पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशमस्कन्ध-१० (२९३) मुख परम विराजै । मानों शशि पारसविच भाजै ॥ मोतिसरी माला कहां गवाई । जीव विना करिहै वह भाईजाधौं देखि कहंधौं पावै । सूर जोरिकर विधिहि मनावै ॥४२॥ गुंडमलार ॥ कहां वह मोतीसरी जो गँवाईरी । बावासों और लेहों मँगाईरी ॥ वै कहा करेगी सेति राखैरी । तादिना तूहीधौं कितिक भापैरी ॥ नैन भरिलोत कह और नाहीरी ॥ छोर मोतिसरीको मोहिं रिसा हिरी|संदूखन भार धरे ते न खोलैरी । कहा मोसोखीझ बोलैरी ॥ सुता वृपभानुकी हरप मनहीरी सूरप्रभु सैन दै वोले वनहीरी ॥४३॥ गौरी ॥ सुनि राधा अव तोहि न पत्यैहों। और हार चौकी हमेल अब तेरे कंठ ननहीं। लाख टकाकी हानि करी तैं सो जव तोसों लहौं । हार विमा ल्याये लडिवोरी घरनहि पैठन दैहौं । जब देखों ग्रीवहै मोतसरी तवहीं तो संच पैहौं । नातर सूर जनमभार तेरो नाउँ नहीं मुख लेहौं ॥ ४४ ॥ कल्याण ॥ सुनिरी राधा अतिलडयोरी यमुनगई जब संग को नही। बूझति नहीं जाइ अपनिनको न्हातरही जव जोन जोनही । काको नाउँ धरौं तो आगे ललिता चंद्रावली नहीं नहीं । वहुत रही संग सखी सहेली कहीं कहा में सैन सैनही ॥ देखोजाइ यमुनतट हीमें जहां धरिकमें न्हात रहीही । सूरजाइ बुझौ धौं वाको वजयुवती एक देखिरहीही ॥४६॥ कल्याण ॥ जैहे कहा मोतिसरी मेरी । अब सुधि भई लई वाहीने हँसत चली वृपभानु किसोरी ॥ अवही मैं लीन्हे आवतिहों मेरे संग आवै जिनिकोरी । देखोधी कह करिही वाको वडे लोग सीखतहै चोरी ॥ मोको आजु अवेर लगीहै ढूंदूंगी ब्रज घर घर खोरी । सूर चली निधरकद्वै सवसों चतुर राधिका वातन भोरी ॥ १६॥ नंद सुअन बार बार रखनीपंथ जोहरी । लोचन हरि करि चकोर राधा मुख चंद ओर देखत नहिं तिमिरभोर मनही मन मोहरी ।। नैना दोउ भृगरूप बदन कमल शरदरूप तरनिको प्रकाश मिलन विना चपल डोलेरी लोचन मृग सुभग जोर राग रूप भएभोर भोह धनुप शर कटाक्ष सुरति व्याध तोरी । कीधौं एकछुक चारु प्यारी मुख रूप सार श्याम देखि रीझे मन इहे सांच मानी । सुरश्याम सुखदधाम राधाहे जाहि नाम आतुर पियजानि गवन प्यारी अतुरांनी॥४७॥देवगंधाराश्याम अति राधा विरहम रेकबहुँ सदन कबहूँ आँगनही कवहूं पोरि खरे ॥ जननी आतुर करति रसोई देखि देखि हरिजात । कहा अवर करति तू अवरी भूखलगी अतिमात ॥ में बलिजाउँ इमामवन सुंदर अब वैठौ तुम आई। सूर सखा संग सबै बोलावहु इलघर नहीं बताई ॥४८॥ बिलावल ॥ महरि कह्यो नदला डिले सँग सखा बोलावहु । करें कलेऊ आइकै हलधरहु वोलावहु ॥ हलधर लयो बोलाइकै मोहन करि आदर । दाऊजी चलिजइये यह कहि मनसादर ॥कान्ह जाइ तुम जेवहू मोको रुचिनाही। सखा संग हरि लेगए वैठे एक ठाहीं ॥ पटरस व्यंजनको गनै बहुभांति रसोई । सरस कनिक वेसन मिलै रुचि रोटी पोई ॥ प्रेमसहित परुसन लगी हलधरकी माता । ग्वाल सखा सब जोरिक वैठे नँदताता ।। सखा सवै जेवन लगे हरि आयसु दीन्हो । सूरदास प्रभु आपहू करकोरहि लीन्हो ॥४९॥ आसावरी ॥ नंदमहर घरके पिछवारे राधा आइ बतानीहो । मनौ आँवदल मोर देखिकै कुह कि कोकिला वानीहो । झूठेहिनामलेत ललिताको काहे जाहु परानीहो । वृंदावन मग जाति । अकेली शिरलिये दही मथानीहो ॥ में बैठी परखति ह्यारहों श्याम तबहिते जानीहो । कोक कला गुणआगरि नागरि सूर चतुरई ठानीहो।॥५०॥ रामकली||श्यामसखा जैवतही छाँडेकरको कौर डारि पनवारे नागरि सूर आपु चले अतिचाँडे ॥ चकृतभई देखत जननीदोउ चकृत भए सब ग्वाल । | अति आतुर तुम चले कहांहो हमाह कहो गोपाल ॥ अवहीं एक सखा यह कहि गयो गाइ रही - -- - - - - -