभायो ॥२२ ॥ रामकली । हँसि बोले गिरिधर रसवानी । गुरुजन खिझत कतहि रिसपावति काहेको पछितानी ॥ देहधरेको धर्म इहैहै सजन कुटुंब गृहप्रानी । कहन देहु कहि कहा करेंगे अपनी सुरति हिरानी ॥ लोकलाज काहेको छाँडात ब्रजही वसे भुलानी । सूरदास घट वैद्वैकरि मन ये भेद नहीं कछुजानी ॥२३॥ जयतश्री ॥ व्रजवास काके वोल सहों । तुम विन श्याम और नहिं जानों सकुचनि तुमहि कहौं । कुलकी कानि कहालौं करिहौं तुमको कहां लहौं । धृग माता धृग पिता विमुख तुव भाव तहां वहौं।कोऊ कर कहै कछु कोऊ हरप नसोक गहौं। सूरझ्याम तुमको विनु देखे तन मन जीव दहौं ॥ २४॥ ब्रजहि वसे आपुहि विसरायो । प्रकृति पुरुष एकै करि जानहु वातनि भेद करायो॥ जल थल जहाँ रहो तुम विनु नहि भेद उपनिपद गायो । द्वैतनु जीभ एक हम तुम दोऊ सुख कारण उपजायो॥ ब्रह्मरूप द्वितिया नहिं कोई तब मन त्रिया जनायो। सूरश्याम मुख देखिअल पहसि आनंद पुंज बढायो॥ २५ ॥ रामकली ॥ तव नागरि मन हरप भई । नेह पुरातन जानि श्यामको अति आनंदमई । प्रकृति पुरुप नारी पेपति काहे भूलि गई। को माता को पिता बंधु को यहतो भेटनई ॥ जन्म जन्म युग युग यह लीला प्यारी जानि लई । सूरदास प्रभुकी यह महिमा याते विवस भई ॥ २६ ॥ सुही ॥ सुनहु श्याम मेरी इक विनती । तुमहरता तुम करता प्रभुजू मात पिता कौने गनती ॥ गैवरभेटि चढावत रासभप्रभुता मेटि करतहिनती । अवलों करी लोक मर्यादा मानहु थोरहि दिनती ॥ बहुरि बहार वन जन्म लेतही इहलीला जानी किनती। सूरश्याम चरणनि ते मोको राखत रहे कहा मिनती ॥२७॥ धनाश्री ॥ देह धरेको यह फल प्यारी । लोकलाज कुलकानि मानिये डरिये बंधुः पिता महतारी॥ श्रीमुख कह्यो जाहु घर सुंदरि बड़े महर वृपभानुदुलारी । तुम अवसेर करत सवठ्ठहै जाहु वेगि देहै पुनिं गारी । हमहुँ जाहिं व्रज तुमहु जाहु अब गेह नेह क्यों दीजै डारी । सूरदास प्रभु कहत प्रियासों नेक नही मोते तुम न्यारी ॥ २८॥ धनाश्री ॥ देह धरेको कारण सोई । लोक लाज कुलकानि न तजिये जाते भलो कहै सब कोई।। मात पिताके डरको माने माने सजन कुटुंब सब लोई । तात मात मोहूको भावत तनुधरिकै मायावशहोई ।। सुनि वृपभानु सुता मेरीवानी प्रीतिं पुरातन राखहु गोई । सुरश्याम नागरिहि सुनावत मैं तुम एक नहींहो दोई ॥२९॥ सारंग ॥ अब कैसे दूजै हाथ विकाऊं। मन मधुकर कीन्हो वा दिनते चरण कमल निज ठाऊं ॥ जो जानों 3D