पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३९५

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(३०२) हम कहाँ देखावें । तुमते न्यारे रहत. कबहुँ वै नैक नहीं विसरावें ॥ एक जीव देहीद्वै राची यह कहि कहि जु सुना। उनकी पटतर तुमको दीजै तुम पटतरवे पावें ॥ अमृत कहा अनृत गुण प्रगटे सो हम कहा वताएँ । सूरदास गूंगेको गुर ज्यों बूझति कहा वुझावै ॥ ३० ॥ टोडी ॥ सुनि राधा यह कहा विचारै । वे तेरे रंग तू उनके रंग अपनो मुख काहे न निहारै ॥ जो देखे तो छांह आपनी श्याम हृदय ह्यां छाया।ऐसी दशा नंदनंदनकी तुम दोउ निर्मल कायानीलांवर श्या मलतनुकीछवि तुअछवि पीत सुवासाधन भीतर दामिनी प्रकाशतदामिनि धन चहुँपास।सुनरी सखी विलछ कहौं तोसों चाहति हरिको रूपासूर सुनहु तुम दोउ समजोरी एक एक रूप अनूप ॥३॥ धनाश्री ॥ सुनि ललिता चंद्रावलि वात । मोसों श्याम नेह मानतहैं तुमसों कहति लनात ॥ तुमतौ । सदा रहति हरि सँगही भेद कहो यह मोहि । हाहाकरति पाँइहों लागतिः शपथहै मेरी तोहि ॥ काहेको इतरात सखीरी तोते प्यारी कौन । सुरश्याम तेरे वश ऐसे ज्यों पर्वतवश पौन ॥ ३२॥ नट ॥ पिय तेरे वश योरी माई । ज्यों संगही संग छाँह देह वश प्रेम कह्यो नहिंजाई ॥ ज्यों चकोर वश शरद चंद्रके चक्रवाक वशभान । जैसे मधुकर कमलकोश वश त्यो वश श्याम सुजान ॥ज्यों चातक वश स्वाति बूंदके तनके वश ज्यों जीय । सूरदास प्रभु अतिवश तेरे समझि देखिधोंहीय ॥ ३३ ॥ धनाश्री ॥ तूरी छांह किये हरि राखति । अपने मन तू जानति नाके मुख मोसों यह भाषति ॥ अतिवश रहत कान्हरी तोको मुकुर हाथलै देखो । तैसीये मन मोहनकी गति उहै भाव मन लेखो। तुमही वाम अंग-दक्षिण वै ऐसे करि एक देह । सूर मीन मधुकर चकोरको इतनो नहीं सनेह ॥३४॥ देसाप ।। नँदनंदन वशतरेरी । सुनि राधिका परम वड़भागिनि अनुरागिनि हरिकेरीरी। जादिन ते तोहि सरिक मिले हरि धेनु दुहावन आई री ता दिनते वश भये कन्हाई कहा ठगोरी लाई री ॥ अव तू कहति कहा मो आगे वातन मोहि भुलावै री। सूरदास ललिताकी वाणी सुनि सुनि हरप बढ़ावरी ॥ ३५ ॥ यही ॥ ललिता मुख सुनि सुनि वै वानी । मैं ऐसी जिय में यह आनी ॥ और नही मोसरि कोउ बजकी। हो राधा आधा अँग हरिकी। अपनेही वश पियको करिहौ । कहूं जात देखों तव लरिहौ ॥ घर घर सवै गई बजनारी । यहि अंतर आये गिरिधारी ॥ हरि अंतर्यामी अविनाशी । जानि राधिका गर्व उदासी ॥ सूरश्याम राधा तन हेरयो । नागरि देखतही मुख फेरयो । ३६ ॥ सारंग ॥ वरन्यो नहिं मानत उझकत फिरत हो कान्ह घर घर । तुम मिसही मिस देखत फिरत युवतिनके बदन को न कौनके घर ॥ कोउ अपने घर काम काज जैसे तैसे तुम आवत हौ दर. दर । सूरदास प्रभु अतिहि अचगरी देत डोलत नेक नहीं जियमें डर ॥३७॥ विलावल ॥ यह जान्यो जिय राधिका द्वारे हरि लागे । गर्व कियो जिय प्रेम को ऐसे अनुरागे॥ वैठि रही अभिमान सों यह ठौर न पायो हृदय श्याम सुखधाम में अभिमान वसायो । राधा के यह जानि के आपुन पछिताहीं। जहां गर्व अभिमान है तहां गोविंद नाहींतहां नेकहुँ नहिं रहै नहीं दरशन दीन्हों। सूरश्याम अंतर भये जव गर्वहि चीन्हों॥३८॥धनाश्री ॥ राधा चकित भई मन माहीं । अवहीं श्याम द्वार है झांके ह्यां आये क्यों नाहीं ॥ आपुन आइ तहां जो देखे मिले न नंदकुमार । आवत हे फिरि गये श्याम घन अति ही भयो विचार ॥ सूनै भवन अकेली मैंही नीके उझकि निहारयो । मोते चूक परी मैं जानी ताते मोहि विसारयो । एक अभिमान हृदय करि वैठी एते पर झहरानी । सूरदास प्रभु गये द्वार को तव व्याकुल पछितानी ॥ ३९ ॥ सारंग ॥ मैं अपने जिय गर्व कियो । वै अंतर्यामी सब जानत देख