(२८०) सूरसागर। तेरे तू सदा नारी ॥ सुनत बाणी सखी मुखकी जिय भयो अनुराग । प्रेम गदगद रोम पुलकित समुझि अपने भाग ॥ प्रीति परगट कियो चाहै वचन बोलि न जाइ । नंदनंदन कामनायक रहे नैननि छाइ ॥ हृदय ते कहुँ टरत नाहीं कियो निहचल वास । सूरप्रभु रस भरी राधा दुरत नाहि प्रकाश ॥२४॥ जैतश्री ॥ सुनि सजनी मेरी एक बात । तुमतौ अतिही करति बडाई मन मेरो सर मात ॥ मोसों हँसति श्याम तुम एकै यह सुनिकै मरमात । एक अंगको पार न पावति चकित होइ भरमात ॥ वह मूरतिदै नयन हमारे लिखी नहीं करमात । सूर रोम प्रति लोचन देतो विधिना पर तर मात ॥२६॥ कल्याण ॥ जो विधना अपवश करि पाऊं । तौ. सखि कह्यो होइ कछु तेरो अपनी साध पुराऊ। लोचन रोम रोम प्रति मांगों पुनि पुनि त्रास दिखाऊंयकटक रहैं पलक नहि लागें पद्धति नई चलाऊं ॥ कहा करौं छवि राशि श्याम धन लोचन दै नहिं ठाऊं । येते पर ये निमिष सर मुनि यह सुख काहि सुनाऊं ॥२६॥ विलावल ॥ कहा करौं विवि हाथ नही। वह सुख यह तनु दशा हमारी नैननिको रिस भरत मही॥ अंग अंग कीनी विधि वन येद्वै नैना देखति जबही। एसो कौन ताहि धरि आने कहा करौं खीझति मनही । बडो सुजान चतुरई नीकी जगत पिता कहियत सबही । सूरश्याम अवतार जानि ब्रज लोचन बहुत न दिये हमहि ॥ २७॥ अवं समुझी यह निङ र विधाता। ऐसहि जगतपिता कहवावत ऐसे घातकरै सोदाता|कैसो ज्ञान चतुरई कैसी कौन विवे क कहांको ज्ञाता। जैसो दुख हमको एहि दीन्हो तैसे याको होत निपाता ॥दै लोचन तनुमें करि दीन्हो याहीते जान्यो पितुमाता। सूरश्यामछवि ते अधात नाहं बार बार आवत अकुलाता ॥ ॥२८॥सूही विलावल ॥ लै लोचन सावित नहितेउ । विनु देखे कल परत नहीं छन येते पर कीन्हे यह टेडावार वार छवि देख्योई चाहत साथी निमिष मिलेहैं येउ । तेतो ओट करत छिनही छिन देख तही भरिआवत दोउ ॥ कैसे मैं उनकोपहिचानों नैन विना लखिये क्यों भेउ । येतौ निमिष परत भरि आवत निठुर विधाता दीन्हें येउ ॥ कहाभई जो मिली श्यामसों तू जान्यो जानै सबकोउ । सूरश्यामको नाम श्रवन सुनि दरशन नीके देत ने वोउ ॥ २९॥ सुही ॥श्यामहि मैं कैसे पहि चानों । कर्म कर्म करि एक अंग निहारति पलकवोट ताको नहिं जानों ॥ पुनि लोचन ठहराइ निहारति निमिष मेटि वह छबि अनुमानों। औरैभाव औरकछु सोभा कहौं सखी कैसे उरआनों छिन छिन अंग अंग छवि अगणित पुनि देखौं फिरिकै हठठानों । सूरदास स्वामीकी महिमा कैसे रसना एक वखानों ॥३०॥ सारंग ॥ श्यामसों काहेकी पहिचानि । निमिष निमिष वह रूप न वह छवि रति कीजै जेहिजानि ॥ एकटक रहत निरंतर निशि दिन मनमति सोचित सानि। एकौ पल सोभा की सीवा सकत न उरमह आनि ॥ समुझि नपरे प्रगटही निरखत आनंदकी निधि खानि । सखी यह विरह संयोग की समरस दुख सुख लाभकि हानि ॥ मिटति नघृतते होम अनिरुचि सूर सुलोचन बानि । इत लोभी उत रूप परमनिधि कोउन रहतं मितिमानि ॥३२॥ रामकली ॥ कहाकरों नीके कार हरिको रूपरेख नहिं पावति । संगहिसंग फिरतिनिशिवा सर नैननिमेष नलावति ॥ वधी दृष्टि यों डोर गुडी वश पाछे लागी धावति । निकटभये मेरी ए छाया मोको दुख उपजावति ॥ नखशिख निरखि निहारयोई चाइति मनमुरति अतिभावति । जानों नहीं कहांते निजछवि अंग अंगमें आवति।अपनीदेह आपुको वैरिनि दुरत नदुरी दुरावति । सूरश्याम सों प्रीति निरंतर अंतर मोहिं करावति॥३२॥धनाश्रीजो देखोंतौ प्रति करौंरी संगहि रहीं फिरौं निशिवासर चितते नेक नहीं विसरौंरी । कैसे दुरति दुराये मेरे उन विनधीरज नहीं धरौं ।