पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३७९

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(२८६) सूरसागर। . तुम जानति राधाहै छोटी । चतुराई अंग अंग भरीहै पूरण ज्ञान न बुद्धिकी मोटी॥ हमसों सदा दुरावति सोइहि बात कहै मुख चोटी पोटी। कबहुँ श्यामते नेक नविछुरति किये रहति हमसों हठ योटी|नँदनंदन याहीके वश हैं विवस देखि वेदी छवि चोटी।सूरदास प्रभु वै अति खोटे यह उनहींते अतिही खोटी॥१६॥ विलावल। सखी कहति तू बात गँवारी । याकी सार कैसे कोउ हैजाके वश हैं श्रीवनवारी|ब्रजभीतर इह रूपआगरी ब्रतलीन्हों दृढगिरवर धारी|प्रीति गुप्तहीकोहै. नीकी यापर मैं रीझीहौं भारी।सांची कहौं नेह ऐसोई पाछे मोको दीजो गारी।सूरदास राधा जो खोटी तो देखो यह कृष्ण पियारी ॥७६ ॥ गूलरी ॥ सुनहु सखी राधासरि कोहै । जेहरिहैं रतिपति मनमोहन याको सुख सो जोहै।।जैसे श्याम नारि यह तैसी सुंदर जोरी सोहै । इह द्वादश वेऊ दशद्वैके व्रज युवतिन मनमोहै । मैं इनको घटि वढि नहिं जानति भेद करैसो कोहै । सूरश्याम नागर इहं नागरि एक प्राणतनुद्वैहै ॥ ७७॥ गूजरी॥ मुनि सजनी ए ऐसे लागत । एक प्राण युग तन सुख कारण एकौ निमिष न त्यागत ॥ विछुरत नहीं संगते दोऊ बैठे सोवत जागत । पूरवनेह आज यह नाही मोसों सुनहु अनागत ॥ मेरी कही सांची तुम जानो कीजे आगत स्वागत । सूरझ्याम राधावर ऐसे प्रीतिहिते अनुरागत ॥ ७८ । नैतश्री ॥ सखी सखीसों धन्य कहै । इनको हम ऐसे नहिं जाने ब्रजभीतर ए गुप्त रहै ॥ धन्य धन्य तेरी मति साँची हम इनका कछु और कहै। राधा कान्ह एकहैं दोऊ तो इतनो उपहास सहै । वैदोऊ एक दूसरी तूहै तोहूको सखि श्याम चहै। सूरश्याम धनि अरु राधा धान तुहूं धन्य हम वृथा वहै ।। ७९ ॥ धनाश्री ॥ धन्य धन्यं यह तेरी. बानी । तैं नीके हरिको पहिचानें अब हम तुमको जानी ॥ राधा आधा देह श्यामकी तू उनकी विचवानी। राधाइते अधिक श्यामसों तेरी प्रीति पुरानी ॥ जो हरिकी संगिनि तू नाहीं आदिने हक्यों मानी । सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि यह रस कथा व खानी॥ ८॥ पूरवी ॥ हे माई राधा मोहन सहज सनेही । सहजरूप गुण सहज लाडिली एक प्राणदै देही ॥ सहज माधुरी अंग अंगप्रति सहज सदावन ग्रेही । सूरश्याम श्यामा दोऊ सहजहि सहज प्रीति कार लेही ॥८॥ आसावरी ॥ राधा नँदनंदन अनुरागी । भव चिंता हिरदै नहिं एको श्याम रंग रस पागी॥ हरद चून रंग पय पानी ज्यों दुविधा दुहुँकी भागी।तनमन प्राण समर्पण कीन्हों अंग अंग रतिखागी॥त्रजवनिता अवलोकन करि करि प्रेम विवस तनत्यागी । सूरदास प्रभुसों चितलाग्यो सोवत ते मनुजागी ॥ मारू ॥ गोपी श्यामरंग राची । देह गेह सुधि विसारी वढी प्रीति सांची ॥ दुविधा उर दूरि भई गई मति वह काची। रांधाते आप विवस भई उपरि गई नाची ॥ हरितजि जो और भजे पुहंमि। लीक खांची। मात पिता लोक भीत वाकी नहिं वाची।। संकुच जवहिं आवै उर वारंवार झांची। सूरश्याम पद पराग ताहीमें माची ॥ ८२॥ मारू ॥ श्याम जल सुजल जल ब्रजनारि खोरै । नदी माला जुजल तटभुजा अति सबल धार रोमावली यमुन भोरै ॥ नयन ठहरात नाहि वहत अति तेजसी तहां गयो चित्त धीरज सँभारै । मन गयो तही आपुन रही निकट जल एकएक अंग छवि सुधि विचारै । कति स्नान सब प्रेम बुडकी देहि समुझि जिय. होइ भजि तीर आवै । सूर प्रभु श्याम जलराशि ब्रजवासीन करति अनुमान नहि पारपावै ॥ ८३ ॥ बिलावल ॥ इयामरंग राची ब्रजनारी । और रंग सब दीन्ही डारी ॥ कुसुमरंग गुरुजन पितुमाता। हरितरंग भैनी अरु भ्राता ॥.दिनाचारि में सब मिटि जैहै।श्यामरंग : | अजरायल रैहै । उज्ज्वलरंग गोपिका नारी। श्यामरंग गिरिवरके धारी। श्यामहि में सबरंग वसरो।