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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३६८

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दशमस्कन्ध-१०


कमलकुसेसै जाति। निशि मुद्रित प्रातहि एविगसत एविगसत दिन राति॥ अरुण श्वेत सित झलक पलक प्रति को वरणै उपमाइ। मनो सरस्वति गंगा यमुना मिलि आगम कीन्हो आइ॥ अवलोकनि जल धार तेज अति तहांन मन ठहरात। सुरश्यामलोचन अपार छवि उपमा सुनि सरमाता॥८९॥॥ सोरठा ॥ देखिसखी मोहन मन चोरत। नैन कटाक्ष विलोकन मधुरी सुभग भ्रुकुटी विवि मोरत चंदनखौरि ललाट श्यामके निरखत अति सुखदाई। मानहुं अर्धचंद्र तट अहिनी सुधा चोरावन आई॥ मलयज भाल भ्रुकुटि रेखाकी कवि उपमा एक ल्यावत। मनोएक संग गंग यमुन नभ तिरछी धार बहावत॥ भ्रुकुटी चारु निरखि ब्रजसुंदरि यह मन करति विचार। सूरदास प्रभु सोभासागर कोउ नपावतपार॥९०॥ रामकली ॥ देखिरी देखि कुंडललोल। चारु श्रवणनि ग्रहित कीन्ही झलक ललित कपोल॥ बदन मंडलसुधा सरवर निरखि मन भयोभोर। मकरक्रीडत गुप्त परगट रूप जल झकझोर॥ नैन मीन भुवंगिनी भुअ नासिका थलवीच। सरस मृगमद तिलक सोभा लसतिहै गलकीच॥ मुख विकास सरोज मानहु युवति लोचन भृंग॥ बिथुरी अलकैं परी मानहुं प्रेमलहरि तरंग॥ श्याम तुम छवि अमृत पूरण रच्यो काम तडाग। सुर प्रभुकी निरखि सोभा ब्रज तरुणि बडभाग॥९१॥॥ धनाश्री ॥ हरिमुख निरखंति नागरि नारि। कमलनयनके कमल वदनपर वारिज वारिज वारि॥ सुमति सुंदरी परस प्रियारस लंपट माडी आरि। हारि जोहारि जो करत वसीठी प्रथमहि प्रथम चिन्हारि॥ राखत ओट कोटि यतननिकार झांपति अंचल झवारि। खंजन मनहु उडनको आतुर सकत नपंख पसारि॥ देखि स्वरूप श्यामसुंदरको रही नपलकसँभारि। देखहु सूर अधिक सूरतितिनअजहुँ न मानो हारि॥ हरिमुख किधों मोहनी माई। बोलत वचन मंत्र सों लागत गति मति जाति भुलाई॥ कुटिल अलक राजत भुव ऊपर जहां तहां रहे वगराई। श्याम फांसि मन कर्ष्यो हमरो अब समुझी चतुराई॥ कुंडल ललित कपोलनि झलकत इनकी गति मैं पाई। सूरश्याम युवती मन मोहन ये सँग करत सहाई॥९३॥ नट ॥ निरसति रूप नागरि नारि। मुकुट पर मन अटकि लटक्यो जात नहिं निरु आरि॥ श्याम तनुकी झलक आभा चंद्रिका झलकाइ। बार बार विलोकि थकि रही नयनही ढहराइ॥ श्याम मर्कत मणि महानग शिखिनि निर्त्ततमोर। देखि जलधर हर्ष उरपर नहीं आनँद थोर॥ कोउ कहति सुरचाप मानो गमन भयो प्रकास। थकित ब्रजललना जहां तहँ हरष कबहुँ उदास॥ निरखि जो जेहि अंग राची तहीं रही भुलाइ। सूर प्रभु गुणराशिसोभा रसिक जन सुखदाइ॥९४॥ विहागरो ॥ देखिरी देखि सोभाराशि। काम पटतर कहा दीजै रमा जिनकी दासि॥ मुकुट शिर श्रीखंड सोहै निरखि रही ब्रजनारि। कोटिसुर कोदंड आभा झिरकि डारै वारि॥ केश कुंचित विथुरि भुवपर बीच सोभा भाल। मनहुं चंद्रहि अब लजान्यो राहु घेरो जाल॥ चारु कुंडल सुभग श्रवणनि कोसके उपमाइ। कोटि कोटि कलातरनि छबि देखि तनु भरमाइ॥ सुभग मुख पर चारु लोचन नासिका यहि भाँति। मनो खंजन बीच शुक मिलि बैठेहैं एक पांति॥ सुभग नासा तर अधरछबि रसभरे अरुनाइ। मनो बिंब निहारि शुक भ्रुवधनुष देखिडेराइ॥ हँसत दशननि चमकताई वज्रकन रुचिपांति। दामिनी दुर धँसी कियो मन अति भ्रांति॥ चिवुक पर चितवित चोरावत नवलनंद किसोर। सूर प्रभुकी निरखि सोभा भई तरुनी भोर॥॥९५॥ सोरठ ॥ तन मन नारिडारत वारि। श्याम सोभासिंधु जान्यो अंग अंग निहारि॥ पचिरही मन ज्ञान करि करि लहति नाहिनतीर। श्याम तन जलराशि पूरण महा गुण गंभीर॥ पीतपट