पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३६२

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दशमस्कन्ध-१० (२६९) | मनो गिरिते सुरसरी धसीधर ॥ तट भुजदंड भौर भृगु रेखा चंदन चित्रित रंगनि सुंदर । मणिकी किराण मीन कुंडल छवि मनों मकर मिलन आवत त्यागेसर॥ ता उपर रोमावलि राजत मणिवर तीखन ज्योति सितावर । संतहि ध्यान स्नान करत नित कर्मकीच धोवे तनि केंकर ॥ यज्ञोपवीत विचित्र सूर प्रभु सुनि मध्यधार धारा जो वानीवर । शंख चक्र गदा पद्म पानि मनो कमल कुलह सनि कीन्हे घर॥ नटनारायण ॥ राधे निरखि भूली अंग। नंदनंदन रूप पर गति मति भई तनुपंग ॥ इत सकुच अति सखिनको उत होत अपनी हानि । ज्ञानकार अनुमान कीन्हो अवहि लैहैजानि ॥ चतुर सखियन परखिलीन्ही समुझि भई गँवारि.। सवै मिलि इत न्हान लागी ताहि दियो विसारि ॥ नागरी मुख श्याम निरखत कबहुँ सखियन हेरि । सूर राधा लखति नाहीं इन दई अवटरि॥९७॥ कान्हरो ॥ जव जान्यो ये न्हाति सवै । हरि प्रति अंग अंगकी सोभा अँखियन मगहै लेउ अवै ॥ कम लकोसमें आनि दुरावो बहुरि दशौं होइ कबै । यह मन करि युवतिन तनु हेरति सकुचतिहै पुनि नहीं फवै ।। कबहुँक कहै तजौ मर्यादा इनिसों मैं करि गोप तवै। सूरश्याम तवहीं मन मानस गहि रहौं जाइ जवै।।गौरी|चित राधारतिनागर ओरानयनवदन छवियों उपजत मानों शशि अनुराग चकोरासारससर अचवनको मानहु फिरत मधुप युगजोपान करत त्रिय तन मानत पलक नदेत अकोर ॥ लिये मनोरथ मानि सकल ज्यों रजनि गए पुनि भोर । सूर परस्पर प्रति निरंतर दंपति है चितचोर ॥ कल्याण ॥ यह कछ भारोह भाइ भई । निरखत वदन नंदनँदनको अव रहती सो गई।हि रदैजामि प्रेम अंकुर जार सप्त पतार गई । सो द्रुम पसार शिखर अंवरलों सब जग छाइ लई। वचन सुपत्र वकल अवलोकनि गुननिधि पुहुप मई । परस परम अनुराग साँचि सुख लगी प्रमोद जई .. मनके सकल मनोरथ पूरण सेमर भार नई । सूरदास फल गिरिधर नागर मिाल रसरीति ढई॥ रामकली | चितवनि रोकेहूं नरही। श्याम सुंदर सिंधु सन्मुख सरित उमागे वही । प्रेम सलिल प्रवा. ह भँवरनि मिलि कबहुँ न थाह लही । लोभ लहरि कटाक्ष बूंघट पट करार ढही । थके पल पथ नाव धीरज परत नहिन गही। हिलि मिलि सूर स्वभाव श्यामहि फेरीहून चहीं।जैतश्री देखी हरि- राधा उत अटकी । चितैरही एकटक हरिही तन नाजानिये कौन अंग लटकी ॥ कालिहमो कैसे निदरतिही मेरे चित वह टरति न खटकी । न्हातरही कैसे संग मिलिकै चित चंचल विरहाकी: चटकीवात करत तुलसी मुख मेले नयन शयनदै मुंह मटकी। सूरश्यामके रूप भुलानीराधाके: चित सुधि न घटी॥४०॥ विलावल ॥ चितै रही राधा हारको मुख ।भ्रुकुटी विकट विसाल नयन युग: देखत मनहि भयो रतिपति दुख ॥ उतहि श्याम एक टक प्यारी छवि अंग अंग अवलोकतारीझि रहे उत हार इत राधा अरस परस दोउ नोकत ॥ सखिन कह्यो वृपभानु सुतासों देखे कुवर कन्हा ई.। सूरश्याम एई हैं व्रज जिनकी होति वड़ाई॥४१॥ रामकली ॥ हमहि कह्यो हो श्याम देखावहु । देखह दरश नयन भार नीक पुनि पुनि दरशन पावर ॥ बहुत लालसा करत रही तुम वे तुम. कारण आए। पूरी साध मिली तुम उनको याते हमहिं बोलाये ॥ नीके सगुण आजु ह्यां आई भयो तुम्हारो काज । सुनहु सूर हमको कछु देहो तुमहि मिले ब्रजराज ॥ १२॥ राधा करो आज इन. जानी। बारबार मैं हरि तन चितई तबही ये मुसकानीकालि कह्यो मैं इन सों वैसे अवतो बात न ठानी । इह चतुरई परी मोही पर मन मन अतिहिलजानी ॥ मेरीबात गई इनि आगे अवहि करांते. विनपानी । सूरदास प्रभु कहा कहाँमैं तू अब हाथ विकानी ॥४३॥ विलावल ॥ मैं अतिही यह पोच. । करी। ये मेरी मर्यादा हैं तादिन इनिसों बहुत लरी ।। सुंदर श्याम कमलदल लोचन तुम अब A - - .