पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३७८

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- दशमस्कन्ध-१० (२८५) । फिरत वहीरी || आइ अचानकही लेगए हरि वार वारमें हटकि रहीरी । मेरो कह्यो सुनत काहेको लेगए हार हारके उतहीरी । ऐसी करत कहूंरी कोऊ कहाकरों मेंहारि रहीरी । सूरश्यामको यह न झिये ढीठ कियो मनकोउ नहींरी ॥ ६ ॥ टांडी | माखनकी चोरी तें सखि करन लगे अब चितहकी चोरी । जाके दृष्टिपरे नंदनंदन सोउ फिरति गोहन डोरी डोरी ॥ लोकलाज कुलकानि मेटि करि वन बन डोलति नवलकिसोरी । सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि जवते देखे निगम वानि भई भोरी ॥६५॥ आसावरी ॥ क्यों सुरझाऊँरी नंदलालसों अरुझि रह्यो मन मेरो। मोहन मूरति कहुँ नैक न विसरति कहि कहि हारि रही केसेहु करत नफेरो ॥ बहुत यतन घोरे घेरि राखति फेरि फेरि लरत सुनत नहि टेरो । सूरदास प्रभुके संग रसवश भई डोलत निशि वासर कहुँ निरखत पायो नईरो ॥६६॥ विलायल ॥ म अपनो मन हरत नजान्यो । कर धांगयो संग हरिके वह कीधा पंच भुलान्यो। कीपों श्याम हटकिहें राख्यो कीधा आपुर तान्यो । काहेते सुधि करी न मेरी मोपर कहा रिसान्यो। जवहीते हरि हा ह निकरे वरतवहि ते ठान्यो। सूरश्याम संग चलन कयो मोहिं कहो नहीं तव मान्यो । ६७ ॥ गनरी ॥ श्याम करतहें मनकी चोरी कसे मिलत आनि पहिलेही कहि कहि पतियां भोरी ।। लोकलाजकी कानि गमाई फिरत गुडीवश डोरी। ऐसेढंग श्याम अब सीखे चोर भयो चितकोरी ॥ माखनकी चोरी सहिलीन्ही वात रही वह थोरी । मुरश्याम भए निडर तवाहिते गोरस लेत अनोरी ॥ ६८॥ टोडी । सुनहु सखी हरि करत न नीकी । आपस्वारथीह मन मोहन पीर नहीं औरनकी । वेतो निठुर सदा में जानति वात कहत मनदीकी । कसे उनहिं वहां कार पाऊं रिसमेटों सब जीकी | चितवतन ही मोहि सपनेहुँको जान रनहीकी । ऐसे मिले सरके प्रभुको मनहुं मोलले वीकी ॥६९॥ भासायरी।। मादरी कृष्ण नाम जरते श्रवण सुन्योरी तबते भूलीरी भवन वावरीसी भईरी । भार भरि आवे नन चित न रहत चन वननिह सुध्यो भूली मनकी दशा सब और ह गईरी । कोमाता कौन पिता कान भनी कान भ्राता कौन मान कौन ज्ञान कान ध्यान मदन हईरी । सुरक्ष्याम जपते परेरी मेरे दृष्टि वाम काम धाम निशियाम लोकलाज फुलकानि नईरी।।७० }रामफटीपाराधातें हरिके रंगराची । तोते चतुर और नदि कोऊ घात कहों में सांचीति उनको मन नहीं चुरायो ऐसी हे तू काची । हरि तेरोमन अवाह चुरायो प्रथम तुहीद नाचीतुम अरु श्याम एकही दोऊ वाकी नाही वाची।सूर श्याम तेरे वश राधा कहति लीक में सांची ।। ७१ ॥ ननत्री ॥ तू काहेको करति सयानी । श्याम भए पश पहिले तेरे तर तू उनके हाय विकानी ॥ वाकी नहीं रही नेकहु अब मिली दूध ज्यों पानी । नंदनंदन गिरिधर बहुनायक तू तिनकी पटरानी ॥ तोसी कौन वढिभागिनि राधा यह नीके कार जानी । मृरश्याम संग हिलि मिलि खेलो अजहुँ रहति वीरानी ॥ ७२ ।। गोरठ ॥ मन हरि लीन्दों कुँवर कन्हाई । तबहीते में भई वीरानी कहा करों री माई।।कुटिल अलक भीतर अरु झाने अब निरूवारि नजाई । नेन कटाक्ष चारु अवलोकान मोतन गये बसाई ॥ निलजभई कुल कानि गवाई कहा टगोरी लाई। वारंवार कहति में तोको तेरे हिये न आई ॥ अपनी सी बुधि मेरी जानति उतनी में कहांपाई । मुरझ्याम ऐसी गति कीन्हीं देह दशा विसराई ।।७३ ॥ रामपली ॥ राधा हरि अनुराग भरी । गदगद मुख वाणी परकाशत देह दशा विसरी ॥ कहति इहै मन हरि हरि लेगये एही परनिपरी । लोक सकुच संका नहिं मानति श्यामदिरंग ढरी ॥ ससी सखीसों ॥ कहति वावरी येहि हमको निदरी । सुरश्याम संग सदा रहतिहे वुझेहू नकरी 1981 सूही बिलावल ।।