पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३६७

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(२७४) सुरसागर। जात । देखिसखी सोभा जो वनीहै माधवके मुसकात ॥ दाडिम दशन निकट नासा शुक चोच चलाइ नखात । मनो रतिनाथ हाथ भृकुटी धनु ता अवलोकि डरात ॥ वदन प्रभा मुख चंचल लोचन आनंद उर न समातामानहुँ भौह युवारथ जोते शशि न चलत मृगामताकुंचित केश मधुर ध्वनि मुरली सूरदास सुरसात । मनहुं कमलपर कोकिल कूलत अलिगण उपर उडात ॥ ८ ॥ कान्हरो ॥ श्याम कमलपद नखकी सोभा।जे नख चंद्र इंद्रशिरपरसे शिव विरंचि मन लोभा।जे नखचंद्र सनक मुनि ध्यावत नहिं पावत भरमाही । ते नखचंद्र प्रगट व्रज युवती निरखि निरखि हरषाहीजे नखचंद्र फनन्द्रि हृदयते येकौ निमिष न टारत । जेनखचंद्र महामुनिनारद पलक न कहू विसारताजिनखचंद्र भजन खलनाखत रमा हृदय जेहि परसतासूरश्याम नखचंद्र विमल छवि गोपी जनमिलि दरशत।।८२॥आसावरी॥श्याम हृदय जलसुतकी माला अतिहि अनूपम छाजरी। मनह बलाक पांति नवधनपर यह उपमा कछु भ्राजैरी ॥ पीत हरित सित अरुण माल वन राजत हृदय विसालरीमानहु इंद्रधनुष नभमंडल प्रगटभयो तिहिकालरीभृगुपद चिह्न उरस्थल प्रगटे कौस्तुभमणि ढिग दरशतरी । वैठे मनु पटवधू एक सँग अर्धनिसा मिलि हरपतरी ॥ भुजाविसाल श्यामसुंदरकी चंदनखौरि चढाएरी । सूरसुभग अंग अंगकी सोभा ब्रजललना ललचाएरी ॥८३॥ मलार । निरखि सखि सुंदरताकी सीव । अधर अनूप मुरलिका राजति लटकि रहनि अधग्रीव ॥ मंद मंद सुर पूरत मोहन रागमलार बजावत । कबहुँक रीझि मुरलिपर गिरिधर आपुहि रसभार गावत ॥ हर्षत लखत दशनावलि पंगात ब्रजवनिता मनमोहत । मर्कत माण पुट विचमुकुताहल वदन भरे मनु सोहत । मुख विकसत सोभा एक आवत मनोराजीव प्रकाश । सूर अरुण आग मन देखिकै प्रफुलित भए हुलासा॥८॥ोडी ॥ गोपीजन हरिवदन निहारतिकुंचित अलक विथुरि रहे भुवपरतापर तन मन वाराति ॥ वदन सुधा सरसरुिह लोचन भृकुटी दोउ रखवारी । मनामधुप मधुपानहि आवत देखि डरत जियभारी । एक एक अलक लटकि लोचन पर यह उपमा एक आवत । मनहु पनगिनि उतरि गगनते दलपर फनपरसावता मुरली अधर धरे कलपूरत मंद मंद सुरगावत । सूरश्याम नागर नारिनके चंचल चितहि चोरावत ॥ ८५ ॥ सूहीविलावल ॥ दाख सखा यह सुंदरताई। चपलनैन विच चारुनासिका यकटक नैन रही तहांलाई । करति विचार परस्पर युवती उपमा आनति बुद्धि बनाई । मानहुँ खंजन विच शुक बैठगे यह कहिकै मन जात लजाई कछु एक तिलक प्रसूनकी आभा मन मधुकर जहां रह्यो लुभाई । सूरश्याम नासिका. मनोहर यह सुंदरता उन कहां पाई ॥८६॥ रामकली ॥ मनोहरहै नैननकी भांति । मानहुं दूरि करत बल अपने शरद कमलकी कांति ॥ इंदीवर राजीव कसेसे जीते सब गुण जाति । अतिआनंद सोना ताते विकसत दिन अरु राति ॥ खंजरीट मृग मीन विचारति उपमाको अकुलाति । चंचल चारु चपल अवलोकनि चितहि नएक समाति ।। जबलगि परत निमेष अंतरा युग समान पल जात। सूरदास वह रसिक राधिका निमिष पर अति अनखात ॥ ८७॥ आज सखी देखे श्याम नएरी। निकसे आनि अचानक अवहीं इत फिरि फिरि चितएरी ॥ मैं तबते पछिताति इहै तनु नैनन बहुत भएरी। जो विधिना इतनी जानतहै कत हग दोइ दयेरी ॥ सवदै लेउ लाख लोचनकहे जो काउ करत नयेरी। हरिप्रतिअंग विलोकनको मन मैं पनकै पठएरी ॥ अपने चोप बहुत कह पइय येहरिसंग गयेरी। थकेचरण सुनि सूर मनो गुण मदन वाण विधयेरी ॥८८॥ गूलरी ॥ देखिरी || हरिके चंचलनैन । खंजन मीन मृगज चपलाई नहिं पटतर एकसैन । राजिवदल इंद्री वरसतदल