ऐसी करौ कछु बहुरि न जाहु लजाइ॥९॥ टोडी ॥ ज्वाब कहा मैं देहौं उनको। की आवति अबही की छिनकहि चोर कहैगी मोको॥ कैसे हूं पति रहै विधाता अब यह करौ सँभारि। घेरोहि रहति दराऊं कबलों ऐसी नागीर नारि। नैना भए चकोर रहत है मुख शशि पूरण श्याम। सुनहु सूर यह दशा हमारी ये ब्रजकी सब वाम॥१०॥ जैतश्री ॥ ये सब मेरेहि खोज परी। मैंतौ श्याम मिली नहिं नीके आजु रही निशि संग हरी॥ युवतीहैं सबदई सवाँरी घर बनहू में रहति भरी। कैसेधौं यह साथ मिटैगी कहां मिलै जो एक घरी॥ प्रगट करै तो बनति नहीं कछु लोक सकुच कुल लजामरी। ते परगट अबहीं इन देखे सूरज प्रभु ब्रजराज हरी ॥११॥ धनाश्री ॥ तब नागरि मन हरष बढ़ायो। परम कुशल राधा हरि प्यारी हृदय बुद्धि उपजायो॥ अब आवैं कैसेहु अँग बूझै ज्वाब
मनहि ठहरायो। अति आनंद पुलक तनु कीन्हो सोच मोच विसरायो॥ प्रगट गए जैसे नँदनंदन उहै ध्यान उपजायो। सूरदास प्रभु रूप बखानो इनको जो दरशायो ॥१२॥ ललित ॥ राधा हरिके गर्व भरी। सखियनको आगम जब जान्यो बैठी रही खरी। उत ब्रजनारि संग जुरिकै वै हँसति करति परिहास। चलौ नजाइ देखियेरी वै राधाको अवास॥ कैसो वदन श्रृंगार कौन विधि अंगदशा भइ कैसी। सूरश्याम संग निशि रस कीये निधरकह्वैहै वैसी॥१३॥ जैतश्री ॥ सुनो सखी राधाके मनकी यह करनी सखि जान्यो। जब हम जाति चली यमुना को तबही मैं वाको पहिचान्यो॥ तबहि सैन दे श्याम बुलायो गृह आवन को भाउ। उनके गुण धौं को नहिं जानत चतुर शिरोमणि राउ॥ सुनहु सखी अंतर नहिं कीजिय मूड़ परै अपनही। सुरश्याम सुख हमहि दुरावति आज मिले सपनेही॥१४॥ सारंग ॥
तुम जो कहति राधिका भोरी। आजु रही अब कहा दुराई कौन दिनन की थोरी ॥ छोटी तेई हैं खोटी साजति माजति जोरी। बेंदी भाल नयन नित आंजति निरखि रहति तनु गोरी॥ चमकति चलै बदन मटकावै ऐसी जोबन जोरी। सूर सखी तेहि कहति अयानी मन मोहनहि ठगोरी॥१५॥ रामकली ॥ राधाको मैं तबहीं जानी। अपने कर जे मांग सँवारै रचि रचि बेनी बानी॥ मुख भरि पान मुकुर लै देखति तिनसों कहति अयानी। लोचन आंजि सुधारति काजर छाँह निरखि मुसुकानी॥ बार बार उरजनि अवलोकति उनते कौन सयानी। सूरदास जैसीहै तैसी मैं वाको पहिचानी॥१६॥ गुंडमलार ॥ राधिका सदन ब्रजनारि आई। रही मुख मंदिकै बचन बोलै नहीं नैनकी सैन दै दै बुलाई॥ इनि तबहिं लखि लई रचति हैं चतुरई बुद्धि रचिकै अबहिं और कैहै। चोर चोरी करै आपने अंघ बल प्रगट कै है तुमहिं नहिं पत्यै है॥ भौंह देखो निरखि ज्वाब देहै कौन तुमहुँ में राखति गर्व बोलि देखौं। सूर प्रभु संगते अति निधरक भई नैन मुख ओर तुम नहीं पेखौ॥
॥१७॥ सूही ॥ आजु कहा मुख मूंदि रहीरी। सुनति नहीं हो कुँवरि राधिका कापर। रिसकरि मौन गहीरी॥ हमको यह काहे न सुनावति हम हैं तेरी संग सखीरी। यह कहि कहि मुसकात परस्पर चतुर
नारि यह तबहिं लखीरी॥ कीधौं ध्यान करति देवनिको कीधौं ऐसी प्रकृति परीरी। सूर जबहिं आवति हम तेरे तब तब ऐसी धरनि धरीरी॥१८॥ बिलावल ॥ बार बार युवती सबै राधा सोंभाषैं। तुम दुराव करती हौ हम तुम सों राषैं॥ इतनो सोच परचो कहा मुख ज्वाब न आवै। हम तौ हैं तेरी सखी सो कहि न सुनावै॥ कछु दिनते तेरी दशा तनु रहति भुलाये। निठुर भई कापर इतो कह सूर सुभाये॥१९॥ गुंडमलार ॥ राधिका कहति ये करति हांसी। रहति मुख मुख हेरि नैनकी सैन दै कहति मोको कृष्ण उपासी॥ सुनहंरी सखी मैं कहा तुम सों कहौं कहा बूझाति मोहिं कहति
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सूरसागर।
