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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३७७

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सूरसागर।


मोको सबहीं अंग कहा करौं गई भूलि सयान्यो॥ वे उतहीको गये हरष मन मेरी करनी समुझि अयान्यो। सूरश्याम सँग मन उठि लाग्यो मोपर वारंवार रिसान्यो॥५७॥ सारंग ॥ अचानक आयेरी हरि मेरे चितै तब होंरही छवि निहारि। कुंडल लोल कपोल रहे कच श्रमजलसों कर कंजसों ढारि॥ गुरुजन विच मैं आंगन ठाठी अतिहित दरशन दियो मया करि। सूरदास स्वामी अंतर्यामी वै हँसि चितये सुखकरि॥५८॥ गौरी ॥ मैं अपने कुलकानि डरानी। कैसे श्याम अचानक आये मैं सेवा नहिं जानी॥ उहै चूक जिय जानि सखी सुनि मन लै गए चुराइ। तनते जात नहीं मैं जान्यो लियो श्याम अपनाइ॥ ऐसे ढंग फिरत हरि घर घर भूलि कियो अपराध सूरश्याम मन देहि न मेरो पुनि करिहौं अनुराध॥ काफी ॥ मोही सांवरे सजनी तबते गृह मोको न सोहाई। द्वार अचानकह्वै गयेरी सुंदर बदन दिखाई॥ ओढे पीरी पामरी पहिरे लाल निचोल। भौहें कांट कटीलियां सखि कीन्ही बिनमोल॥ मोर मुकुट शिर सोहई अरु अधर धरे मुखबैन। मोहन मूरति हृदय बसै छवि लागि रही दोउनैन॥ श्यामरूपमें मन गोध्यो भलो बुरो कही कोई। सुरदास प्रभु संग गयो मन मनों उनहीं को होई॥६०॥ मोहन बिनु मन नरहै कहा करौं माईरी। कोटिभांति करि करि रहा समुझाईरी॥ लोकलाज कौनकाज मानत यदुराईरी। हृदयते टरत नाहिं मुख सुंदरताईरी॥ ऐसेहैं त्रिभंगी नवरंगी सुखदाईरी। सूरश्याम विन नरहों ऐसी बनिआईरी॥६१॥ मेरो मन नरहै कान्ह विना नैन तपै माई। नवकिशोर श्याम वरन मोहनी लगाई॥ बनकी धातु चित्रित तनु मोर चंद्र सोहै। बनमाला लुब्ध भवँर सुर नर मुनि मोहै॥ नटवर वपु भेष ललित कट किंकिनि राजै। मणि कुंडल मकराकृत तरुन तिलक भ्राजै॥ कुटिलकश अति सुदेस गोरज लपटानी। तडित बसन कुंद दशन देखिहों भुलानी॥ अरुन श्वेत कुंभ वज्र खचित पदिक सोभा। मणिकौस्तुभ कंठ लसत चितवत चित लोभा॥ अधर सधर मधुर बोल मुरली कलगावै। भ्रुवविलास मंद हास गोपिन्ह जिय भावै॥ कमलनैन चितके चैन निरखि मैन वारों। प्रेम अंश अरुझि रहो उरते नहिंटारों॥ गोप भेष धरि सखीरी संग संग डोलौं। तन मन अनुराग भरी मोहन संग बोलौं। नवकिसोर चितकेचोर पलकओट नकरिहौं। सुभग चरन कमलअरुन अपने उर धरिहौं॥ असन वसन शयन भवन हरिविनु न सुहाइ। विनु देखे कल नपरै कहाकरौं माइ॥ यशोमति सुत सुंदर तनु निरखि हो लोभानी। हरिदरशन अमल परयो लाजन लजानी॥ रूपराशि सुख विलास देखत बनि आवै। सूर प्रभु रूपकी सवि उपमा नहिपावै॥ गौरी ॥ मनमेरो हरि साथ गयोरी। द्वारे आय श्याम घन सजनी हँसि मोतनते संग लयोरी॥ ऐसे मिल्यो जाइ मोको तजि मानहुँ उनही पोषि जयोरी। सेवा चूक परी जो मोते मन उनको धौंकहा कियोरी॥ मोको देखि रिसात हते यह तेरे जिय कछु गर्व भयोरी। सूरश्याम छबि अंग भुलानो मन वच कर्म मोहि छाडि दयोरी॥६२॥ रामकली ॥ मैं मन बहुत भांति समुझायो। कहा करौं दरशनमें अटक्यो बहुरि नहीं घटआयो॥ इन नैननके भेद रूपरस उरमें आनि दुरायो। बरजतही वेकाज सुपतज्यों पलघो जोन सिधायो॥ लोक वेद कुल निदरि निडरह्वै करत आपनो भायो। मुखछबि निरखि बोधि निशिखग ज्यों हठि अपुनपो बँधायो॥ हरिको दोष कहा कहि दीजै यह अपने बल धायो। अति विपरीति भई सुनि सूर प्रभु मुरझ्यो वदन जगायो॥६३॥ बिलावल ॥ मनहि विना कहा करौं सहीरी। घरतजिकै कोऊ रहत पराये मैं तबहीते