॥ धनाश्री ॥ तुम कुलवधू निलज जिनि ह्वैहौ। यह करनी उनहीको छाजै उनके संग न जैहो॥ राधा कान्ह कथा ब्रज घर घर ऐसे जनि कह वैहो॥ यह करनी उन नई चलाई तुम जनि हमहि हँसैहो। तुमहौ बडे महरकी बेटी कुल जिननाम धरैहो॥ सूरश्याम राधाकी महिमा इहै जानि सरमैहो ॥९४॥ टोडी ॥ यह सुनिकै हँसि मौनरहीरी। ब्रज उपहास कान्ह राधाको यह महिमा जानी उनहीरी॥ जैसी बुद्धि हृदयहै इनके तैसी यै मुख बात कहीरी। रविके तेज उलूक नजानै तरनि सदा पूरन नभहीरी॥ विषको कीट विषहि रुचिमानै जानै कहा सुधारसहीरी। सूरदास तिल तेल सुवादी स्वाद कहा जानै घृत हीरी॥९५॥ सोरठ ॥अहीर जाति गोधनको मानै नँदनंदन सुर नर मुनि वंदन तिनकी महिमाक्यों येजाने॥ धनि राधा उपहास धन्य यह सदा श्याम के गुणगाने। परम पुनीत हृदय अति निर्मल बार बार बाजही वखाने॥ श्यामकामकी पूरनहारी ताको कुलटी करि पहिचानै। सूरदास ऐसे लोगनको नाउँ नलीजै होत विहानै॥९६॥ विहागरो ॥ विधिना संगति मोहिं यह दीनी। इनिको नाम प्रात नहिं लीजै कहा निठुरही कीनी॥ मनमोहन गोहनविन अबलौं मानो वीते युगचारि। विमुखनमेंते कवधौं छूटौं कब मिलि हौ वनवारि॥ एक एक दिन विहात कैसेहूं अबतौ रह्यो नजाइ। सूरश्याम दरशन विन पाये वार वार अकुलाइ॥९७॥ विमुखजननिको संग न कीजै। इनके विमुख वचन सुनि श्रवननि दिन दिन देही छीजै॥ मोको नेक नहीं येभावत परवशको कहा कीजै। धृगजीवन ऐसो बहु दिनको श्याम भजन पल जीजै॥ धृग ये घर धृग ये गुरुजनको इनमें नहीं वसीजै। सूरदास प्रभु अंतर्यामी इहै जानि मन लीजै॥९८॥ नट ॥ राधा श्याम रंग रंगी। रोमविरोमनि भिदि गयो सब अंग अंग पगी। प्रीतिदै मन लैगए हार नंद नंदन आप। श्यामरस उनमत्त नागरि दुरत नहिं परताप॥ चली यमुना जाति मारग हृदय इहै विचार। सूर प्रभुको दरश पावै निगम अगम अपार॥९९॥ धनाश्री ॥ चितको चोर अबहिं जोपाऊं। हृदय कपाट लगाइ जतनकरि अपने मनहि मनाऊं॥ जबहिं निशंक होति गुरुजनते तेहि औसर जो आवै। भुजनि धरौं भरि सुदृढ मनोहर बहुत दिननिको फलपावै॥ लैराखौं कुच वीचिचापि कार प्रति दिन को तनुताप विसारौं। सूरदास नंदनंदनको गृह गृह डोलनिको श्रमटारौं॥॥१५०॥ बिलावल ॥ इतते राधा जाति यमुनतट उतते हरि आवत घरको। कछिकाछिनी भेष नटवरको वीच मिली मुरलीधरको। चितैरही मुख इंदु मनोहर वा छबिपर वारतितनको। दूरिहुते देखतही जाने प्राणनाथ सुंदर घनको॥ रोम पुलकि गदगद वाणी कहि कहाजात चोरे मनको। सूरदास प्रभु चोरी सीखे माखनते चितवित धनको॥१॥ इह नहोइ जैसे माखन चोरी। तब वह मुख पहिचानि मानि सुख देती जान हानि हुती थोरी॥ उन दिननि सुकुआर हते हरि हौं जानत अपनो मन भोरी। ब्रजवासि बास वडेके ढोटा गोरसकारण कानि नतोरी॥ अबभए कुशल किसोर नंदसत हौं भई सजग समान किसोरी। जात कहा बलि वांह छडाए मूसेमन संपति सब मोरी। नखशिखलौ चितचोर सकल अंग चीन्हे पर कत करत मरोरी। येक मुनि सूर हरयो मेरो सर्वस अरु उलटी डोलों संगडोरी॥२॥ गौरी ॥ भुजा पकार ठाढे हरि कीन्हे। बाँह मरोरि जाहुगे कैसे मैं तुमको नीके करि चीन्हें॥ माखनचोरी करत रहे तुम अबतो भए मनुचोर। सुनत रही मन चोरतहैं हरि प्रगट लियो मनमोर॥ ऐसे ढीठ भए तुम डोलत निदरे ब्रजकी नारि। सूरश्याम मोहू निदरौंगे देत प्रेमकी गारि॥३॥ सारंग ॥ बहु बलुकितकुजानौ यदुराइ। तुम जो तरकिमो अबलापै तौ चलेहौ भुजा छडाइ॥ कहिअतहो अति चतुर सकल अंग आवत बहुत
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सूरसागर।
