पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३५५

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(२६२) 'सूरसागर। औरकोई करता तऊ न मन पछिताऊं। जो जाको सोई सो जाने अवतारन नर नाऊं। जब परता ति होइया युगकी परमिति छुटत डेराऊ । सूरदास प्रभुसिंधु शरण तजि नदी शरन कत जाऊं ॥३०॥ विलावल ॥ घर पठई प्यारी अकमभार । कर अपने मुखपरसि त्रियाक प्रेमसहित दोऊ भुज धरिधरि ॥ सँग सुख लूटि हरषभई हृदय चली भवन भामिनि गजगति ढरि । अंग मरगजी पटोरी राजति छवि निरखत रीझत ठाठेहरि ॥ वेनी डुलति नितंबनि पर दोउ छीन लंक पर वारों केहरि । फिरि चितयो तब प्यारी पियतन दुहुँ मन आनंद हरष करि ॥ राधाहरि आधा आधा तनु येकेदैब्रजमेढ अवतरािसूरश्याम रस भरी उमॅग अंग वह छवि देखिरह्योरतिपति डरि॥३१॥ विलावल ॥ घरहि जाति मन हरष वढाये । दुख डायो सुख अंग भारभरि चली लूटि सो पाये ॥ भौंह सकोरति चलति मंदगति नेक वदन मुसुकाए । तहँ एक सखी मिली राधाको | कहति भयो मनभाए ॥ कुंजभवन हरि संग विलसि रस मनके सुफल कराए । सूरसुगंध सुनावन हारे कैसे दुरत दुराए ॥३२॥ नैतश्री ॥ कहा फूली आवतरी राधा। मानहुँ मिली अंक भार माधव प्रगटत प्रेम अगाधा । भ्रुकुटी धनुष नैन ररसाधे वदन विकास अगाधा । चंचल चपल चारु अवलोकनि कामनचावति ताधा ॥ जोह रस शिव सनकादि मगन भए शंभु रहत दिन साधा। सोरस दिये सूरप्रभु तोको शिवा न लहति अराधा ॥ ३३ ॥ सोरठ ॥ राधेसों रस वरनि नजाई । जा रसको सुरभान शीश दियो सो त पियो अकुलाई ॥ पचिहारे सब वाल कमलमुख चंद्रवदन ठहराई । अजहुँकमध फिरत तेहि लालच सुंदरि सैन बुझाई॥ मोहन ते रसरूप आगरी कटति नजानि निकाई। सूरदास पपिहाके मुखमें कैसे सिंधु समाई ॥३४॥ नट ॥ मोसों कहा दुरावति राधाकहां मिली नंदनंदनको जिन पुरयो मनको साधा। व्याकुलभई फिरतही अवहीं कामव्यथा तनुवाधापुलकित रोम रोम गदगद अब अंग अंग रूप अ गाधा ॥ नाहि पावत जोरस योगी जन तब तप करतसमाधा। सुनहु सूर तेहि रस परिपूरन दूरि कियो तनुदाधा ॥३६॥ आसावरी ॥ कहा कहति तू भईवावरी॥तू हँसि कहति सुनै कोउ और कहा कीन्हों चाहति उपावरी ॥ सोतो सांच माहि यह लैहै हमहि तुमहि बाते सुभावरी । मेरी प्रकृति भलै करि जानति मैं तोसों करिहौं दुरावरी ॥ ऐसी कैसे होइ सखीरी पर पुनि मेरोहै वचावरी सूर कहति राधा सखी आगे चकितभई सुनि कथा रावरी ॥ ३६॥ सारंग ॥ श्याम कौन कारेकी गोरे। कहा रहत काके वै ढोटा वृद्ध तरुणकी वोभोरै ।। यहँई रहत कि और गाउँ कहुँ मैं देखे नाहिन कहुँ.उनको। कहै नहीं समुझाइवात इह मोहि लगावति हो तुम जिनकोकहारहों मैं वैधौं। कहांके तुम मिलवतिही काहे ऐसी । सुनहु सूर मोसी भोरीको जोरि जोरि लावतिहौ कैसी | ॥३७॥ जाहुचली मैं जानी तोको । आजहि पढि लीन्ही चतुराई कहा दुरावति मोको ॥ एही बज तुम हम नँदनंदनहूँ दूरि कतहुँनहिं जैहैं । मेरे फंग कबहुँतौ परिहौ मुजरा तबहीं हैं। उनहि मिले वितपन्नभई अब वै दिन गए भुलाइ । सूरश्याम सँगते उठि आई मोसों कहति दुराइ ॥३८॥ सोरठा ॥ हँसत कहत कीधौं सतभाव । तेरीसों मैं कछू न समुझति कहा कह्यो मोहिं बहुरि सुनाव मेरी शपथ तोहिरी सजनी कबहूँ कछु पायो यहि भाउ । देख्यो नयन सुन्यो कहु श्रवणनि झूठे कहति फिरतिहौ दाउ ॥ यह कहती और जो कोऊ तासों में करती अपडाउ । सूरदास यह मोहि लगावति सपनेहु जासों नहिं दरशाउ ॥३९॥ धनाश्री ॥ राधे तेरो वदन विराजतनीको। जब तू इतउत बैंक विलोकति होत निशापति फीको।भुकुटी धनुष नैन शरसाधे शिरकेसरिको टीको। ।