जाउँ तहीं जहँ रहैं श्यामघन निरखत एक टक ते नटरौंरी। सुनिरी सखी दशा यह मेरी सो कहिधौं अब कहा मरौंरी। सुरश्याम लोचन भार देखौं कैसे इतनी साध मरौरी॥३३॥ बिलावल ॥ हरि दरशनकी साध मुई। उड़िये उड़ी फिरति नैनति संग फरफूटै ज्यों आक रुई॥ जानों नहीं कहांते आवति वह मूरति मनमाहँ उई। विनदेखेकी यथा विरहनी अति जुर जरति नजाति छुई॥ कछु वै कहत कछू कहि आवत प्रेमपुलकि श्रमसेदचुई। सूखति सूर धान अंकुरसी विनु वरपाज्यों मूलतुई॥३४॥ धनाश्री ॥ सुनरी सखी दशा यह मेरी। जबते मिले श्याम घन सुंदर संगहि फिरति भई जनु चेरी॥ नीके दरश देत नहिं मौकों अंगनप्रति अनंगकी टेरी। चपलाते अतिही चंचलता दशन चमक चकचोंधि घनेरी॥ चमकतअंग पीतपट चमकत चमकति
माला मोतिनकेरी। सूर समुझि विधिनाकी करनी अतिरिस करति सौंह मुँह तेरी॥३५॥ मारू ॥ आजुके दिनको सखी आति नहीं नौलाख लोचन अंग अंग होते। पूरति साध मेरे हृदय माँझ देखत सबै छवि श्याम कोते॥ चित्तलोभी नैन द्वार अतिही सूक्ष्म कहा वह सिंधु छबिहै अगाधा।
रोम जितने अंग नैन होते संग रूप लेती निदीर कहति राधा॥ श्रवन सुनि सुनि दहै रूप कैसे लहै नैन कछु गहै रसनान ताके। देखि कोउरहै कोउ सुनि रहै जीभ विन सो कहै कहा नहिं नैनजाके॥ अंग विनुहै सबै नहीं एकौ फवे सुनत देखत जबै कहन लोरे। कहैं रसना सुनत श्रवन देखत नैन सूर सबभेद गुनि मनहिं तोरे॥३६॥ धनाश्री ॥ इनहुँमे घटिताई कीन्ही। रसना श्रवन नैनके होते की रसनाहीको नहिं दीन्ही॥ वैर कियो विधना हमको रचि याकी जाति अबै हम चीन्ही। निठुर निर्दयीयाते और न श्याम वैर हमसोंहै लीन्ही। यारसहीमें मगन राधिका चतुरसखी तबही लखि भीनी। सूरश्यामके रंगहि राची टरत नहीं जलते ज्यों मीन्ही॥३७॥ सोरठ ॥ धन्य
धन्य बडभागिनि राधा। नीके भजी नंदनंदनको मेटि भवन जन वाधा। नवल श्याम नवला तुमहूं हो दोउ तुम रूप अगाधा। मैं जानी यह वात हृदयकी रही नहीं कछु साधा॥ संगहि रहति सदा पियप्यारी क्रीडत करति उपाधा। कोककला वितपन्न भइहौ कान्हरूप तनु आधा॥ प्रेम उमंगि तेरे मुख प्रगट्यो अरस परस अवलाधा। सूरदास प्रभु मिले कृपाकरि गये दुरति दुखदाधा॥३८॥ धनाश्री ॥ कहि राधिका बात अब सांची। तुम अब प्रगट कही मो आगे श्यामप्रेमरस मांची॥ तुमको कहां मिले नँद नंदन जब उनके रंगराची। खरिक मिलेकी गोरस बेचत की बिपहरते बांची॥ कहे बनै छाडो चतुराई बात नहीं यह काची। सूरदास राधिका सयानी रूपराशि रस खाची॥३९॥ गौरी ॥ कबरी मिले श्याम नहिं जानो। तेरीसों कहि कहत सखीरी अबहूं नहिं पहिचानों॥ खरिक मिलेकी गोरस बेंचत की अबही की कालि। नैननि अंतर होत न कवहूं कहति कहारी आलि॥ येको पलहरि होत नन्यारे नीके देखे नाहीं। सूरदास प्रभु टरत न टारे नैननि सदा वसाहीं॥४०॥
॥ बिलावल ॥ श्याममिले मोहिं ऐसे माई श। मैं जलको यमुनातट आई॥ औचक आये तहां कन्हाई देखतहीमोहनी लगाई॥ तबहीते तनुसुरतिगवाई। सूधे मारगगई भुलाई॥ बिन देखे कल परे नमाई। सुरश्याम मोहनी लगाई॥४१॥ तबहीते हरि हाथ बिकानी। देह गेह सुधि सबै भुलानी॥ अंगसिथिल फई जैसे पानी। ज्यों त्यों करि गृह पहुँची आनी॥ बोले तहां अचानक बानी। द्वारे देखे श्याम विनानी॥ कहाकहौं मुनि सखी सयानी। सुर श्याम ऐसी मति ठानी॥४२॥ धनाश्री ॥ जादिनते हरि दृष्टि परेरी। तादिनते इनि मेरे नैननि दुख सुख सब विसरेरी॥ मोहन अंग गोपाललाल के प्रेम पियूष भरेरी। धसै यहां मुसुकानि बाहुलै रचि रुचि भवन करैरी॥
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दशमस्कन्ध-१०
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