पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३७७

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(२८) . . . सूरसागर। मोको सवहीं अंग कहा करौं गई भूलि सयान्यो। उतहीको गये हरष मन मेरी करनी समुझि : अयान्यो । सूरश्याम सँग मन उठि लाग्यो मोपर वारंवार रिसान्यो. ॥ ६७ ॥ सारंग ॥ अचानक आयेरी हरि मेरे चितै तब होरही छवि निहारि । कुंडल लोल कपोल रहे कच श्रमजल सों कर कंजसों ढारि। गुरुजन विच मैं आंगन ठाठी अतिहित दरशन दियो मया करि । सूरदास स्वामी अंतर्यामी वै हँसि चितये सुखकरिं ॥५८॥ गौरी ॥ मैं अपने कुलकानि डरानी। कैसे श्याम अचानक आये मैं सेवा नहिं जानी ॥ उहै चूक जिय जांनि सखी सुनि मन ले गए चुराइ । तनते जात नहीं मैं जान्यो लियोश्याम अपनाइ॥ऐसे ढंगफिरत हरि घर घर भूलि कियो अपराध सूरझ्याम मन देहि न मेरो पुनि करिहौं अनुराध ॥ काफी।। मोही सांवरे सजनी तवते गृह मोको न सोहाई। द्वार अचानकदै गयेरी सुंदर बदन दिखाई ॥ ओढे पीरी पामरी पहिरे लाल निचोल । भौहें कांट कटीलियां सखि कीन्ही बिनमोल ॥मोर मुकुट शिर सोहई अरु अधर धरे मुखवैन । मोहन मूरति हृदय बसै छवि लागि रही दोउनैन।।श्यामरूपमें मन गोध्यो भलो बुरो कही कोई। सुरदास प्रभु संग गयो मन मनों उनहीं को होई॥६०॥मोहन बिनु मन नरहै कहा करौं माईरी । कोटिभांति कार करि रहा समुझाईरीलोकलाज कौनकाज मानत यदुराई।हृदयते टरत नाहिं मुख सुंदरताईरी।। ऐसेहैं त्रिभंगी नवरंगी सुखदाईरी । सूरश्याम विन नरहों ऐसी बनिआईरी ॥६॥ मेरो मन नरहै. कान्ह विना नैन तपैमाई । नवकिशोर श्याम वरन मोहनी लगाई ॥बनको धातु चित्रित तनु मोर चंद्र सोहै । बनमाला लुब्ध भवर सुर नर मुनि मोहै।नटवर वपु भेष ललित कट किंकिनि राजै। मणि कुंडल मकराकृत तरुन तिलक भ्राजै ॥ कुटिलकश अति सुदेस गोरज लपटानी । तडित बसन कुंद दशन देखिहों भुलानी ॥ अरुन श्वेत कुंभ वज्र खचित पदिक सोभा। मणिकौस्तुभ कंठ लसत चितवत चित लोभाअधर सधर मधुर बोल मुरली कलगावाचवविलास मंद हास गोपिन्ह जिय भावै ॥ कमलनैन चितके चैन निरखि मैन वारों । प्रेम अंश अरुझि रहो उरते नहिं । दारों ॥ गोप भेष धरि सखीरी संग संग डोलौं । तन मन अनुराग भरी मोहन संग वोलौं । नवकिसोर चितकेचोर पलकओट नकरिहौं । सुभग चरन कमलअरुन अपने उर धरिहीं।। असन वसन शयन भवन हरिविन्तु न सुहाइ । विनु देखे कल नपरै कहाकरौं माइ॥ यशोमति सुत सुंदर तनु निरखि हो लोभानी । हरिदरशन अमल परयो लाजन लजानी रूपराशि सुख विलास देखत बनि आवै। सूर प्रभु रूपकी सवा उपमा नहिपावै ॥ गौरी ॥. मनमेरो हरि साथ गयोरी । द्वारे आय श्याम घन सजनी हँसि मोतनते संग लयोरी ।।: ऐसे मिल्यो जाइ मोको तजि मानहुँ उनही पोष जयोरी । सेवा चूक परी जो मोते मन उनको धौं कहा कियोरी ॥ मोको देखि रिसात हते यह तेरे जिय कछु गर्व भयोरी । सूरश्याम छवि अंग ।। भुलानो मन वच कर्म मोहि छाडि दयोरी॥६२॥ रामकली ॥ मैं मन बहुत भांति समुझायो । कहा करौं दरशनमें अटक्यो बहुरि नहीं घटआयो । इन नैननके भेद रूपरस उरमें आनि दुरायो। बरजतही वेकाज सुपतज्यों पलयो जोन सिधायो॥लोक वेद कुल निदरि निडरढ करत आपनो.. भायो । मुखछवि निरखि बोधि निशिखग ज्यों हठि अपुनपो. बँधायो ॥ हरिको दोष कहा: कहि दीजै यह अपने बल धायो । आत विपरीति भई सुनि सूर प्रभु मुरझ्यो वदन जगायो । ॥ ६३॥ विलावल ॥ मनहि विना कहा करौं सहीरी । घरतजिकै कोऊ रहत पराये मैं तबहीत