कौन तोसी प्रिय तोसों बात दुरैहौं। सूर कही राधा मो आगे कैसे मुख दरौहौं॥ ५९॥ गौरी ॥ वह निधरक मैं सकुचि गई। तब यह कह्यो जाहि घर राधा मैं झूठी तै सांच भई॥ त्योंरीभौंह नमोतन चितवै नैकरहों तो करै खई। कामभंडार लूटि नीके करि निदरिगई मैं चकृतभई॥ घरधौं जाइ कहा अब कैहै अब कछु अवरै बुद्धि नई। सूरश्यामअंग संग रंँग राची मनमानो
सुख लूटि लई॥६०॥ विलावल ॥ सुनि सुनि बात सखी मुसकानी। अबहीं जाइ प्रगट करि दैहैं कहा रहै यह बात छपानी॥ औरनिसों दुराव जो करती तौ हम कहती भली सयानी। दाई आगे पेट दुरावति वाकी बुद्धि आज मैं जानी॥ हमजातहि वह उघरि परैगी दूध दूध पानीसो पानी। सूरदास अब करति चतुरई हमहि दुरावति बातन ठानी॥६१॥ रामकली ॥ अपनो भेद तुम्हैं नहिंकैहै। देखहु जाइ चरित तुम वाके जैसे गाल बजैहै॥ बडे गुरूकी बुद्धि पढी वहकाहू को न पत्यैहै। एकौ बात मानिहै नाहीं सबकी सौहैं खैहै॥ मैं नीके करि बूझि रहीहौं अब बूझैरिस पैहै। सुनहु सूर रस छकी राधिका बातन बैर बढैहै॥६२॥ विलावल ॥ कहा वैर हमसों वह करिहै। वाकी जाति भले कर पाई हमको कहा निदरिहै। कैहै कहा चोरटी हमसों बातैं बात उघरिहै। दूरिकरौं लँगराई वाकी मेरेफंग जो परिहै॥ हमसों वैर किये कहा पैहै काज कहा पुनि सरिहै। सूर
दास मटुकी शिरलीन्हें बहुरि वेसही रहिहै॥६३॥ चलहु सखी जैये राधा घर। बूझे वात कहाधौं कैहै निधरकहै कीधौं मनमें डर॥ कीधौं हमहि देखि भजि जैहै की उठि हमको मिलिहै। कीधौं बात उघारि कहैगी की मनहीमन गिलिहै॥ कीधौं हँसिवोलै की रिसकरि कीधौं सहज सुभाई। कीधौं सूरश्याम रसमाती जोवन गर्व बढाई॥६४॥ युवती जुरि राधा ढिग आई। लखिलीनी तब चतुर नागरी ये मोपर सबहैं रिसहाई॥ आदरनहीं कियो काहूको मनमें एक बुद्धि उपजाई। मौनगह्यो नहिं बोलति तिनसों बैठिरही करिकै चतुराई॥ आपुहि बैठिगई ढिग सिगरी जब जानी यह तौ चतुराई। सूरदास वे सखी सयानी और कहूंकी बात चलाई॥६६॥ जयतश्री ॥ चतुर चतुरकी भेट भई। वैतौ निठुर मौनह्वै बैठी इन सबहिन लखि ताहि लई॥ मुहाचही युवतिन तब कीन्हीं देखौ उलटी रीति भई। कहा हमारो मन यह राखै अरु हमही पर सतरगई॥ वूझहु याहि
खूट धरिकै तू कहा आजु यह मौन लई। सुनहु सुर हमसों कहा परदा हम करिदीन्ही साठसई॥॥६६॥ गुंड ॥ राधिका मौनव्रत किन संधायो। धन्य ऐसो गुरू कानके लागतही मंत्रदै आजुही वह लखायो॥ कालि कछु और प्रातहि कछु औरही अबहि कछु और ह्वैगईप्यारी। सुनत यह बात दौरिआई सबै तोहिं देखत भई चकृत भारी॥ अब कहो बात या मौनको फल कहा सुनि जुलीजै कछु हमहु जानै। एकही संग भई सबै जोवन नई, अब होहु गुरु हम तुमहि मानै॥ देहिं उपदेश हमहूं धरै मौन सब मंत्र जब लियो तब हम नबोली। सूर प्रभुकी नारि राधिका नागरी चरचि लीन्हो मोहि करति ढोली॥६७॥ मारू ॥ की गुरु कहौ कि मौनै छांडौ। हमहिं मूरख वदति आपुएढंग सदति पाइअब मदति हठ कतहिमाडौ। एकही संगहम तुमसदारहतिहैं आजुहीचटकितूभई न्यारी। भेद हमसों कियो और कोऊ वियो कहा धौ कहैं कहा देहि गारी॥ कहा तोही भयो तेरी प्रकृति कौनहरी गति यह नई तैही चलायो। सूर सुनि नागरी गुणनकी आगरी निठुरईसो बात कहिसुनायों॥६८॥ गौरी ॥ तुम प्रीतम की बैरनि मेरी। वासों कहति मिली जो मारग यह मोसों अति कही अनेरी॥ अहति कहा श्यामहि मिलिआई मैं चकि रही सौंह मोहिं तेरी। मेरे अंग छवि और कहति कछु युवती सुनत रही मुख हेरी॥ मैं जिनको सपनेहून देखे तिनकी बात कहत फिरि फेरी। सूरदास गुणभरी
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दशमस्कन्ध-१०
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