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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३९४

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दशमस्कन्ध १०


राधा। आजुही प्रात इक चरित देख्यो नयो तबहि ते मोहिं यह भई वाधा॥ कहौं जो एक करि देखती नैन भरि भोरते भोर ह्वै रही माई। सूर प्रभु श्याम की श्यामता मेघ की यहै जिय सोच कछु नहिं सोहाई॥२०॥ रामकली ॥ करधरकी धरमैर सखीरी। कीमृक सीपजकी बगपंगति की मयूरकी पीड पखीरी॥ की सुरचाप किधौं बनमाला तडित किधौं पटु पीत। किधौं मंदगरजनि जलधरकी पगनूपुर रवनीत॥ की जलधरकी श्याम सुभगतनु इहै भोरते सोचति। सुरश्याम रसभरी राधिका उमँगि उमँगि रसमोचति॥२१॥ रामकली ॥ आजु सखी अरुणोदय मेरे नैनन धोख भयो। कीहरि आजु पंथ यहि गौने कीधौं श्याम जलद उनयो। की बगपंगति भ्रांति उरपरकी मुकुतामाल बहुमोल। कीधौं मोर मुदित नाचतकी वरहि मुकुटकी डोल की घनघोरगंभीर प्रात उठि की वालनकी टेरनि। कीदामिनि कौंधति चहुँदिशकी सुभग पीतपट फेरनि॥ की वनमाल लाल उरराजन की सुरपति धनुचारु। सूरदास प्रभु रस भरि उमकी राधा कहति विचारु॥२२॥ बिलावल ॥ सुनहु सखी राधा कहनावति। हम देख्यो सोई इन देखे ऐसेहि दोष लगावति॥ यह पुनीत हमही अपराधिनि तनु अपराध बढावत।श्यामाश्याम सबके सुखदायक ताते कहि मनभावत॥ इतनेहि रहौ और जिनि भाषहु अजहूं लाज न आवत। सूरश्याम राधा जो एकै तऊ नहीं कहि आवत॥ २३॥ सूहीबिलावर ॥ राधाको कछु और सुभाउ। हम देखति हरिको औरहि अंग यह निरखति सतिभाउ॥ यह है विनकलंककी सांची हम कलंकमें सानी। हम हरिकी दासी समनाहीं यह हरिकी पटरानी॥ याकी स्तुति हम कहा करिहैं रसना एक न आवै। सुरश्याम कोईनहिं जाने भजन प्रताप बतावै॥२४॥ गूंडमलार ॥ राधिका हृदयते दोष टारौ। नंदके लाल देखे प्रात काल ते मेघ नहिं श्याम तनु छबि विचारौ॥ इंद्रधनु नहीं वन दाम बहु सुमनके वगपांति नहीं वर मोतीमाला। शिखी वह नहीं शिरमुकुट श्रीखंड पछ तडित नहिं पीत पट छबि रसाला॥ मंद गर्जनि नहीं चरण नूपुर शबद भोरहीं आजु हरिगवन कीन्हो। सूर प्रभु भामिनी भवन करि गवनमनरवन दुखके दवन जानिलीन्हों॥२५॥ भोरजे गये तेई श्यामवैरी। धोखो मोहिं भयो तब लखे नहिं एक करि नीलवनमेघ छबि चीन्ह तनु लैरी॥ शिखीकी भांति शिरपीड डोलत सुभग चापते अधिक नव मालसोभा। सांवरीघटा वगपांतिते रुचिर मोतिवर दाम उर देखि लोभा॥ तडिततेपीतपटु कीच मकराजई गरज नहिं प्रातही ग्वाल बोले। सूर प्रभु सखी यह बात सांची कही पवनवशमेघ ज्यों अंग डोले॥२६॥ कल्याण ॥ धन्यहो धन्य तुम घोष नारी॥ मोहिं धोखो गयो दरश तुमको भयो तुमहि मोहिं देखोरी बीचभारी॥ जादिना संग मैं गई स्नानको यमुनके तीर देखे कन्हाई॥ पींड श्रीखंड शिर भेष नटवर कछे अंग इक छटा मैंही भुलाई॥ एकद्दोस आइ ठाढे भए द्वार हरि आज द्वारह्वै गए मेरे। सूर प्रभु तादिना तुमहि कहि दियो मोहिं आन मैं लखे सोउ कहे तेरे २७॥ आसावरी तुम कैसे दरशन पावतिरी। कैसे श्याम अंग अवलोकति क्यों नैननको ठहरावतरी॥ कैसे रूप हृदय राखतिहौ वैतो अति झलकावतरी। मोको जहां मिलत हैं माई तहँ तहँ अति भरमावतरी॥ मैं कबहूं नीके नहिं देखे कहा कहौं कहत न आवतरी। सूरश्याम कैसे तुम देखाति मोहिं दरश नहिं द्यावतरी॥२८॥ आसावरी ॥ धन्य धन्य वृषभानुकुमारी। धनि माता धनि पिता धन्य तुअ धनि तोसी उपजाईरी॥ धन्य दिवस धनि निसा तबहिंकी धन्य घरी धनि याम। धन्य कान्ह तेरे वश जेहैं धनि कीन्हें वश श्याम॥ धनि मति धनि गति धनि तेरो हित धन्य भक्ति धनि भाउ। सूरश्याम पति धन्य नारि तू धनि धनि एक सुभाउ॥२९॥ जैतश्री ॥ तोहिं श्याम