प्रबीनता विधाताको जानै। अब कैसे लगत हमहि बातें न अयाने॥ त्रिभुवन पति तरुन कान्ह नटवर वपुकाछे। हमको दै नैन दिये तेऊ नहिंआछे॥ ऐसो बिधिको विवेक कहौं कहावाको। सूर कबहुं पाऊं जो कर अपने ताको॥१४॥ नट ॥ मुखपर चंद्र डारौं वारि। कुटिल कच पर भौंर वारौं भौह पर धनु वारि। भालकेसरि तिलक छबिपर मदन शत शर वारि॥ मनु चली वहि सुधा धारा निरखि मनधौं वारि। नैनखंजन मृग मीन वारौं कमलके कुलवारि॥ मनों सुरसति यमुन गंगा उपमा डारौंवारि। निरखिकुंडल तरुनि वारौं कूप श्रवननि वारि॥ झलक ललित कपोल छबिपर मुकुर शत शतवारि। नासिकापर कीर वारौं अधर विद्रुम वारि॥ दशन एकन वज्रवारौं वीज दाडिम वारि। चिबुकपर चित वित्तवारों प्राणडारौं वारि। सूरहरिके अंग सोभा कोसकै निरवारि॥१५॥ सोरठ ॥ श्याम उर सुधादह मानौ। मलय चंदन लेप कीन्हे वरन यह जानौ॥ मलय तनु मिलि लसति सोभा महाजल गंभीर निरखि लोचन भ्रमत पुनिरधरत नहिं मन धीर॥ उरज भँवरी भँवर मानों मीन मणिकी कांति। भृगुचरण हृदय चिह्न ये सब जीव जल बहुभांति॥ श्यामबाहु विसाल केसरि खौरि विविधि बनाइ। सहज निकसे मगर मानों कूल खेलत आइ॥ सुभग रोमावली की छति चली दहते धार। सूर प्रभुकी निरखि सोभा युवति वारंवार॥१६॥ मनु मधुकर पद कमल लुभान्यो। चित्त चकोर चंद्र नख अटक्यो यकटक पल न भुलान्यो॥ विनही कहे गये उठि मोते जात नहीं मैं जान्यो। अब देखो
तनमे वे नाहीं कहा जियहिधों आन्यों॥ तबते फेरि तके नहिं मोतन नखचरणन हित मान्यो। सूरदास वे आपु स्वारथी परवेदन नहिंजान्यो॥१७॥ मारू ॥ श्याम सखि नीके देखे नाही। चितवतही लोचन भरिआए वार पार पछिताहीं ।। कैसेहूं करिय कटक राखति नैकहि में अकुलाहीं। निमिप मनों छबि पर रखवारे ताते अतिहि डेराहीं। कहा करैं इनको कहा दोष न इन अपनीसी कीन्हीं॥ सूरश्याम छबि पर मन अटक्यो॥ उन सब सोभा कीन्हीं॥१९॥ गौरी ॥ मनलुव्ध्यो हरिरूप निहारि। यादिन श्याम अचानक आयो तबते मोहिं विसारि॥ इंद्रिन संग लगाइ गयो ह्यां डेरा निकसे झारि। ऐसे हाल करतरी कोऊ रही अकेली नारि॥ फेरि न मेरी उहि सुधि लीन्ही आप करत सुखभारि। सूरश्यामको उरहनो दैहौं पठवत काहे नमारि॥२०॥ अथ अनुरागसमय के पद ॥ रामकली ॥ पुनि पुनि कहतिहै ब्रजनारि। धन्य वडभागिनी गधा तेरे वश गिरिधारि॥ धन्य
नंदकुमार धनि तुम धन्यतेरी प्रीति। धन्य तुम दोउ नवलजोरी कोक कलानिजीति।हम विमुख तुम कृष्णसंगिनि प्राण एक द्वै देह॥ एक मन एक बुद्धि एकचित दुहुनि एक सनेह। एक छिनु विनु तुमहि देखे श्याम धरत नधीर॥ मुरलिमें तुअ नाम पुनि पुनि कहतहैं बलवीर॥ श्याममणिमैं परखि लीन्हो महाचतुरसुजान।सूरप्रभुके प्रेमही वश कौन तोसारिआन॥२१॥ विहागरो ॥ राधा परमनिर्मल नारि। कहतिहौं मन कर्मना करि हृदय दुविधा टारि॥ श्यामको एक तूही जान्यो दुराचरनी और। जैसे घट पूरण न डोलै अघ खुलौ डगडौर॥ धनी धन कबहूँ न प्रगटै धरै धनहि छपाइ। तैं महानग श्याम पायो प्रगटिकैसेजाइ॥ कहतिहौं यह बात तोसों प्रगट करिहौं नाहिं। सूरसखी सुजान
राधा परस्पर मुसकाहिं॥२२॥ गौरी ॥ श्यामको तैहीं हैं पहिचाने। सांची प्रीति जानि मनमोहन तेरेही हाथ विकाने॥ हम अपराध कियो कहि तुमसों हमही कुलटी नारि। तुमसों उनसों बीच नहीं कछु तुम दोऊ वरनारि॥ धन्य सुहाग भाग्य है तेरो धनि वडभागी श्याम। सूरदास
प्रभुसे पति जकि तोसी जाके वाम॥२३॥ सोरठ ॥ राधा श्यामकी प्यारी। कृष्णपति सर्वदा
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दशमस्कन्ध-१०
