पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३६१

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-- - - - (२६८) सूरसागर। आगरी घोष उजागरी श्याम प्यारी । जुरीं ब्रजसुंदरी दशनछवि कुंदरी काम तनु दुंदरी करण हारी ॥ अंग अंग सुभग अति चलात गजगति कृष्णसोएकमति यमुनजाही । कोऊ निकास जाति कोऊ ठठकि ढाढी रहति कोऊ कहति संग मिलि चलहु नाही ॥ युक्ती आनंद भरी भई जुरिकै खरी नहीं छरहरी उठि वसै थोरी । सूरप्रभु सुनि श्रवन तहां कीन्हों गवन तरुणि मन रखन सब ब्रजकिसोरी ॥ ८९॥ नटनारायण ॥ गई व्रजनारि यमुनातीर । देखिलहरि तरंग हरपी रहत नहिं मनधारासिंग राजति कुँवार राधा भई सोभा भी। स्नानको वे भई आतुर सुभग जलगंभीर। कोज गई जल पैठि तरुनी और ठाठी तीर । तिनहि लई वोलाइ राधा करति सुख तनकीर ॥ एक एकहि धरति सुजभार एक छिरकति नीर । सूर राधा हँसति वाढी बढी छवि तन चीर॥१०॥ जयतश्री ॥ राधा जल विहरत सखियन संग । ग्रीवप्रयंतनीरमेंठाढी छिरकत जल अपने. अपने रंग ॥ मुख भरि नीर परस्पर डारति सोभा अतिहि अनूप वढी तव । मनहु चंद्र गन सुधा गई खनि डारतहै आनंद भरे सब ॥ आई निकासि जानु कटिलों सव अँजुरिनते जलडारत । मनहुँ सुर कनकवल्ली जुरि अमृत पवन मिसझारत ॥ ९१ ॥ नट || यमुनाजल विहरत ब्रजनारी। तट ठाढे देखत नँदनंदन मधुर मुरलि करधारी ॥मोरमकुट श्रवणन मणिकुंडल जलजमाल उर भ्राजत सुंदर सुभग श्याम तनु नव घन विच वगपांति विराजत । उर वनमाल सुभग बहुभांतिनुश्चेत लाल सित पीत। मनों सूर सरितटि बैठे शुक वरनत वरन जिभीतापीतांवर कटि छुद्रावलि वाजत परम शब्द रसाल । सूरदास मनों कनक भूमि ढिग बोलत रुचिर मराल ॥ ९२ ॥ विहागरो॥ नटवर भेष काछे श्याम । पद कमल नख इंदु सोभा ध्यान पूरण काम ॥ जानु जंघ सुघटन कर भा नाहि रंभा तूल । पीतपट काछनी मानहुँ जलजकेसर झुल ॥ कनक छुद्रावली पंगति नाभि कटिके भीर। मनहुँ हंस रसाल पंगति रहेहैं हृद तीर॥ झलक रोमावली सोभा ग्रीव मोतिनहार। मनहु गंगा वीच यमुना चलीमिलि त्रियधारावाहुदण्ड विसाल तट दोउ अंग चंदनु रेनु । तीर तरु वनमालकी छवि ब्रजयुवति सुखदेहु । चिबुक पर अधरानि दशनाति वितु वीज जलाइ। नासिका शुक नयन खंजन कहत कवि सरमाइ ॥ श्रवण कुंडल कोटि रवि छवि भ्रुकुटि काम कोदंड । सूर प्रभुहै नीपके तर शीश धरे श्रीखंड ॥ ९३ ॥ पूरवी ॥ उपमा धीरज तज्यो निरखि छवि । कोटि मदन अपनो वल हारयो कुंडल किरनि बीच जो छप्योरवि।। खंजन कंज म धुप विधु तडिघन दिनकर रहत कहूवे दवि । हरिपटतरदै हमहि लजावत सकुचनहीं आवत | खोटै कवि ।। अरुन अधर दशनान दुति निरखत विद्यम शिखर लजानेसव । सूरश्याम आछे वपु काछे पटतर मेटि विराने अव ॥ ९॥ गौरी ॥ उपमा हरि तन देखि लजाने । कोउ जलमें कोउ वनमें रहे दुरि कोऊ गगन समाने ॥ मुख निरखत शशिगयो अंबरको तडित दशन छवि हेरो। मीन कमल करचरन नयन डर जलमो कियो वसेरो ॥ भुजादेखि अहिराज लजाने विवरानि पैठे धाइ। कटिनिरखत केहार डर मान्यो वन वनरहे दुराइ ॥ गारीदेहि कविनके वर्णत श्रीअंगपटतर देत । सूरदास हमको विरमावत नाउँ हमारो लेत॥९५ ॥ सारंग ॥ ऐसे गोपाल निरखि तिल तिल तनु वारौं । नवकिसोर मधुरमूरति सोभा उर धारौं ॥ अरुण तरुण कंज नयन मुरली कर राजै। ब्रजजन मन हरन वेन मधुर मधुर वाजै । ललितवर त्रिभंग सुतन वनमाला सौहै । अति सुदेश कुसुम पाग उपमाको कोहै ॥ चरण रुनित नूपुर कटि किंकिनि कलकूनै। मकराकृत कुंडल छवि सूरकौन पूजे ॥९६॥ कान्हरो ॥ वनि मोतिनकी माल मनोहर । सोभित श्यामसुभग उर ऊपर |