पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३९३

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. .. (३००) सूरसागर। ऐसी करौ.कछ बहुरि न जाहु लजाइ॥९॥ टोडी ॥ ज्वाब कहा मैं देहौं उनको। की आवति अबही की छिनकहि चोर कहैगी मोको ।। कैसे हूं पति रहै विधाता अब यह करौ सँभारि । घेरोहि रहति दराऊं कबलों ऐसी नागीर नारि । नैना भए चकोर रहत है मुख शशि पूरण श्याम । सुनहु सूर यह दशा हमारी ये ब्रजकी सब वाम॥१०॥जैतश्री ॥ ये सब मेरेहि खोज परीमैतौ श्याम मिली नहिं. नीके आजु रही निशि संग हरी ॥ युवतीहैं सबदई सवारी घर बनहू में रहति भरी। कैसेधौं यह साथ मिटैगी कहां मिले जो एक घरी ॥ प्रगट करै तो बनति नहीं कछु लोक सकुच कुल लजा मरी। ते परगट अवहीं इन देखे सूरज प्रभु ब्रजराज हरी ॥११॥धनाश्री ॥ तब नागरि मन हरपं बढ़ायो । परम कुशल राधा हरि प्यारी हृदय बुद्धि उपजायो ॥ अव आवे कैसेहु अंग बूझै ज्वाब मनहि ठहरायो । अति आनंद पुलक तनु कीन्हो सोच मोच विसरायो ॥ प्रगट गए जैसे नँदनंदन उहै ध्यान उपजायो । सूरदास प्रभु रूप बखानो इनको जो दरशायो ॥ १२ ॥ ललित ॥ राधा हरिके गर्व भरी। सखियनको आगम जब जान्यो बैठी रही खरी । उत ब्रजनारि संग जुरिकै बै हँसति करति परिहास । चलौ नजाइ देखियेरी वै राधाको अवास ॥ कैसो वदन शृंगार कौन विधि अंगदशा भइ कैसी । सूरश्याम संग निशि रस कीये निधरक है वैसी ॥ १३ ॥ जैतश्री ॥ सुनो सखी राधाके मनकी यह करनी सखि जान्यो । जब हम जाति चली यमुना को तवही मैं वाको पहिचान्यो ॥ तबहि सैन दे श्याम बुलायो गृह आवन को भाउ । उनके गुण धौ को नहिं जानत चतुर शिरोमणि राउ ॥ सुनहु सखी अंतर नहि कीजिय मूड़ परै अपनही । सुरश्याम सुख हमहि दुरावति आज मिले.सपनेही ॥१४॥ सारंग ॥ तुम जो कहति राधिका भोरी। आजु रही अब कहा दुराई कौन दिनन की थोरी ॥ छोटी तेई हैं खोटी साजति माजति जोरी। बेंदी भाल नयन नित आंजति निरखि. रहति तनु गोरी ॥चम कति चलै बदन मटकावै ऐसी जोबन जोरी। सूर सखी तेहि कहति अयानी मन मोहनहि ठगोरी १६॥रामकली।। राधाको मैं तबहीं जानी। अपने कर जे मांग सँवारै राच रचि बेनी बानी।मुख भरि पान मुकुर ले देखात तिनसों कहति अयानी। लोचन आँजि सुधारति काजर छाँह निरखि मुसुकानी॥बार बार उरजनि अवलोकति उनते कौन सयानी । सूरदास जैसीहै तैसी मैं वाको पहि चानी ॥ १६॥ गुंडमलार ॥ राधिका सदन ब्रजनारि आई।रही मुख मंदिकै बचन बोलै नहीं नैनकी सैन दै दै बुलाई ॥ इनि तबहिं लखि लई रचति हैं चतुरई बुद्धि रचिकै अवहिं और कैहै । चोर चोरी करै आपने अंघ बल प्रगट क है तुमहिं नहिं पत्य है।भौंह देखो निरखि ज्वाब देहै कौन तुमहुँ में राखति गर्व बोलि देखौं । सूर प्रभु संगते अति निधरक भई नैन मुख ओर तुम नहीं पेखौ ॥ १७॥सूही ॥आज कहा मुख मूदि रहीरी।सुनति नहीं हो कुँवरिराधिका कापर रिसकरिमौन गही री॥ हमको यह काहे न सुनावति हम हैं तेरी संग सखीरी। यह कहि कहि मुसकात परस्पर चतुर नारि यह तबहिं लखीरी ॥ कीधौं ध्यान करात देवनिको कीधौं ऐसी प्रकृति परीरी । सूर जबहिं आवति हम तेरे तब तब ऐसी धरनि धरीरी ॥१८॥बिलावल ॥ बार बार युवती सबै राधा सों भाएं। तुम दुराव करती हो हम तुम सों राय।।इतनो सोच परचो कहा मुख ज्वाब न आवै।हम तो है तेरी सखी सो कहि न सुनावै॥कछु दिनते तेरी दशा तनु रहति भुलाये। निठुर भई कापर इतो कह सूर सुभाये ॥ १९॥ गुंडमलार ॥ राधिका कहति ये करति हांसी। रहति मुख मुख हेरि 'नैनकी | सैन दै कहति मोको कृष्ण उपासी।सुनहंरी सखी मैं कहा.तुम सों कहीं कहा बूझाति मोहि कहति.