तेरे तू सदा नारी॥ सुनत बाणी सखी मुखकी जिय भयो अनुराग। प्रेम गदगद रोम पुलकित समुझि अपने भाग॥ प्रीति परगट कियो चाहै वचन बोलि न जाइ। नंदनंदन कामनायक रहे नैननि छाइ॥ हृदय ते कहुँ टरत नाहीं कियो निहचल वास। सूरप्रभु रस भरी राधा दुरत नाहिं प्रकाश॥२४॥ जैतश्री ॥ सुनि सजनी मेरी एक बात। तुमतौ अतिही करति बडाई मन मेरो सरमात॥ मोसों हँसति श्याम तुम एकै यह सुनिकै मरमात। एक अंगको पार न पावति चकित होइ भरमात॥ वह मूरतिद्वै नयन हमारे लिखी नहीं करमात। सूर रोम प्रति लोचन देतो विधिना परतर मात॥२६॥ कल्याण ॥ जो विधना अपवश करि पाऊं। तौ सखि कह्यो होइ कछु तेरो अपनी साध पुराऊं। लोचन रोम रोम प्रति मांगौं पुनि पुनि त्रास दिखाऊं। यकटक रहैं पलक नहिं लागैं पद्धति नई चलाऊं॥ कहा करौं छबि राशि श्याम घन लोचन द्वै नहिं ठाऊं। येते पर ये निमिषसर मुनि यह सुख काहि सुनाऊं॥२६॥ विलावल ॥ कहा करौं विवि हाथ नही। वह सुख यह तनु दशा हमारी नैननिको रिस भरत मही॥ अंग अंग कीनी विधि वन ये द्वै नैना देखति जबही। एसो कौन ताहि धरि आनै कहा करौं खीझति मनही॥ बडो सुजान चतुरई नीकी जगत पिता कहियत सबही। सूरश्याम अवतार जानि ब्रज लोचन बहुत न दिये हमहि॥२७॥ अब समुझी यह निठुर विधाता। ऐसहि जगतपिता कहवावत ऐसे घातकरै सो दाता॥ कैसो ज्ञान चतुरई कैसी कौन विवेक कहांको ज्ञाता। जैसो दुख हमको एहि दीन्हौ तैसे याको होत निपाता॥ द्वै लोचन तनुमें करि दीन्हो याहीते जान्यो पितुमाता। सूरश्यामछवि ते अघात नहिं बार बार आवत अकुलाता॥॥२८॥ सूही बिलावल ॥ ह्वै लोचन सावित नहिंतेउ। विनु देखे कल परत नहीं छन येते पर कीन्हे यह टेउ॥ बार बा छवि देख्योई चाहत साथी निमिष मिलेहैं येउ। तेतो ओट करत छिनही छिन देखतही भरिआवत दोउ॥ कैसे मैं उनकोपहिंचानों नैन विना लखिये क्यों भेउ। येतौ निमिष परत भरि आवत निठुर विधाता दीन्हें येउ॥ कहाभई जो मिली श्यामसों तू जान्यो जानै सबकोउ। सूरश्यामको नाम श्रवन सुनि दरशन नीके देत ने वोउ॥२९॥ सुही ॥श्यामहि मैं कैसे पहिचानों। कर्म कर्म करि एक अंग निहारति पलकवोट ताको नहिं जानों॥ पुनि लोचन ठहराइ निहारति निमिष मेटि वह छबि अनुमानों। औरैभाव औरकछु सोभा कहौं सखी कैसे उरआनों छिन छिन अंग अंग छबि अगणित पुनि देखौं फिरिकै हठठानों। सूरदास स्वामीकी महिमा कैसे रसना एक वखानों॥३०॥ सारंग ॥ श्यामसों काहेकी पहिचानि। निमिष निमिष वह रूप न वह छबि रति कीजै जेहिजानि॥ एकटक रहत निरंतर निशि दिन मनमति सोचित सानि। एकौ पल सोभा की सीवा सकत न उरमह आनि॥ समुझि नपरे प्रगटही निरखत आनँदकी निधि खानि। सखी यह विरह संयोग की समरस दुख सुख लाभकि हानि॥ मिटति नघृतते होम अनिरुचि सूर सुलोचन बानि। इत लोभी उत रूप परमनिधि कोउन रहत मिति मानि॥३१॥ रामकली ॥ कहाकरों नीके कार हरिको रूपरेख नहिं पावति। संगहिसंग फिरति निशिवासर नैननिमेष नलावति॥ वधी दृष्टि यों डोर गुडी वश पाछे लागी धावति। निकटभये मेरी ए छाया मोको दुख उपजावति॥ नखशिख निरखि निहारयोई चाइति मनमुरति अतिभावति। जानों नहीं कहांते निजछबि अंग अंगमें आवति॥ अपनीदेह आपुको वैरिनि दुरत नदुरी दुरावति। सूरश्याम सों प्रीति निरंतर अंतर मोहिं करावति॥३२॥ धनाश्री ॥ जो देखोंतौ प्रति करौंरी। संगहि रहौं फिरौं निशिवासर चितते नेक नहीं विसरौंरी। कैसे दुरति दुराये मेरे उन विनधीरज नहीं धरौंरी।
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सूरसागर।
