पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३५६

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दशमस्कन्ध-१० (२६३) - - - मनु धूपटपट में दुरि बैठो पारधिपति रतिहीको गति मैं मंत नागज्यों नागरि करे कहतिही लीको। । सूरदास प्रभु विविध भांति करि मन रिझयो हरिपीको नागरी। राजति राधे अलकभलीरी। मुक्तामांग तिलक पन गनि शिर सुत सेमत भपलेन चलीरी।। कुमकुम आड श्रवत श्रमजलमिलि मधु पीवत छविछीट चलीरी । चारु उरोज ऊपर यो राजत अरुझे अलिकुल कमलकलीरी ॥ | रोमावली विवली उर परशत पंशवढे नट काम बलीरी। प्रीति सोहाग भुजा शिरमंडन जवन सघन विपरीत कदलीरीजावक चरण पंचश रसायक समरजीति ले शरन चलीरी । सूरदास प्रभुको सुखदीन्हो नख शिख राधे सुखनि फलीरी॥४१॥रामगाली सजनी कत यह वात दुरेहोऐिसी मोहि कहे जिनि कबहुं झूठे पर दुखपेहीतात प्रीतम और कोनहे जाके आगे कहाँ। मोको उचठा एक छपही पहरि नाउँ नहि लहों। यह परतीति नहीं जिय तेरे सो कहा तोहि चुरेहों । सूरश्याम धों कहां रहतह काहेको तहां जेहों ।। १२ ।। धनाश्री ॥ चतुर सखी मन जानि लई । मोसो तो दुराव यह की न्हों याके जिय कछुवास भई ॥ तब यह कह्यो हँसतरी तोसों जिनि मनमें कछु आने। मानी बात कहाँ कहाँ तू हमहूँ उनहि नजाने । अवे तनक तू भई सयानी हम भागेकी बारी । सूरश्याम ब्रजमें नहिं देखे हँसत करो घर जारी ॥ १३ ॥ बिलागल ॥ सकुच सहित घरको गई वृपभानु दुलारी। महरि देखि तासों कयो कह रहीरी प्यारी । पर तोहि नैक नदेखऊँ मेरी महतारी। डो टत लाज न आवई अजहूँ हे पारी ॥ पिता आजु रिस करतहे देदे कहे गारी। सुता बडे वृपभानु की कुलसोवनहारी ॥ पंधर मारन कहतह तेरे ढगकारी । सूरझ्याम सँग फिरतिई जोवन मतवारी ॥४४॥ गुरगटार || कहारी कहति तू मातु मोसों। ऐसे पहिगईको श्याम संग फिर जो वृथा रिस करति कहा कहों तोसों ॥ कही कोने वात बोलिये तेहि मात मेरे आगे कहे ताहि देखो।तात रिस फरत भ्राता कहे मारिहों भीति पिन चित्र तुम करति रेसो ॥ तुमहु रिस करति कछु कहा मोदि मारिहो धन्य पितु भ्रात मात अरुही । ऐसे लायक नंदमहरको सुत भयो तिनहि मोहि कहति प्रभु सूर सुनहीं ॥ ४५ ॥ गनरी || काहेको परपर छिन छिन जाति । गृहमें डाटि देति शिपजननी नाहिन नेक डराति ।। राधा कान्ह कान्ह राधा बन हरदो अतिहि लजाति । अब गोकुलको जैवो छाँटा अपयशहू न अघाति ।। तू वृपभानु वढेकी बेटी उनके जाति न पांति । सूर सुता समुझा वति जननी सकुचत नहिं मुसकाति ॥ ४६॥ मान्दरी ॥ खेलनको में जाउँ नहीं। और लरिकनी घर पर सेलति मोदीको पे कहति तुदी। उनके मात पिता नहिं कोई खेलति डोलति जही तही । तोसी महतारी बाहि जाई नमें रहो तुमही चिनही ।। कबहूं मोको कछू लगावति का? कहति जिन जाहु कही। सूरदास बातें अनसोही नादिन मोपे जात सही ।। ४७ ॥ मारंग | मनही मन झिनि महतारी । कहा भई जो पाटि तनकगई अवहीं ता मेरीह पारी । झूठेही यह बात उही राधा कान्ह कहत नर नारी । रिसकी बात सुताके मुखकी सुनत हँसी मनही मन भारी ॥ अवलों नहीं कह इहि जान्यो खेलत देखि लगाये गारी । सूरदास जननी उर लायति मुखनुमति पोछति रिसटारी ॥४८॥ यहा ॥ सुता लये जननी समुझावति । संग बिटि निमनके मिलि खेलो श्याम साथ सुनि सुनि रिसपावति ॥ जाते निंदाहोइ आपनी जाते कुलको गारी आवति । सुनि लाडिली कहति यह तासों तोको याते रिस करि धावति ॥ अव समुझी में बात सबनकी झटही यह बात उठायति । सूरदास सुनि सुनि यह पाते राधा मन अतिहरप बढ़ा पतिः ॥१९ ॥ नट ॥ राधा विनय करति मनहीं मन सुनहं श्याम अंतरके यामी। मात पिता कुल । - - - - -