पहिरत श्याम भूषण नारि। सूर प्रभु करि मानु बैठे त्रिय करति मनुहारि॥ बिलावल ॥ कहति नागरी श्याम सों तजौ मानु हठीली। हमते चूक कहा परी त्रिय गर्व गहीली॥ हँसतहि में तुमरिस कियो कहा प्रकृति तुम्हारी। वार वार कर धरतिहै कहि कहि सुकुमारी॥ वृथा मान नहिं कीजिये शिर चरणन धारति। आनन आनन जोरिकै पिय मुखहि निहारति॥ निठुर भईहौ
लाड़िली कबके हम ठाढे। तुम हम पर रिसि करतहौ हमहैं तुव चाढे॥ श्याम कियो हठ जानिक इक चरित बनाऊं। सुनहु सूर प्यारी हृदय रस विरह उपाऊं॥
बिलावल ॥ लाल निठुर ह्वै बैठि रहे। प्यारी हाहा करति न मानत पुनि पुनि चरण गहे॥ नहिं बोलत नहिं चितवत मुखतन धरणी
नखन करोवत। आपु हँसति पुनि पुनि उर लागत चकित होत मुख जोवत॥ कहा करत एबोलत नाहीं पिय यह खेल मिटावहु। सूरश्याम मुख कोटि चंद्रछबि हँसिकै मोहिं देखावहु॥ धनाश्री ॥ नागरि हँसति हृदय डरभारी। कबहुँ अंक भरि लेति उरज विच कबहुँ करति मनुहारी॥ मान करत नीके नहिं लागै दूरि करौ यह ख्याल। नेक नहीं चितवत राधा तन निठुर भए नँदलाल॥ शीश धरति चरणनि लै पुनि पुनि त्रियको रूप निहारत। सूरदास प्रभु
मान धरयो दृढ़ धरणी नखन विदारत॥ गुंड ॥ निरखि त्रियरूप पिय चकित भारी। किधौं वै पुरुष मैं नारिकी वै नारि माहिहौं पुरुष तनु सुधि विसारी॥ आप तन चितै शिर मुकुट कुंडल श्रवन अधर मुरली माल वन विराजै। उतहि प्रियरूप शिर मांग वेनी सुभगभाल वेंदी विंद महाछाजै।
नागरी हठ तजौ कृपाकार मोहिं भजौ परी कह चूक सो कहौ प्यारी। सूरप्रभु नागरी रस विरह मगन भई देखि छबि हँसत गिरिराज धारी॥ धनाश्री ॥ निरखत पिय प्यारी अंग अंग विरह सोभा। कबहूँ पियचरण परति कबहूँ भुज अंक भरात कबहूँ जिय डरति वचन सुनिवकी लोभा॥ कबहूँ कहति पियसों पिय कबहुँ कहति प्यारी हो हाहा करि पाँइ परति विकल भई वाला। कबहुँ उठति कबहुँ बैठ पाछे ह्वै रहति कबहूं आगे ह्वै वदन हेरि परी विरह ज्वाला॥ काहे तुम कियो मान बोले विन जात प्रान दंपति है संग दशा ऐसी उपजाई। रीझे प्रिय सूरश्याम अंकम भरि लई वाम विरह द्वंद्व मेटि हरष हृदय उपजाई॥ धनाश्री ॥ प्रिया पिय लीन्ही अंकम लाइ। खेलतमें तुम विरह बढ़ायो गई कहा बितताइ॥ तुमही कह्यो मान करिवेको आपुहि बुद्धि उपाइ। काहे विवस भई विन कारण ऐसी गई डराइ॥ सुन प्यारी हम भाव बतायो अंतर गए जनाइ। वारंवार अलिंगन दीन्हो अबहिं रही मुरझाइ॥ सींची कनकलता सूरज प्रभु अमृत वचन सुनाइ। अति सुखदै दुखको बिसरायो राधारवन कन्हाइ॥ गुंडमलार ॥ श्याम तनु पिया भूषण विराजै। कनक मणि मुकुट कुंडल श्रवन वनमाल अधर मुरली धरे नारि छाजै॥ निरखि छबि परस्पर रीझे दोउ नारि वर गयो तजि विरह उर प्रेम पागे। सूरप्रभु नागरी हँसति मन मन रसति वसत मन श्यामके बड़े भागे॥
नट ॥ नागरि भूषण श्याम बनावत। श्रीनागर नागरि अँग सोभा किवो निरखि मन भावत॥ श्यामा कनक लकुट कर लीन्हे पीतांबर उर धारे। उत गिरिधर नीलांवर सारी घूंघट वोट निहारे॥ वचन परस्पर कोकिल वाणी श्याम नारि पतिराधा। सूर स्वरूप नारि पति काछे पति नारी तनु साधा॥
नट ॥ नीके श्याम मान तुम धारयो। तुम बैठे दृढमान ठानि मैं देख्यो मान तुम्हारो॥ यह मन साध बहुतही मेरे तुम विनु कौन निवारै। नागार पियतन अपनी सोभा वारहि वार निहारै॥ वेनी मांग भाल वेंदी छबि नैननि अंजन रंग। सूर निराखि पिय घूंघट की छबि पुलकनमावति अंग॥ धनाश्री ॥ कुंजबन गमन दंपति विचारै। नारिको वेसकरि नारिको मनहि हरि
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दशमस्कन्ध-१०
