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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३८६

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दशमस्कन्ध-१०


मुख परम विराजै। मानों शशि पारसविच भ्राजै॥ मोतिसरी माला कहां गवाई। जीव विना करिहै वह भाई॥ जाधौं देखि कहूंधौं पावै। सूर जोरिकर विधिहि मनावै॥४२॥ गुंडमलार ॥ कहां वह मोतीसरी जो गँवाईरी। बाबासों और लेहौं मँगाईरी॥ वै कहा करैगी सेति राखैरी। तादिना तूहीधौं कितिक भाषैरी॥ नैन भरिलोत कह और नाहीरी॥ छोर मोतिसरीको मोहिं रिसाहिरी॥ संदूखन भरि धरे ते न खोलैरी। कहा मोसोंखीझ बोलैरी॥ सुता वृषभानुकी हरष मनहीरी सूरप्रभु सैन दै वोले वनहीरी॥४३॥ गौरी ॥ सुनि राधा अब तोहि न पत्यैहों। और हार चौकी हमेल अब तेरे कंठ ननैहीं। लाख टकाकी हानि करी तैं सो जब तोसों लैहौं। हार विना ल्याये लडिबोरी घरनहिं पैठन दैहौं। जब देखों ग्रीवहै मोतसरी तबहीं तो संच पैहौं। नातर सूर जनमभरि तेरो नाउँ नहीं मुख लेहौं॥४४॥ कल्याण ॥ सुनिरी राधा अतिलडवौरी यमुनगई जब संग को नही। बूझति नहीं जाइ अपनिनको न्हातरही जब जोन जोनही॥ काको नाउँ धरौं तो आगे ललिता चंद्रावली नहीं नहीं। बहुत रही संग सखी सहेली कहौं कहा मैं सैन सैनही॥ देखोजाइ यमुनतट हीमें जहां धरिकमैं न्हात रहीही। सूरजाइ बुझौ धौं वाको ब्रजयुवती एक देखिरहीही॥४५॥ कल्याण ॥ जैहे कहा मोतिसरी मेरी। अब सुधि भई लई वाहीने हँसत चली वृषभानु किसोरी॥ अबही मैं लीन्हे आवतिहौं मेरे संग आवै जिनिकोरी। देखोधौ कह करिहौ वाको बडे लोग सीखतहै चोरी॥ मोको आजु अबेर लगीहै ढूंदूंगी ब्रज घर घर खोरी। सूर चली निधरकह्वै सबसों चतुर राधिका बातन भोरी॥४६॥ नंद सुअन बार बार रवनीपंथ जोहैरी। लोचन हरि करि चकोर राधा मुख चंद ओर देखत नहिं तिमिर भोर मनही मन मोहैरी॥ नैना दोउ भृंगरूप बदन कमल शरदरूप तरनिको प्रकाश मिलन विना चपल डोलैरी लोचन मृग सुभग जोर राग रूप भएभोर भोह धनुष शर कटाक्ष सुरति व्याध तोलैरी। कीधौं एकछुक चारु प्यारी मुख रूप सार श्याम देखि रीझे मन इहै सांच मानी। सुरश्याम सुखदधाम राधाहे जाहि नाम आतुर पियजानि गवन प्यारी अतुरांनी॥४७॥ देवगंधार ॥ श्याम अति राधा विरह भरे कबहुँ सदन कबहूँ आँगनही कबहूं पौंरि खरे॥ जननी आतुर करति रसोई देखि देखि हरिजात। कहा अवेर करति तू अबरी भूखलगी अतिमात॥ मैं बलिजाउँ श्मामघन सुंदर अब वैठौ तुम आई। सूर सखा संग सबै बोलावहु हलघर नहीं बताई॥४८॥ बिलावल ॥ महरि कह्यो नँदलाडिले सँग सखा बोलावहु। करैं कलेऊ आइकै हलधरहु बोलावहु॥ हलधर लयो बोलाइकै मोहन करि आदर। दाऊजी चलिजेंइये यह कहि मनसादर॥ कान्ह जाइ तुम जेवहू मोको रुचिनाहीं। सखा संग हरि लैगए वैठे एक ठाहीं॥ पटरस व्यंजनको गनै बहुभांति रसोई। सरस कनिक वेसन मिलै रुचि रोटी पोई॥ प्रेमसहित परुसन लगी हलधरकी माता। ग्वाल सखा सब जोरिकै बैठे नँदताता॥ सखा सबै जेवन लगे हरि आयसु दीन्हो। सूरदास प्रभु आपहू करकोरहि लीन्हो॥४९॥ आसावरी ॥ नंदमहर घरके पिछवारे राधा आइ बतानीहो। मनौ आँवदल मोर देखिकै कुहकि कोकिला वानीहो। झूठेहिनामलेत ललिताको काहे जाहु परानीहो। वृंदावन मग जाति अकेली शिरलिये दही मथानीहो॥ मैं बैठी परखति ह्याँरैहों श्याम तबहिते जानीहो। कोक कला गुणआगरि नागरि सूर चतुरई ठानीहो॥५०॥ रामकली ॥ श्यामसखा जेंवतही छाँडे। करको कौर डारि पनवारे नागरि सूर आपु चले अतिचाँडे॥ चकृतभई देखत जननीदोउ चकृत भए सब ग्वाल। अति आतुर तुम चले कहांहो हमाह कहो गोपाल॥ अबहीं एक सखा यह कहि गयो गाइ रही