पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३७२

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दशमस्कन्ध-१० (२७९) D प्रवीनता विधाताको जानै । अब कैसे लगत हमहि बातें न अयाने ॥ त्रिभुवन पति तरुन कान्ह नट- वर वपुकाछे। हमको दै नैन दिये तेऊ नहिंआछे ॥ ऐसो विधिको विवेक कहाँ कहा वाको । सूर कबहुं पाऊं जो कर अपने ताको ॥ १४॥ नट ॥ मुखपर चंद्र डारौं वारि । कुटिल कच पर भौंर वारौं भौह पर धनु वारि । भालकेसरि तिलक छविपर मदन शत शर वारि ॥ मनु चली वहि सुधा धारा निरखि मनधों वारि । ननखंज न मृग मीन वारौं कमलके कुलवारि ॥ मनों सुरसति यमुन गंगा उपमा डारोवारि । निरखिकुंडल तरुनि वारौं कूप श्रवननि वारि ॥ झलक ललित कपोल छविपर मुकुर शत शतवारि । नासिकापर कीर वारों अधर विट्ठम वारि ।।दशन एकन वज्रवारों वीज दाडिम वारि । चिवुकपर चित वित्त वारों प्राणडारौं वारि । सूरहरिके अंग सोभा कोसकै निरवारि ॥ १५॥ सोरठ ।। श्याम उर सुधादह मानौ । मलय चंदन लेप कीन्हे वरन यह जानौ ॥ मलय तनु मिलि लसति सोभा महाजल गंभीर निरखि लोचन भ्रमत पुनिरधरत नहिं मन धीरज भंवरी भंवरमानों मीन मणिकी कांतिभृिगुच रण हृदय चिह्न ये सब जीव जल बहुभांति॥श्यामवाहु विसाल केसरि खौरि विविधि वनाइ। सहज निकसे मगर मानों कूल खेलत आइ॥ सुभग रोमावली की छति चली दहते धार । सूर प्रभुकी निरखि सोभा युवति वारंवार ॥ १६॥ मनु मधुकर पद कमल लुभान्यो। चित्त चकोर चंद्र नख अटक्यो यकटक पल नभुलान्यो । विनही कहे गये उठि मोते जात नहीं मैं जान्यो । अब देखो तनमे वे नाहीं कहा जियहिधों आन्यों ॥ तयते फेरि तके नहिं मोतन नखचरणनहित मान्यो । सूरदास वे आपु स्वारथी परवेदन नहिंजान्यो।।१७ ।। मारू । श्याम सखि नीके देखे नाही । चित वतही लोचन भरिआए वार पार पछिताहीं ।। कैसेहूं करिय कटक राखति नैकहि में अकुलाहीं। निमिप मनों छवि पर रखवारे ताते अतिहि डेराही । कहा करें इनको कहा दोप न इन अपनीसी कीन्हीं ॥ सूरश्याम छवि पर मन अटक्यो। उन सब सोभा कीन्हीं ॥ १९ ॥ गौरी ॥ मनलुन्थ्यो हरिरूप निहारि । यादिन श्याम अचानक आयो तपते मोहिं विसारि ॥ इंदिन संग लगाइ गयो ह्यां डेरा निकसे झारि। ऐसे हाल करतरी कोऊ रही अकेली नारिफेिरि न मेरी उहि सुधि लीन्ही आप करत सुखभारि । सूरश्यामको उरहनो देहों पठवत काहे नमारि ॥२० ॥ अथ अनुरागसमय के पद ॥ रामफली || पुनि पुनि कहति वजनारि । धन्य वडभागिनी गधा तेरे वश गिरिधारि ॥ धन्य नंदकुमार धनि तुम धन्यतेरी प्रीति ।धन्य तुम दोउ नवलजोरी कोक कलानिजीति।हम विमुख तुम कृष्णसंगिनि प्राण एक द्वै देहा एक मन एक बुद्धि एकचित दुहुनि एक सनेहाएक छिनु विनु तुमहि देखे श्याम धरत नधी।मुरलिमें तुअ नाम पुनि पुनि कहतेहैं बलवीर।।श्याममणिमैं परखि लीन्हो महाचतुरसुजानासूरप्रभुके प्रेमही वश कौन तोसारिआन।।२१।। विहागरो ॥ राधा परमनिर्मल नारि। कहतिहों मन कर्मना करि हृदय दुविधा दारि ॥ श्यामको एक तूही जान्यो दुराचरनी और। जैसे घट पूरण न डोले अघ सुली डगडौर ॥ धनी धन कबहूँ न प्रगटै धरै धनहि छपाइ । महानग श्याम पायो प्रगटिकैसेजाइ ॥ कहतिहीं यह बात तोसों प्रगट करिहों नहिं । सूरसखी सुजान राधा परस्पर मुसकाहि ॥ २२ ॥ गौरी ॥ श्यामको तेही हे पहिचाने । सांची प्रीति जानि मनमो हन तेरेही हाथ विकाने ।। हम अपराध कियो कहि तुमसों हमही कुलटी नारि । तुमसों उनसों बीच नहीं कछु तुम दोऊ वरनारि ॥ धन्य सुहाग भाग्य है तेरो धनि वडभागी श्याम । सूरदास प्रभुसे पति जाके तोसी जाके वाम ॥२३॥ सोरठ ॥ राधा श्यामकी प्यारी । कृष्णपति सर्वदा ।