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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३९८

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दशमस्कन्ध-१०


कहाहौ तुमतौ सबै अयानी। सूरश्यामको वेगि मिलावहु हारि आपनी मानी॥६०॥ रामकली ॥ सारंग सारंग धरहि मिलावहु। सारंग विनय करत सारंग सों सारंग दुख बिसरावहु॥ सारंग समय दहत अति सारंग सारंग तिनहि दिखावहु। सारंगपति सारंगधर जैहै सारंग जाइ मनावहु॥ सारंग चरण सुभग कर सारंग सारंग नाम बोलावहु। सूरदास सारंग उपकारिनि सारंग मरत जिवावहु॥६१॥ विहागरो ॥ मोते यह अपराध परयो। आये श्याम द्वार भये ठाढे मैं अपने जिय गर्वधरयो॥ जानि बूझि मैं यह कृत कीन्हो सो मेरेही शीशपरयो। मन अपने ढँगहीमें मोसों वारंवार लरयो। मैं अति विमुख रहे ये सन्मुख नीके उनहिं ठरयो। सूरदास मन आपु स्वारथी अपनो काज करयो॥६२॥ सोरठ ॥ मन जो कह्यो करैरी माई। तेरी कही बात सब होती मिलौ उनहिं को धाई॥ निलज भई तनु सुधि विसराई गुरुजन करत लराई। इत कुलकानि उतहि हरिको रस मनतो अति अपुडाई॥ आप स्वारथी सबै देखियत है मोकों दुखदाई। सूरदास प्रभु चित अपनो करि तनकहि गयो रिसाई॥६३॥ देशाष ॥ मैं अबही करौं मानपै मन थिर नरहै। कोटि यतन करि करि पबिहारी मोहिं विसारि गये को उनसों जुकहै॥ मोको निदरि मिल्योंहै हरिको येते पर तनु मदन दहै। सुरश्याम सँग नेक न त्यागत सोवत जागत वरु अपमान सहै॥६४॥ मनहि कह्यो करि मानपै कह्यो नकरै। वारवार हरिसों गुहरावत मोहिं मँगावत पुनि पुनि आनि लरै॥ घटहूमें इंद्री वश ताके लै निकस्यो मोहिं कौन डरै। सुनि सजनी मैं रही अकेली विरह दहेली इत गुरुजन झहरै॥ अब बिनु मिले बनत नहिं आली निशि दिन पल पल रह्यो नपरै। सूरश्याम बहु रवनि रवन जो भलेही रहैं वे चित यह नहिं धरै॥६५॥ बिलावल ॥ भूलि नहीं अब मान करौंरी। जाते होइ अकाज आपनो काहे वृथा मरोंरी॥ ऐसे तनमें गर्व नराखौं चिंतामणि विसरौंरी। ऐसी बात कहै जो कोऊ ताके संग लरौंरी॥ आरजपंथ चले कहा सरिहै श्यामहि संग फिरौंरी॥ सूरश्याम जो आपस्वारथी दरशन नैन भरौंरी॥६६॥ आसावरी ॥ चूक परी मोते मैं जानी मिलैं श्याम वक सांऊंरी। हाहाकरि दशननितृण धरि धरि लोचन जलनि ढराऊंरी॥ चरण गहौं गाढ़े करि करसों पुनि पुनि शीश छुवाऊंरी। मुख चितवौं फिरि धरणि निहारौं ऐसी रुचि उपजाऊंरी॥ मिलौं धाइ अकुलाइ भुजनि भरि उरकी तपति जनाउँरी। सुरश्याम अपराध क्षमहु अब यह कहि कहि जुसुनाउंरी॥६७॥ गौरी ॥ माई मेरो मन पियसों यों लग्यो ज्यों सँग लागी छांह। मेरो मन पियके जीव वसतहै पियको जीव मोमें नाँह॥ ज्यों चकोर चंदाको निरखै इत उत दृष्टि नजाहि। सूरश्याम विनु छिन छिन युग सम क्यों करि रैनि विहाहि॥६८॥ जैतश्री ॥ उनको यह अपराध नहीं। वै आवतहैं नीके मेरे मैंही गर्व कियो तनही॥ मेरे गर्वते सह्यो कछु नहीं एक भई तनु दशानही। सुख मिटि गयो हिये दुख पूरन अवरै होइ नहीं विनही॥ अब जो दरश देहिं कैसेहू फिरतरहौं सँगही सँगही। सूरदास प्रभुको हियरेते अंतर करौं नहीं छिनही॥६९॥ बिलावल ॥ अबकै जो पियपाऊंतो हृदय माँझ दुराऊँ। हरिको दरशन पाऊँ आभूषण अंग बनाऊं॥ ऐसोको जो आनि मिलावै ताहि निहाल कराऊं। जो पाऊं तौ मंगल गाऊँ मोतिनचौक पुराऊं॥ रसकरि नाचों गाऊं बजाऊं चंदन भवन लिपाऊं। जो मोहन वश मेरे होवहिं हीरालाल लुटाऊं॥ मणि माणिक न्यवछावरि करिहौं सोदिन सुदिन कहाऊँ। केतकि करनवेलि चम्मेली फूलन सेज विछाऊँ॥ तापर पियको पौढाऊं मैं अचरा वायु डुलाऊं। चंदन अगर कपूर अरगजा प्रभुके खौरि बनाऊं॥ जो विधना कबहूं यह करतो कामको काम पुराऊँ। सूरश्याम विन देखे सजनी कैसे मन अपनाऊं॥७०॥

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