आगरी घोष उजागरी श्याम प्यारी। जुरीं ब्रजसुंदरी दशनछवि कुंदरी काम तनु दुंदरी करणहारी॥ अंग अंग सुभग अति चलात गजगति कृष्णसोएकमति यमुनजाही। कोऊ निकसिजाति कोऊ ठठकि ढाढी रहति कोऊ कहति संग मिलि चलहु नाही॥ युक्ती आनंद भरी भई जुरिकै खरी नहीं छरहरी उठि वसै थोरी। सूरप्रभु सुनि श्रवन तहां कीन्हों गवन तरुणि मन रखन सब ब्रजकिसोरी॥८९॥ नटनारायण ॥ गई ब्रजनारि यमुनातीर। देखिलहरि तरंग हरषी रहत नहिं मनधरि॥ सिंग राजति कुँवरि राधा भई सोभा भीर। स्नानको वे भई आतुर सुभग जलगंभीर॥ कोऊ गई जल पैठि तरुनी और ठाठी तीर। तिनहि लई बोलाइ राधा करति सुख तनकीर॥ एक एकहि धरति भुजभरि एक छिरकति नीर। सूर राधा हँसति बाढी बढी छबि तन चीर॥१०॥ जयतश्री ॥ राधा जल विहरत सखियन संग। ग्रीवप्रयंतनीरमेंठाढी छिरकत जल अपने अपने रंग॥ मुख भरि नीर परस्पर डारति सोभा अतिहि अनूप बढी तब। मनहु चंद्र गन सुधा गई खनि डारतहै आनंद भरे सब॥ आई निकासि जानु कटिलों सब अँजुरिनते जलडारत। मनहुं सुर कनकवल्ली जुरि अमृत पवन मिसझारत॥९१॥ नट ॥ यमुनाजल बिहरत ब्रजनारी। तट ठाढे देखत नँदनंदन मधुर मुरलि करधारी॥ मोरमकुट श्रवणन मणिकुंडल जलजमाल उर भ्राजत सुंदर सुभग श्याम तनु नव घन विच वगपांति विराजत। उर वनमाल सुभग बहुभांतिनुश्वेत लाल सित पीत। मनों सूर सरितटि बैठे शुक वरनत वरन जिभीत। पीतांबर कटि छुद्रावलि बाजत परम शब्द रसाल। सूरदास मनों कनक भूमि ढिग बोलत रुचिर मराल॥९२॥ विहागरो ॥ नटवर भेष काछे श्याम। पद कमल नख इंदु सोभा ध्यान पूरण काम॥ जानु जंघ सुघटनि करभा नाहि रंभा तूल। पीतपट काछनी मानहुँ जलजकेसर झुल॥ कनक छुद्रावली पंगति नाभि कटिके भीर। मनहुँ हंस रसाल पंगति रहेहैं हृद तीर॥ झलक रोमावली सोभा ग्रीव मोतिनहार। मनहु गंगा बीच यमुना चलीमिलि त्रियधार॥ बाहुदण्ड विसाल तट दोउ अंग चंदनु रेनु। तीर तरु वनमालकी छबि ब्रजयुवति सुखदेहु। चिबुक पर अधरानि दशनाति बिंवु बीज जलाइ। नासिका शुक नयन खंजन कहत कवि सरमाइ॥ श्रवण कुंडल कोटि रबि छबि भ्रुकुटि काम कोदंड। सूर प्रभुहै नीपके तर शीश धरे श्रीखंड॥९३॥ पूरवी ॥ उपमा धीरज तज्यो निरखि छबि। कोटि मदन अपनो बल हारयो कुंडल किरनि बीच जो छप्योरवि॥ खंजन कंज मधुप विधु तडिघन दिनकर रहत कहूंवे दवि। हरिषटतर दै हमहि लजावत सकुचनहीं आवत खोटै कवि॥ अरुन अधर दशननि दुति निरखत विद्रुम शिखर लजानेसब। सूरश्याम आछे वपुकाछे पटतर मेटि विराने अब॥९४॥ गौरी ॥ उपमा हरि तन देखि लजाने। कोउ जलमें कोउ वनमें रहे दुरि कोऊ गगन समाने॥ मुख निरखत शशिगयो अंबरको तडित दशन छबि हेरो।
मीन कमल करचरन नयन डर जलमो कियो वसेरो॥ भुजादेखि अहिराज लजाने विवरानि पैठेधाइ। कटिनिरखत केहार डर मान्यो वन वनरहे दुराइ॥ गारीदेहि कविनके वर्णत श्रीअँगपटतर देत। सूरदास हमको विरमावत नाउँ हमारो लेत॥९५ ॥ सारंग ॥ ऐसे गोपाल निरखि तिल तिल तनु वारौं। नवकिसोर मधुरमूरति सोभा उर धारौं॥ अरुण तरुण कंज नयन मुरली कर राजै। ब्रजजन मन हरन वेन मधुर मधुर बाजै। ललितवर त्रिभंग सुतन वनमाला सौहै। अति सुदेश कुसुम पाग उपमाको कोहै॥ चरण रुनित नूपुर कटि किंकिनि कलकूजै। मकराकृत कुंडल छबि सूरकौन पूजै॥९६॥ कान्हरो ॥ वनि मोतिनकी माल मनोहर। सोभित श्यामसुभग उर ऊपर
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३६१
दिखावट
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२६८)
सूरसागर।
