मनो गिरिते सुरसरी धसीधर॥ तट भुजदंड भौंर भृगु रेखा चंदन चित्रित रंगनि सुंदर। मणिकी किरणि मीन कुंडल छबि मनों मकर मिलन आवत त्यागे सर॥ ता उपर रोमावलि राजत मणिवर तीखन ज्योति सितावर। संतहि ध्यान स्नान करत नित कर्मकीच धोवे तनि केंकर॥ यज्ञोपवीत विचित्र सूर प्रभु सुनि मध्यधार धारा जो वानीवर। शंख चक्र गदा पद्म पानि मनो कमल कुलहं
सनि कीन्हे घर॥ नटनारायण ॥ राधे निरखि भूली अंग। नंदनंदन रूप पर गति मति भई तनुपंग॥ इत सकुच अति सखिनको उत होत अपनी हानि। ज्ञानकरि अनुमान कीन्हो अबहि लैहैजानि॥ चतुर सखियन परखिलीन्ही समुझि भई गँवारि। सबै मिलि इत न्हान लागीं ताहि दियो विसारि॥
नागरी मुख श्याम निरखत कबहुँ सखियन हेरि। सूर राधा लखति नाहीं इन दई अबटेरि॥९७॥ कान्हरो ॥ जब जान्यो ये न्हाति सबै। हरि प्रति अंग अंगकी सोभा अँखियन मगहै लेउ अबै॥ कम लकोसमें आनि दुरावो बहुरि दरशधौं होइ कबै। यह मन करि युवतिन तनु हेरति सकुचतिहै
पुनि नहीं फवै॥ कबहुँक कहै तजौ मर्यादा इनिसों मैं करि गोप तवै। सूरश्याम तबहीं मन मानैसगहि रैहौं जाइ जबै॥ गौरी ॥ चित राधारतिनागर ओर। नयनवदन छबियों उपजत मानों शशि अनुराग चकोर॥ सारससर अचवनको मानहु फिरत मधुप युगजोर। पान करत त्रिय तन मानत पलक नदेत अकोर॥ लिये मनोरथ मानि सकल ज्यों रजनि गए पुनि भोर। सूर परस्पर प्रति निरंतर दंपति है चितचोर॥ कल्याण ॥ यह कछु भोरोहि भाइ भई। निरखत वदन नंदनँदनको अब रहती सो गई॥ हिरदैजामि प्रेम अंकुर जार सप्त पतार गई। सो द्रुम पसार शिखर अंबरलों सब जग छाइ लई॥ वचन सुपत्र वकल अवलोकनि गुननिधि पुहुप मई। परस परम अनुराग सींचि सुख लगी प्रमोद जई॥ मनके सकल मनोरथ पूरण सेमर भार नई। सूरदास फल गिरिधर नागर मिलि रसरीति ढई॥ रामकली ॥ चितवनि रोकेहूं नरही। श्याम सुंदर सिंधु सन्मुख सरित उमागे वही। प्रेम सलिल प्रवाह भँवरनि मिलि कबहुँ न थाह लही। लोभ लहरि कटाक्ष घूंघट पट करार ढही॥ थके पल पथ नाव धीरज परत नहिन गही। हिलि मिलि सूर स्वभाव श्यामहि फेरीहू न चहीं॥ जैतश्री देखी हरिराधा उत अटकी। चितैरही एकटक हरिही तन नाजानिये कौन अंग लटकी॥ कालिहमो कैसे निदरतिही मेरे चित वह टरति न खटकी। न्हातरही कैसे संग मिलिकै चित चंचल विरहाकी
चटकी॥ बात करत तुलसी मुख मेलै नयन शयनदै मुँह मटकी। सूरश्यामके रूप भुलानी राधाके चित सुधि न घटी॥४०॥ विलावल ॥ चितै रही राधा हरिको मुख। भ्रुकुटी विकट विसाल नयन युग देखत मनहि भयो रतिपति दुख॥ उतहि श्याम एक टक प्यारी छवि अंग अंग अवलोकत। रीझि
रहे उत हरि इत राधा अरस परस दोउ नोकत॥ सखिन कह्यो वृषभानु सुतासों देखे कुवँर कन्हाई। सूरश्याम एई हैं ब्रजमें जिनकी होति बड़ाई॥४१॥ रामकली ॥ हमहि कह्यो हो श्याम देखावहु।
देखह दरश नयन भरि नीके पुनि पुनि दरशन पावहु॥ बहुत लालसा करत रही तुम वे तुम कारण आए। पूरी साध मिली तुम उनको याते हमहिं बोलाये॥ नीके सगुण आजु ह्यां आई भयो तुम्हारो काज। सुनहु सूर हमको कछु दैहौ तुमहि मिले ब्रजराज॥४२॥ राधा कह्यो आजु इनजानी। बारबार मैं हरि तन चितई तबही ये मुसकानी॥ कालि कह्यो मैं इन सों वैसे अबतो बात न ठानी। इह चतुरई परी मोही पर मन मन अतिहि लजानी॥ मेरी बात गई इनि आगे अबहि कराते विनपानी। सूरदास प्रभु कहा कहौंमैं तू अब हाथ विकानी॥४३॥ विलावल ॥ मैं अतिही यह पोचकरी। ये मेरी मर्यादा लैंहैं तादिन इनिसों बहुत लरी॥ सुंदर श्याम कमलदल लोचन तुम अब
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दशमस्कन्ध-१०
