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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३६९

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(२७६)
सूरसागर।


फहरानि मानो लहरि उठत अपार। निरखि छबि थकि तीर बैठी कहूं वार नपार॥ चलत अंग त्रिभंग करिकै भौंहभाव चलाइ। मनो बिच बिच भौंर डोलत चित परत भरमाइ॥ श्रवण कुंडल मकर मानो नैन मीन विसाल। सलिल झलकनि रूप आभा देखरी नँदलाल॥ बाहुदंड भुजंग मानो जलधि मध्य विहार। मुक्तमाला मनों सुरसरि ह्वै चली द्वयधार॥ अंग अंग भूषण विराजत कनक मुकुट प्रभास। उदधि मथि नग प्रगट कीन्हों श्रीसुधापरगास॥ चकृत भई तिय निरखि सोभा देहगति विसराइ। सूरप्रभु छबिराशि नागर जानि जानि नजाइ॥९६॥ सारंग ॥ बैठी कहा मदन मोहनको सुंदर वदन विलोकि। जाकारण घूंघट पट अबलौं अँखियां राखीरोकि॥ फविरहे मोरचंद्रिका माथे छबिकी उठत तरंग। मनहुँ अमरपति धनुष विराजत नवजलधरके संग॥ रुचिरचारु कमनीय भाल कुंकुमको तिलक दिये। मानहुँ अखिल भुवनकी सोभा राजत उदय किये॥ मणिमय जडित लोल कुंडलकी आभा झलकत गंड। मनहुँ कमल ऊपर दिनकरकी पसरी किरानि प्रचंड॥ भ्रुकुटी कुटिल निकट नैननके चपल होत यहि भांति। मनहुँ तामरस पारस खेलत बालभृगकी पांति॥ कोमलश्याम कुटिल अलकावाल ललितकपोलन तीर। मानहुं सुभग शरद इंदु ऊपर मधुपनिकी अति भीर॥ अरुण अधर नासिका निकाई वदत परस्पर होड। सूरसो मनसा भई पांगुरी निरखि डगमगे गोड॥९७॥ केदारो ॥ करिमन नंदनंदन ध्यान। सेइ चरण सरोज शीतल तजि विषै रस पान॥ जानु जंघ त्रिभंग सुंदर कलित कंचन दंड। काछिनी कटि पीत पटुदुति कमलकेसर खंड॥ मनु मराल प्रवाल छौना किंकिनी कलराउ। नाभिहृदय रोमावली अलि चले सैन सुभाउ मणिकंठ मुक्तामाल मलयज उरबने वनमाल। सुरसरीके तीर मानो लता श्याम तमाल॥ वाहुपानि सरोज पल्लव गहे मुख मृदु वेनु। अति विराजत वदन विधुपर सुरभि रंजित रेनु॥ अरुण अधर कपोल नासा परमसुंदर नैन। चलित कुंडल गंडमंडल मनहु निर्तत मैन। कुटिलकच भ्रूतिलक रेखा शीशशिखिनि श्रीखंड। मनु मदन धनु शर सँधाने देखिधन कोदंड॥ सूर श्रीगोपालकी छबि दृष्टि भरि भरि लेत। प्राणपतिकी निरखि सोभा पलक परन नदेत॥९८॥ नटनारायण ॥ सजनी निरखि हरिको रूप। मनसि वचसि विचारि देखो अंग अंग अनूप॥ कुटिलकेश सुदेश अलिगन वदन शरदसरोज। मकर कुंडल किंकिनि छबि दुरति फिरति मनोज॥ अरुण अधर कपोल नासा शुभग ईसद हास। दशनकी युति तडित नव शशि भ्रुकुटि मदन विलास॥ अंग अंग अनंग जीते रुचिर उर वनमाल। सूरसोभा हृदय पूरण देत सुख गोपाल॥९९॥ नट ॥ नैननिध्यान नंदकुमार। शीशमुकुट श्रीखंड भ्राजित नहीं उपमा पार॥ कुटिलकेश सुदेश राजत मनहुं मधुकर जाल। रुचिरकेसरि तिलक दीन्हों परमसोभा भाल॥ भ्रुकुटि वंकट चारु लोचन रही युवती देषि। मनौखंजनचाप ड़रि डरि उड़त नहिं तेहिं पेखि॥ मकर कुंडल गंडझलमल निरखिलज्जित काम। तासिकाछबि कीर लज्जित कवि न वरनत नाम॥ अधर विद्रुम् दशन दाडिम चिवुकहै चितचोर। सूरप्रभु मुखचंद्र पूरण नारि नैन चकोर॥१४००॥ केदारा ॥ हमारे श्यामलालहो। नैन विसालहो मोही तेरी चालहो॥ मोरमुकुट डोलानि मुख सुरलीकलमंद। मनोंतमाल शिखा शिखि नाचत आनंद॥ मकराकृत कुंडल छबिराजत लोल कपोल। ईसद अधर मुसुकिन विच मधुर २ बोले॥ चपल चितवनि मनोहर राजत भ्रुवभंग। धनुष बाण डारिके वशहोत कोटि अनंग॥ वदनसुधाको सरोवर कुटिल अलकवारि। ब्रज युवती मृगिनी रचि तिनके