पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३६४

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- दशमस्कन्ध-१० (२७१) तड़ागानाशा तिलक प्रसून पद विपर चिवुक चारु चित खाग । दाडिम दशन मंदगति मुसकनि मोहत सुर नर नाग ॥ श्री गोपाल रस रूप भरीहै सूर सनेह सोहाग । ऐसी सोभा सिंधु विलोकत इन अँखियनके भाग ॥ १३ ॥धनाश्री। हम देखे यहि भांति गोपाल। छंद कपट कछ जानति नाही सूधीहें बजकी सव बाला।झूठीकी सांची नहिं भा सांची झूठी कबहुँ नहोइ । सांचीकी झूठी करिडारे यह सोई जाने धनि जोइ ॥ इतननिमें दुराव कछु नाही भेदाभेद विचार । सूरदासते झूठी मिलवै तनुकी गति जाने करतार ॥५४॥ आसावरी ।। झुठीवात नहोति भलाई । चोर जुआ रसंग वरु करिये झूठेको नहिं कोउ पतिआई। सांचीकी झूठी करिडारे पंचनमें मर्यादा जाई। बोलि उठी एक सखी वीचहीतें कह जान लाज वड़ाई । यामें कछू नफाहे उनको जाते मन ऐसी ये भाई। सूर स्वभाउ परयो ऐसोई को जानेरी बुद्धि पराई॥५६॥धनाश्रीपाऐसे हम देखे नँदनंदनाश्याम सुभग तनु पीत वसन जनु मनहु जलद पर तडित सुछंदन ॥ मंदमंद मुरली मुख गरजनि सुधावृष्टि वरपत आनंदन । विविध सुमन वनमाला र मनु सुरपति धनुप नहीं यहिछंदन ॥ मुक्ता वली मनहुँ वगपंगति सुभग अंग चरचित छवि चंदन । सूरप्रभूनीप तरोवर तर ठाढ़े सुर नर मुनि वंदना॥५६॥दवगंधार ॥तुमको कैसे श्याम लगे। न्हातरही जलमें सब तरुनी तब तुअ नैना कहां खगे ॥ अंग अंग अवलोकन कीन्हो कोन अंग पर रहे पगे । भूल्योस्नान ज्ञान तनु भूली नंदसुवन उतते नडगे ॥ जानति नहीं कहूंनहिं देखे मिलिगई ऐसे मनहि सगे । सूर श्याम ऐसे तें देखे में जानति दुख दरि भगे ॥१७॥ गौरी ॥ तुम देखे में नहीं पत्यानी । मैं जानति. मेरी गति सवही इहे सांच अपने मन आनी ॥ जो तुम अंग अंग अवलोक्यो धन्य धन्य मुख स्तुति गानी । मैं तो अंग अंग अवलोकात दोऊ नयन भये भर पानी ।। कुंडल, झलक कपोलनि आभा इतना माँझ विकानी । एकटकरही नैन दोउ रुंधे सूरश्यामको नहिं पहिचानी ॥५८॥ नय॥ मेरी अखियां अजान भई। एक अंग अवलोकत हरिके और अंग रईये भूली ज्यों चोर भरे। पर नौनिधि नहीं लई । फेरत पलटत भोर भए कछ लई न छाडिदई । पहिलेहि रति करिके आरति करि ताहि रई । सूर सकात हाठि दोप लगावति पल पल पीर नई ॥ ५९॥ सारंग ।। विधातहि चूकपरी में जानी । आजु गोविंदहि देखि देखि होइहे समुझि पछितानी ॥ रचि पचि सोचि सवारि सकल अंग चतुर चतुरई ठानी।हष्टि नदई रोमरोमनि प्रति इतनहि कला नशानी।। कहाकरौं अति सूवै नयना उमगि चलत पग पानी । सूर सुमेर समाइ कहाँधी बुद्धिवासना पुरानी ।। ६०॥धनाश्री ॥ द्वलोचन तुह्मरे द्वे मेरे । तुमप्रतिअंग विलोकन कीन्हो मैं भई मगन एक अंग हेरे ।। अपनो अपनो भाग्य सखीरी तुम तनमय में कहूँ ननरे। जो बुनिये सोई पनि लुनिये और नहीं त्रिभुवन भट मेरे ॥ श्यामरूप अवगाहि सिंधुते पारहोत चढि डोगन करे। सूरदास तैसे ए लोचन कृपा जहाज विनाको परे ॥६॥ आसावरी ॥ पावे कौन लिखे बिनभाल। . काहूको पटरस नहिं भावत कोऊ भोजन कहुँ फिरत विहाल ॥ तुम देख्यो हरि अंग माधुरी में नाह देख्यो कौन गोपालाजेसेरंक तनक धन पाए ताहि महा वह होत निहाला|तुमहि मोहि इतनो अंतरहे धन्य धन्य ब्रजकी तुम वाल । सूरदास प्रभुकी तुम संगनि तुमहि मिले यह दरश गोपाल। ॥६२ ॥ कल्याण ॥ सुनहु सखी राधाकी वानी हमको धन्य कहति आपुन धग यह निर्मल आत। जानी ॥ आपुन रंक भई हरिधनको हमहि कहति धनवंत । यह पूरण हम निपट अधूरी हम । असंत यह संत ॥ धृग धृग हम धृग बुद्धि हमारी धन्य राधिका नारि । सूरश्यामको एहि ।।