सायक तानि॥ पिनाकी पति सुत तासु वाहन भषक भष विषषानि। शाखामृग रिपु। बसन मलयज हित हुतासनवानि॥ धर्मसुतके अरि सुभावहि तजत धरि शिरपानि। सूरदास विचित्र विरहिनि चूक मन मन मान॥५०॥ टोडी ॥ सुनि सजनी यह करनी तेरी। हमसों भेद करै हित उनसों ऐसे गुन उन केरी॥ आजुहिते ऐसे ढंग आये अबहीं तो दिन हैरी। ऐसे दूटि परी उन ऊपर तुमही कीन्हो वैरी॥ अजहूँ कह्यो मानिहै मेरे कीधों नहीं करैरी॥ सूर
श्याम सों मानु करै किन काहे वृथा मरैरी॥५१॥ सोरठ॥ तैहीं उनको मूंड चढायो। भवन विपिन सँगही सँग डोलै ऐसहि भेद लखायो॥ पुरुषभवँर दिनचारि आपने अपनो चाउ सरायो। नँदनंदन बहु रवनि रवनवै इहै जानि विसरायो॥ अपनी बात आपने करहै हमको तब न सुनायो। सुनहु सूर विन मान कहौ किन अपनो पिय अपनायो॥५२॥ कान्हरो ॥ रैनिमो जागत विहानी मोहनसों मैं मान कियो तातेभई अधिक तनुतपति। सेज सुगंध तलष लागत पावकहुं दाह सखीरी त्रिविध पवन उड़पति॥ ऐसीकै व्यापीहौ मन्मथ मेरो जी जानै माई श्याम श्याम कहिरौनि जपति। वेगि मिलाउ सूरके प्रभुको भूलिभिमान करौं कबहूं नहिं मदनबानते कंपति॥५३॥
धनाश्री ॥ मानविना नहिं प्रीति रहैरी। धाइ मिलेकी गति तेरीसी प्रगट देखि मोहिं कहा कहैरी॥ अपनो चाउ सारि उन लीन्हों तू काहे अब वृथा बहैरी। बौठि रहे काहे नहिं दृढह्वै फिरि काहेन तू मान गहैरी॥ अपनो पेट दियो तैं उनको नाकबुध्य त्रय सबै कहैरी। सूरश्याम ऐसेहैं माई उनको विनु
अभिमान लहैरी॥५४॥ मलार ॥ सजौं क्यों मान मन न मेरे हाथ॥ पियकी सुरति करि उमंगि भरत मोसों मानत वाम श्याम गुण गुण आभिलाष॥ करत जो मोकानि न मानि आनि जुवरततिन विन नुसरत। अपमानतहूं मुदित मूढयश अपयशहू न डरत ॥ रिसमें रस विषुदै चिरचत्त
नंदलाल हठि प्राणहरत। भ्रममेतो रिस करत न रसवश मोहिंसों उलटि सरत। स्वारथ सब इंद्री समहूं पर विरहा धीर धरत। सूरदास घरकी फूटैडी कैसे धीर धरत॥५५॥ कान्हरो ॥ चारि चारि दिन सबै सुहागिनि री ह्वै चुकीमैं स्वरूप अपनी। कोउ अपने जिय मान करै माईहो मोहितौ छुटति
अति कपनी॥ मेरो कह्यो कार मान हृदय धार छांडि देहु आति तपनी। सूरश्याम तबही मानेंगे तबहिं करैंगे जपनी॥५६॥ हमारी सुरति विसारी वनवारी हम सरबस दैदेहारी। सखीपे वै न भये अपने सपनेहू वै मुरारी गिरिधारी॥ वे मोहन मधुकर समान अन बोली मनलावतरी। धावत हम व्याकुल विरह व्यापि दिन प्रति नीर जनैना ढारि ढारी॥ हम तन मनदै हाथ बिकानी वै अति निठुर रहत हैं मुरारी। सूरदास प्रभु सुनहु सखी बहु रवनि रवन पिय हम यक ब्रतधरि मदन अगिनि तनु जारी॥५७॥ गौरी ॥ मैं अपनीसी बहुत करीरी। मोसों कहा कहति तू माई मनके संग मैं बहुत लड़ीरी। राखौं अटकि उतहिको धावै उनको वैसियौं परन परीरी॥ मोसों बैर करै रति उनसों मोको छांडी द्वार खड़ीरी॥ अजहूं मान करौ मन पाऊं यह कहि इत उत चितै डरीरी। सुनहु सूर पांच मत एकै मोमैं मैंही रही परीरी॥५८॥ गौरी ॥ मन जिनि सुनै बात यह माई कौरै लग्यो होइगो कितहूं कहि दैहै को जाई॥ ऐसे डरति रहति हैं वाको चुगुली जाइ करै गो। उनसों काह फिरि ह्यां आवैगो मोसों आनि लरैगो। पंच संग लीन्हे वह डोलत कोऊ मोहिं न मानै। सुरश्याम कोउ उनहिं सिखायो वै इतनो कह जानै॥५९॥ ईमन ॥ मेरो मन कहिवे कोहै। जबहीं ते हरि दरशन कीन्हे नैन भेद कियो जोहै॥ इंद्री सहित चित्त हूं लैगयो रही अकेली हमही। येते पर तुम मान करावत तौ मनदेहु न तुमही॥ मोको दोवल देति
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सूरसागर।
