जात। देखिसखी सोभा जो वनीहै माधवके मुसकात॥ दाडिम दशन निकट नासा शुक चोचचलाइ नखात। मनो रतिनाथ हाथ भ्रुकुटी धनु ता अवलोकि डरात॥ वदन प्रभा मुख चंचल लोचन आनँद उर न समात। मानहुँ भौंह युवारथ जोते शशि न चलत मृगामत॥ कुंचित केश मधुर ध्वनि मुरली सूरदास सुरसात। मनहुं कमलपर कोकिल कूलत अलिगण उपर उडात॥८१॥ कान्हरो ॥ श्याम कमलपद नखकी सोभा। जे नख चंद्र इंद्रशिरपरसे शिव विरंचि मन लोभा॥ जेनखचंद्र सनक मुनि ध्यावत नहिं पावत भरमाही। ते नखचंद्र प्रगट ब्रज युवती निरखि निरखि हरषाही॥ जे नखचंद्र फनन्द्रि हृदयते येकौ निमिष न टारत। जेनखचंद्र महामुनिनारद पलक न कहू विसारत॥ जेनखचंद्र भजन खलनाखत रमा हृदय जेहि परसत। सूरश्याम नखचंद्र विमल छबि गोपी जनमिलि दरशत॥८२॥ आसावरी ॥ श्याम हृदय जलसुतकी माला अतिहि अनूपम छाजैरी। मनहु बलाक पांति नवधनपर यह उपमा कछु भ्राजैरी॥ पति हरित सित अरुण माल वन राजत हृदय विसालरी। मानहु इंद्रधनुष नभमंडल प्रगटभयो तिहिकालरी। भृगुपद चिह्न उरस्थल प्रगटे कौस्तुभमणि ढिग दरशतरी। बैठे मनु षटवधू एक सँग अर्धनिसा मिलि हरषतरी॥ भुजाविसाल श्यामसुंदरकी चंदनखौरि चढाएरी। सूरसुभग अंग अंगकी सोभा ब्रजललना ललचाएरी॥८३॥ मलार ॥ निरखि सखि सुंदरताकी सीव। अधर अनूप मुरलिका राजति लटकि रहनि अधग्रीव॥ मंद मंद सुर पूरत मोहन रागमलार बजावत। कबहुँक रीझि मुरलिपर गिरिधर आपुहि रसभरिगावत॥ हर्षत लखत दशनावलि पंगति ब्रजवनिता मनमोहत। मर्कत मणि पुट विचमुकुताहल वदन भरे मनु सोहत॥ मुख विकसत सोभा एक आवत मनोराजीव प्रकाश। सूर अरुण आग मन देखिकै प्रफुलित भए हुलासा॥८४॥ टोडी ॥ गोपीजन हरिवदन निहारति। कुंचित अलक विथुरि रहे भुवपर तापर तन मन वारति॥ वदन सुधा सरसरुिह लोचन भ्रुकुटी दोउ रखवारी। मनोंमधुप मधुपानहि आवत देखि डरत जियभारी॥ एक एक अलक लटकि लोचन पर यह उपमा एक आवत। मनहु पन्नगिनि उतरि गगनते दलपर फनपरसावत॥ मुरली अधर धरे कलपूरत मंद मंद सुरगावत। सूरश्याम नागर नारिनके चंचल चितहि चोरावत॥८५॥ सूहीबिलावल ॥ दखि सखी यह सुंदरताई। चपलनैन विच चारुनासिका यकटक नैन रही तहांलाई॥ करति विचार परस्पर युवती उपमा आनति बुद्धि बनाई। मानहुं खंजन विच शुक बैठो यह कहिकै मन जात लजाई कछु एक तिलक प्रसूनकी आभा मन मधुकर जहां रह्यो लुभाई। सूरश्याम नासिका मनोहर यह सुंदरता उन कहां पाई॥८६॥ रामकली ॥ मनोहरहै नैननकी भांति। मानहुं दूरि करत बल अपने शरद कमलकी कांति॥ इंदीवर राजीव कसेसे जीते सब गुण जाति। अतिआनंद सप्रौढाताते विकसत दिन अरु राति॥ खंजरीट मृग मीन विचारति उपमाको अकुलाति। चंचल चारु चपल अवलोकनि चितहि नएक समाति॥ जबलगि परत निमेष अंतरा युग समान पल जात। सूरदास वह रसिक राधिका निमिष पर अति अनखात॥८७॥ आजु सखी देखे श्याम नएरी। निकसे आनि अचानक अबहीं इत फिरि फिरि चितएरी॥ मैं तबते पछिताति इहै तनु नैनन बहुत भएरी। जो विधिना इतनी जानतहै कत हग दोइ दयेरी॥ सबदै लेउ लाख लोचनकहे जो काउ करत नयेरी। हरिप्रतिअंग विलोकनको मन मैं पनकै पठएरी॥ अपने चोप बहुत कह पइये येहरिसंग गयेरी॥ थकेचरण सुनि सूर मनो गुण मदन बाण विधयेरी॥८८॥ गूजरी ॥ देखिरी हरिके चंचलनैन। खंजन मीन मृगज चपलाई नहिं पटतर एकसैन॥ राजिवदल इंद्री वरसतदल
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सुरसागर।
