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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३७०

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दशमस्कन्ध १०


फल वारि॥ पीतांबर छबि निरखत दामिनि द्युति लजाइ। चमकि चमकि सावन मनोंघनमें दुरिजाइ॥ चरण कमल अवलंवित राजित बनमाल। प्रफुलित ह्वै ह्वै लता मनों चढ़ी तरु तमाला॥ सूरदास वा छबिपै वारौं तन प्राण॥ गिरिधर तिय देखि देखि कहा करौं अनुमान॥१॥ सारंगा ॥ देख सखीसुंदर घनश्याम। सुंदर मुकुट कुटिल कच सुंदर सुंदरभाल तिलक छवि धाम॥ सुंदर भ्रुव सुंदर अतिलोचन सुंदर अवलोकनि विश्राम। अतिसुंदर कुंडल श्रवणनिवर सुंदर झलक निरीझत काम॥ सुंदर चारुनासिका सुंदर सुंदर मुरली अधर उपाम। सुंदर दशन चिवुक अति सुंदर सुंदर हृदय विराजत दाम॥ सुंदर भुजा पीत कटि सुंदर सुंदर कनक मेखला झाम। सुंदर जंघ जानु पद सुंदर सूर उधारन नाम॥२॥ धनाश्री ॥ देखि देखिरी नंदकुलके उधारी। मात पित दुरित उद्धरन ब्रजउद्धरन धरान उद्धरन शिर मुकुटधारी॥ पतित उद्धरन अपने भक्त उद्धरन दीनउद्धरन कुंडलनिधारी। जगत उद्धरन तिहुँ लोकके उद्धरन वलिहि उद्धरन पग पीठधारी। पूतना उद्धरन दनुज कुलउद्धरन तृणा उद्धरन मुख मुरलिधारी॥ शकट उद्धरन केशी प्रबल उद्धरन वका उद्धरण अरुण अधर धारी। अघा उद्धरन गाइ ग्वालके उद्धरन वृषभ उद्धरन बनमाल धारी॥ वच्छ उद्धरन ब्रह्मा उद्धरन येइ प्रभुयज्ञके पति यज्ञोपवीत धारी॥ काली उद्धरन फन फन सहित उद्धरन दवा उद्धरन अंग मलयधारी। ग्राह उद्धरन गजराज उद्धरन ये शिला उद्धरन कटि पति धारी। यदुकुल उद्धरन द्रौपदी उद्धरन रुक्मिणी उद्धरन कर लकुट धारी॥ सिंधु उद्धरन सीता प्यारी उद्धरन जै विजय के उद्धरन धनुष धारी। त्रास उद्धरन प्रहलादके उद्धरन प्रबल नरसिंह अवतार धारी। हरिणकश्यपके उद्धरन हिरण्याक्षके उद्धरन वेद उद्धरन बल भुजा धारी। धरम उद्धरन यह कर्म उद्धरन प्रभु सुभग कटि किंकिनी पीत धारी। सूर उद्धरन सुरलोकके उद्धरन हरि कंस उद्धरन एई मुरारी॥३॥ नँद नंदन मुख देख्यो नाके। अंग अंग प्रति कोटि माधुरी निरखि होत सुख जीके। सुभग श्रवन कुंडलकी आभा झलक कपोलनि पीके॥ दह दह अमृत मकर क्रीडत मनौ यह उपमा कछु हीके। और अंगकी सुधि नहिं जानै करे कहतिहो लीके सूरदास प्रभु नटवर काछे रहत है रति पति वीके॥४॥ रामकली ॥ देखिरी देखि कुंडल झलक। नैनदै छबि धरौं कैसे लगत तापर पलक॥ लसत चारुकपोल दुहुँ विच सजल लोचन चार। मुख सुधा सरमीन मानौ मकर संग विहार॥ कुटिल अलक सुभाइ हरिके भुवनि पर रहे आइ। मनों मन्मथ फांदि फंदनि मीन विवि लटल्याइ॥ चपल लोचन चपल कुंडल चपल भ्रुकुटीबंक। सखा व्याकुल देखि अपने लेत वनत नसंक॥ सूर प्रभु नंदसुवनकी छबि वरनि कापै जाइ। निरखि गोपी निकार विथकी विधिहि अति रिसपाइ॥५॥ जयतश्री ॥ विधिनाअतिही पोच कियोरी। कहा विगार कियो हम वाको ब्रज काहे अवतार दियोरी। यहतौ मन अपने जानतहों येते पर क्यों निठुर हियोरी। रोम रोम लोचन एकटक करि युवतिन प्रतिकाहे न टयोरी। आँखियां द्वै छबिकी चमकनि वह हमतौ चाहति सबै पियोरी॥ सुनि सजनी यह करनी अपनी अपनेही शिरमानि लियोरी॥ हमतौ पाप कियो भुगतैको पुण्य प्रगट क्यों निठुर हियोरी। सूरदास प्रभु रूप सुधानिधि पुट थोरो विधि नहीं विनोरी॥६॥ धनाश्री ॥ सुनरी सखी वचन एक मोसों। रोम रोम प्रति लोचन चाहति द्वै सावितहैं तोसों॥ मैं विधना सों कहौं कछु नहीं नितप्रति निमकों कोसो। यों जोनीके दोऊ रहते निरखत रहती होंसो॥ एक एक अंग अंग छबि धरती मैं जो कहती तेरीसों। सूर कहा तू कहति