पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३५८

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. दशमस्कन्ध-१० (२६५) कौन तोसी प्रिय तोसों वात दुरैहौं । सूर कही राधा मो आगे कैसे मुख दरौहौं ॥ १९ ॥ गौरी ॥ वह निधरक मैं सकुचि गई। तब यह कह्यो जाहि घर राधा मैं झूठी ते सांच भई ॥ त्योरीभौंह नमोतन चितवै नैकरहों तो करै खई 1. कामभंडार लूटि नीके करि निदरिगई: मैं चकृतभई । घरधौं जाइ कहा अव कैहै अब कछु अवरै बुद्धि नई । सूरश्यामअंग संग रंग राची मनमानो सुख लूटि लई ॥६० ॥ विलावल ।। सुनि सुनि वात सखी सुसकानी । अवहीं जाइ प्रगट कार दै कहा रहै यह वात छपानी । औरनिसों दुराव जो करती तो हम कहती भली सयानी । दाई आगे पेट दुरावति वाकी बुद्धि आज मैं जानी ॥ हमजातहि वह उपार परेगी दूध दूध पा नीसो पानी । सूरदास अब करति चतुरई हमहि दुरावति वातन ठानी ॥६१ ॥ रामकली ॥ अपनो भेद तुम्हें नहिकहै । देखहु जाइ चरित तुम वाके जैसे गाल वजैहै ॥ वडे गुरूकी बुद्धि पढी वह काहू को न पत्यैहै । एकौ बात मानिहै नाही सबकी सौह खैहै। मैं नीके कार बूझि रहीहौं अब बूझै रिस पैहै। सुनहु सूर रस छकीराधिका वातन वैर वहै।।६२शविलावल॥ कहा वैर हमसों वह करिहै। वाकी जाति भले कर पाई हमको कहा निदरिहै । कहै कहा चोरटी हमसों बातें वात उपरिहै । दू रिक लँगराई वाकी मेरेफंग जो परिहै ॥ हमसों वैर किये कहा पैहै काज कहा पुनि सरिहै । सूर दास मटुकी शिरलीन्हें बहुरि वेसही रहिहै ॥६३॥ चलहु सखी जैये राधा घर । बूझे वात कहाधौं । कहै निधरकहै कीधौं मनमें डर ॥ कीधौं हमहि देखि भजि जैहै की उठि हमको मिलिहै । कीधौं वात उघारि कहेगी की मनहीमन गिलिहै ॥ कीधौ हँसिवोले की रिसकरि कीधौं सहज सुभाई । कीधौं सूरश्याम रसमाती जोवन गर्व वढाई ॥ ६४ ॥ युवती जुरि राधा ढिग आई। लखिलीनी तव चतुर नागरी ये मोपर सवहैं रिसहाई ॥ आदरनहीं कियो काहूको मनमें एक, बुद्धि उपजाई । मौनगयो नहिं बोलति तिनसों वैठिरही करिकै चतुराई ॥ आपुहि वैठिगई ढिग सिगरी जब जानी यह तौ चतुराई । सूरदास वे सखी सयानी और कहंकी वात चलाई ॥६६॥ जयतश्री ॥ चतुर चतुरकी भेट भई । वैतौ निठुर मौन बैठी इन सवहिन लखि ताहि लई । मुहाचही युवतिन तव कीन्हीं देखौ उलटी रीति भई। कहा हमारो मन यह राखै अरु.हमही पर सतरगई ॥.वूझहु. याहि खूटं धरिकै तू कहा आज यह मौन लई । सुनहु सुर हमसों कहा परदा हम करिदीन्ही साठसई॥ ॥६६॥ गुंड । राधिका मौनव्रत किन संधायो। धन्य ऐसो गुरू कानके लागतही मंत्रदै आजुही वह लखायो॥ कालि कछु और प्रातहि कछु औरही. अवहि कछु और ढगईप्यारी,। सुनत यह वात दौरिआई सबै तोहिं देखत भई चकृत भारी ॥ अव कहो बात या मौनको फल कहा सुनि जुलीजैः कछु,हमहु जाने । एकही संग भई सवैः जोवन नई, अव होहु गुरु हम तुमहि मानै ॥ देहिं उपदेश हमहूं धरै मौन सब मंत्र जब लियो: तब हम नवोली । सूर प्रभुकी नारि राधिका. नागरी चरचि लीन्हो मोहि करति ढोली।।६७॥ मारू ॥ की गुरु कहाँ कि मौन छोडौ । हमहि मूरख वंदति आपुएढंग सदति पाइअव मदति हठकतहिमाडौएकही संगहम तुमसदारहतिहैं आजुहीचटकितूभई न्यारीभिद हमसों.कियो और कोऊ वियो कहा धौ कहैं कहा देहि गारी।कहा तोही भयो तेरी प्रकृति कौनहरी गति यह नई तेही चलायो।सूर सुनि नागरी गुणनकी आगरी निठुरईसो वात कहिसुनायों ॥६८॥ गौरी ॥ तुम प्रीतम की वैरनि मेरी । वासों कहति मिली जोमारग यह मोसों अति कही नेरी॥ अहति कहाश्यामहि मिलिआई मैं चाक रही सौंह मोह तेरी। मेरे अंग छवि और कहति कछ. युवती सुनत रही मुख हेरी।मैं जिनको सपनेहून देखेतिनकी बात कहत फिार फेरी।सूरदास गुणभरी ॥ - ma-