इकते इक अधिकारी॥ ललिता संग सखिन सोभा सखि देख्यो छबि पियप्यारी। सुनह सूर जो अग्नि होम घृत ताहूते यह न्यारी॥ धनाश्री ॥ देखि सखी राधा अकुलानी। ऐसे अंग अंग छबि लूटत मिलेहु श्यामको नहीं पत्यानी॥ जैसे तृषावंत जल अचवत वहतौ पुनि ठहरात। यह
आतुर छबि लै उरधारति नैक नहीं त्रिपितात॥ जो चकोर इकटक निशि चितवत याकी सरि सोउ नाहीं। ज्यों घृत होम वह्निकी महिमा सूर प्रगट या माहीं॥
केदारो ॥ यद्यपि राधिका हरि संग। हावभाव कटाक्ष लोचन करत नानारंग॥ हृदय व्याकुल धीर नाहीं वदन कमल विलास। तृषामें जल नाम सुनि ज्यों अधिक अधिकाहि प्यास॥ श्यामरूप अपार इत उत लोभ पुट विस्तार। सूंरमिलत नहिं लहत कोऊ दुहुँनि बल अधिकार॥ केदारो ॥ राधेहि मिलेहु प्रतीत न आवति। यद्यपि नाथ विधु वदन विलोकति दरशनको सुखपावति॥ भार भरि लोचन रूप परमनिधि उरमें आनि
दुरावति। विरह विकल मति दृष्टि दुहँदिशि सचिसरधा ज्यों धावति॥ चितवति चकित रहति चित अंतर नैन निमेष न लावति। सपनो अहि कि सत्य ईश इह बुद्धि वितर्क बनावति॥ कबहुँक करत विचार कौनहो को हरि केहि यह भावति। सूर प्रेमकी बात अटपटी मनतरंग उपजावति॥ रामकली ॥ देखहु अनदेखेसे लागत। यद्यपि करति रंग भरे एकहि इकटक रहे निमिष नहिं त्यागत॥ इत रुचि दृष्टि मनोज महासुख उत सोभा गुण अमित अनागत। वाढ्यो वैरै कर्ण अर्जुन ज्यों दुइ महँ एक भूलि नहिं भागत॥ उत सन्मुखसी सावधान सजि इत सनाह अँग अँग अनुरागत। ऐसे सूर सुभट एलोचन अधिकौ अधिक श्याम सुख मांगत॥ कान्हरो ॥ देखियत दोउ अहंकार परे। उत हरि रूप नैन याके इत मानहु सुभट अरे॥ रुचिर सुदृष्टि
मनोज महामुख इन इत एक करे। उन उत भूषण भेद विविध राचि अंग अंग धनुष धरे॥ एअति रति रण रोष नमानत निमिष निखंग झरे। बाहु व्यथहि न वदत पुलक रुह सब अंग सरस चरे॥ वैश्री ए अनुराग सूर सजि छिनु २ वढत खरे। मानहु उमँगि चल्यो चाहतहै सारँग सुधाभरे॥ विहागरो ॥ नखशिखते अंग अंग रूप छवि देखि देखि नैना न अघाने। निशि अरु दिन एकटकही राखे पलक लगाइ न जाने॥ छवितरंग अगनित सरिताए जलनिधि लोचन तृप्ति न माने। सूरदास प्रभुकी सोभाको अति लालिची रहे ललचाने॥ विभास ॥ ललिता संग सखिनको लीन्हें।
दंपति सुख देखत अति भावत एकटक लोचन दीन्हें॥ प्यारी श्याम अंग की सोभा निदरे देख्योई चाहति। उत नागर नागरि नैननिको निदार रूप अवगाहति॥ उत उदार सोभाकी सींवा इत लोभहि नहिं पार। सूरश्याम अंग अंगकी सोभा निरखत वारंवार॥ गुंडमलार ॥ निदरि अंग छवि लेति राधा। यह कहति कितिक सोभा करैंगे श्याम मेटिहौं आज मन सबै साधा॥ उतहि हरि रूपकी राशि नहिं पार कहुँ दुहुँनि मन परस्पर होड कीन्हों। इतहि लुब्ध वै उतहि उदार चित्त दुहुँ नवल अंत नहीं परत चीन्हो॥ जुरे रणवीर ज्यों एकते एक सरस मुरत कोउ नहीं दोउ रूप भारी। सूर स्वामी स्वामिनी राधिका सरस निरस कोउ नहीं लाख लई नारी॥ मारू ॥ रुँधे
रति संग्राम खेत नीके। एकते एक रणवीर जोधा प्रबल मुरत नहिं नेक अति सबल जीके॥ भौंह कोदंड शर नैन जोधानु की काम छूटनि मानो कटाक्षनि निहारै। हँसनि दुज चमक करिवरनि लोहेन झकल नखन छत घात नेजा सँभारै॥ पीतपट डारि कंचुकी मोचित करानि कवच सन्नाहए छुटे तनते। भुजा भुज धरत मनो द्विरद शुंडिन लरत उर उरनि भिरे दोउ जुरे मनते॥ लटकि लपटानि मानो सुभट लरि परे खेत रत्ति सेज चुंचिताम कीन्हों। सूर प्रभु रसिक
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सूरसागर।
