पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३६५

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(२७२) सूरसागरे। पहिचानी हमभई अंत गँवारि ॥६३ ॥ गुंडमलार ॥ धन्य राधा धन्य बुद्धि हेरी। धन्यमाता धन्य। पिता धन्य भगति तुव धृग हमहि नहीं सम दासी तेरी ॥ धन्य तुव ज्ञान धन्य ध्यान धनि परमान नहीं जानति आन ब्रह्मरूपी । अन्य अनुराग धनि भाग धनि सौभाग धन्य जो वनरूप अति अनूपी ॥ हम विसुख तुम सुमुख कृष्ण प्यारी सदा निगम मुखसहस स्तुति वखाने । सूरश्यामा श्याम नवल जोरी अटल तुमहिं विन कान्ह धीरज | न औन ।। ६४ ॥ विहागरो ॥जैसे कहै श्यामहै तैसे । कृष्णरूप अवलोकनको सखि नयन होहिं | जो ऐसे ॥ तें जो कहति लोचन भरि आये श्यामकियो तेहि ौर । पुण्यस्थली जानि विराजे वात न हियहै और ॥ तेरे नयन वास हरि कीन्हो राधा आधा जानि । सुरश्याम नटवर वपु.काछे निकसे वहि मगआनि ॥ ६९ ॥ कान्हरो॥ अचानक आइगए तहाँ श्याम । कृष्णकथा सब कहत परस्परराधा संग मिली ब्रजवाम। मुरली अधर धरे नटवर वपु काट कछनी परवारौं कामासुभग मोरचद्रिका शीश पर आइ गए पूरण सुखधामातिरुतमाल तरुतरुन कन्हाई दूरि करन युवतिन तनु ताम । सूरश्याम बंशी ध्वनि पूरत श्रीराधाराधा लै नाम!!६६॥सूही विलावलाथकितभई राधा ब्रजनारि । जो मन ध्यान करति अवलोकन ते अंतर्यामी वनवाशिरतनजरितपग.सुभग पावरी नूपुरध्वनि कल परम रसाल । मानहु चरण कमलदल लोभी निकटहि वैठे वाल मराल॥ युगलबंध मरकतमाणिसोभा विपरीति भांति सवारीकटिकाछनीकनक छुद्रावलि पहिरे नंददुलाः हृदय विसाल माल मोतिनविच कौस्तुभमणि अतिभ्राजतामानहु नभ निर्मल तारागन तामधि चंद्र विराजत ॥ दुहुँकर मुराले अधर परसाये मोहन राग वजावताचमकत दशन मटकि नाशापुट लट कि नयन मुख गावत ॥ कुंडल झलक कपोलनि मानहुँ मीनसुधा सर क्रांडत । भृकुटी धनुपनैन खंजन मानो उडत नहीं मन बीडत ॥ देखिरूप ब्रजनारि थकितभई कीट मुकुट शिर सोहत। ऐसे सूरश्याम सोभानिधि गोपीजन मन मोहत ॥६७॥कल्याण ॥ जवते. निरखे चार कपोल। तवते लोकलाज सुधि विसरी दैराखेमनबोल ॥ निकसे आनि अचानक तिरछे पहिरे नील निचोल रतन 'जरित शिरमुकुट विराजत मणिमय कुंडल लोल ॥ कहा करौं वारिज मुख ऊपर विथके पट पद जोल । सूरश्याम करिये उत्कर्षा वशकीन्ही विनमोल ॥ ६८॥ पूरवी ॥ चारु चितौनि चंचलडोल । कही नजाति मनमें अति भावति कछु जो एक उपजत गतिगोल। मुरली मधुर बजावत गावत चलत करजु अरु कुंडललोल । सब छवि मिलि प्रतिक्वि विराजत इंद्रनीलमणिमुकुर कपोल ॥ कुंचितकेश सुगंध सुवसु मनु उड़िआए मधुपनके टोल । सूर सुभगनासिका मनोहर अनुमानत अनुराग अमोल ॥ ६९॥ गौरीनंदनंदन वृंदावन चंद। यदुकुल नभ तिथि द्वितिय देवकी प्रगटे त्रिभु वन बंद ॥ जठर कहूते बहरि वारिनिधि दिशिमधुपुरी सुछंद । वसुदेव शंभु शीश धरि आने गोकुल आनंदकंद ॥ बजप्राची राका तिथि यशुमति शरद सरस ऋतुनंद । उडुगन सकल शाखा. संकषन तम दनुकुल योनिकंद ॥ गोपीजन तेहि धरति चकोर गति निरखि मेटि पल दद। सूर सुदेश कला पोडश पर पूरन परमानंद ॥ ७० ॥ गौरी ॥ देखि सखी हरिको मुखचारु । मनहु छिडाइलिये नंदनंदन वा शशिको सतसारु ।। रूप तिलक कच कुटिल किरनि छवि कुंडल कल विस्तारु । पत्रावलि पारवेष सुमन सरि मिल्यो मनहु उडदारु ॥ नयनचकोर विहंग सूर सुनि पिव त न पावत पारु । अब अंबर ऐसो लागत है जैसो झुठो थारु॥७१॥ कान्हरो ॥ देखिरी हरिके चंचलतारे। कमल मीनको कहा एती छवि खंजनहू न जात अनुहारे ॥ वै देखि निरखि नमित