पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३९०

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दशमस्कन्ध-१० (२९७) सखिनसों कहति कही मिली माई।। हार पहिलाइ अतिगई अकुलाइके सुताके नाउँ इक उहै मेरे । सूर यह वात जो सुन अवही महर कहेंगे मोहिं ये ढंग तेरे।। ८० ॥ सोरठ ॥ राधा उर डरात गृह आई। देखतही कीरति महतारी हरपि कुँवार उरलाई ॥ धीरज भयो सुता माता जिय दीर गयो तनु सोच । मेरीको में काहे बासी कहा कियो यह पोच ॥ लेरी मैया हार मोतसरी जाकारण मोहिं नासी । सूरराधिकाके गुण ऐसे मिली आइ अविनाशी ॥ ८१ ॥ विभागरो ॥ परमचतुर वृपभानु दुलारी।यह मति रची कृष्णमिलिवेको परमपुनीत महारी । उत सुखदियो नंदनंदनको इतहि हरप महतारी। हारइतो उपकार करायो कबहु न उरतेटारी॥ जे शिव सनक सनातन दुर्लभ ते वश कियो कुमारी । सूरदास प्रभु कृपा अगोचर निगमनहूं ते न्यारी ॥ ८२ ॥ भैरव ॥ श्याम भए वश नागारिके। नैन कटाक्ष क अवलोकनि झेि घोप उजागरके ॥ चित मधुकर रस कमल कोशको प्यारी वदन सुधागरिको । लोकलाज संपुटनाह छूटत फिरि फिरि आवत वागरिको । मिलन प्रकाश मनावत मन मन कहा कहीं अनुरागरिको। सूरश्याम यश वाम भएहें धान ऐसी बड़भागरिको।।८।मामानरमाश्याम भए वृपभानु सुता वश ओर नहीं कछुभावहो। जो प्रभुतिहूं भुवनको नायक सुर मुनि अंत न पविहो। जाको शिव ध्यावत निशि वासर सहसासन जहि गावहो । सो हरि राधा वदन चंदको नेनचकोरवसावहोजाको देखि अनंग अनागत नागरि छवि भरमावहो।मृरदयाम श्यामावश ऐसे ज्यों सँग छाह दुलापहो।।८।। नेतनी ॥कवहूं श्याम यमुनतट जाताकवहूं कदम चढत मग देखत मनराधाविनात अकुलाता कबहुं जातवन कुंज धामको देखि रहत कछु नहीं सुहातातव आवत वृपभानपुराको अति अनुराग भरे नंदतात ।। प्यारी हृदय प्रग टही जानति तब मन माझ सिहात । सूरदास प्रभु नागरिक र नागर श्यामलगात ॥ ८५ ॥ गगरी ॥ राधा श्याम श्याम राधारंग। पियप्यारीको हृदय राखत प्यारी रहति सदाहरिके सँग ॥ना गरि नेन चकोर पदन शशि पिय मधुकर अंबुज सुंदरि मुख । चाहत भरस परस ऐसे कार हरि नागर नागरि नागर सुख ।। सुख दुख सोचि रहत मनही मन तब जानत तनको यह कारन । सुन ईमुर कुलमानि जीय दुस दोउ फल दोर करत विचारना॥८६॥पिटापर यमुना चली राधिका गोरी। युवति बूंद विच चतुरनागरी देस नंद सुमन तहि खोरी ॥ व्याकुल दशा जानि मोहनकी मनही मन डरपी उन ओरी । चहर काम फंग परे कन्हाई अब धी इनहि बुझावे कोरी ॥ इत सखि यनसों पात बनावति अतिढे गई तनकसी भोरी । सुर उतहि हरि भाव वतावत धीर धरौ मिलिहे दोर जोरी ।। ८७॥ गगनश्री । तब राधा इक भाव बतावति । मुख मुसकाइ सकुचि पुनि लीन्हो सहज चली भटक निरुवारति ॥ एक ससीआवत जल लीन्हे तासों कहति सुनावति । टेरि कह्यो घर मेरे जहों में यमुनाते आवति ।। तब सुखपाइ चले हरि घरको हरि प्याराहि मनावत । सूरज प्रभु वितपनकोक गुन ताते हरि हरि ध्यावत ॥ ८८॥ धनाश्री ।। श्यामको भाव देगई राधा । नारि नागरि न काहू लख्यो कोऊ नहीं कान्ह कछु करतह बहुत अनुराधाचित हरि वदन याको हँसत में टखी वेट तर्हि गए कछु इरप किये। भावतो भावके सींग नाहीं सुने ये महा चतुर चतुरई लिये। आजुद्दी रनि दोउ संग ये मिलहिगे हरे कहि परसपर मनहि मन जानी। सूर ब्रजनागरी नारि नागारिन सँग फिरी बन तुरत ले यमुन पानी।।८९॥टोगभाव दियो अवगेश्याम । अंग अंग आ भूपन साजति राजति अपने धामारितिरण जानि अनंग नृपति सों आपनृपति राजति वल जोरति । अति सुगंध मदन मैंगोंग उनि पनि पनि भूपन भेपति॥वीरा हार चीर चोली छवि सैना सजि शृंगार।